जैसा कि अक्सर होता है आप नई जगह जाते हैं तो नए लोगों से परिचय होता है नए दोस्त बनते हैं। परिचय होने में देर नहीं लगती। देर लगती है दोस्ती करने में या दोस्त बनाने में। परिचय और दोस्ती में अंतर है, बहुत बारीक अंतर। बैंगलोर इतना बड़ा है कि एक ही शहर में रहकर भी आप अपरिचित बने रहते हैं। या परिचितों से शायद वर्षों तक नहीं मिल सकते ।
भोपाल से जब बंगलौर आना तय हुआ तो सबसे पहले अजीम प्रेमजीफाउंडेशन यानी जहां मैं मुझे काम करना था वहां पहले से मौजूद एलेक्स एम जार्ज की याद आई। एलेक्स पिछले लगभग तीन-चार साल से फाउंडेशन में है। एलेक्स एकलव्य में भी लगभग पांच साल रहा है। इसलिए उससे एक तरह का परिचय पहले से था। इसीलिए उससे तो हर हाल में मुलाकात होनी ही थी। हुई भी।
मैंने 2 मार्च,2009 को फाउंडेशन ज्वाइन किया । पहला एक हफ्ता गेस्ट हाउस में रहा। इस बीच एक आशियाना तलाश कर लेने का नोटिस जेब में था। एक शाम एलेक्स के साथ बंगलौर की गलियां नापीं। नए तरह के अनुभव अपने खाते में दर्ज किए । एक गली में एक सुंदर सी बिल्डिंग में रहने का इंतजाम था। हर महीने साढ़े तीन हजार खर्च करो और दो और लोगों के साथ एक कमरा आपस में बांट लो। टीवी पर मनपसंद कार्यक्रम देखो। फिल्में देखो। क्रिकेट देखो। पलंग मिलेगा, बिस्तर सहित। लेकिन सबके पलंग केवल छह-छह इंच के अंतर पर लगाए जाएंगे। खाना मिलेगा। लिफ्ट सुविधा होगी। नीचे चौकीदार नहीं, सिक्योरिटी गार्ड होगा। रात को एक तय समय पर दरवाजे पर ताला लग जाएगा। सुबह एक तय समय पर खुलेगा। वहां के मैनेजर ने कहा था और क्या चाहिए आपको। जैसे पूछ रहा हो कमी हो तो बताएं। इंतजाम हो जाएगा। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। बस चुपचाप वहां से निकल लिया। मुझे लगा यह तो सर्वसुविधा युक्त जेल है।
एक दूसरी बिल्डिंग में एक कमरे में दो पलंग लगाए गए थे। यहां पलंगों के बीच कम से कम दो फीट की दूरी थी। लेकिन बिना खाने की सुविधा के हर माह चार हजार की मांग थी। अगर मैं वहां रहना तय करता तो शायद उसका उद् घाटन करता। पर यह सम्मान लेना मैंने उचित नहीं समझा। एक और बिल्डिंग में किसी जिग्जा पहेली की तरह बना घर था ग्राउंड फलोर पर। यहां हर दम आपको जागृत अवस्था में रखने का पूरा इंतजाम था। जागते रहो वाले चौकीदार की भी आवश्यकता नहीं थी। मुझे हर रोज सुबह साढ़े आठ बजे दफ्तर पहुंचना था इसलिए मैं इस सुविधा का लाभ उठाने की स्थिति में भी नहीं था। एक और दिन फाउंडेशन में एक और परिचित निर्भय के साथ कुछ घर देखे। पर मामला कुछ जमा नहीं । मुझे घरौंदा फिल्म के अमोल पालेकर और जरीना वहाब बहुत याद आए। और उन पर फिल्माया गया और भूपेन्द्र और रूना लैला का गाया गीत दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में एक आबोदाना ढूंढते हैं,आशियाना ढूंढते हैं।
ज्वाइन करते ही मुझे एक प्रस्ताव मिला था। साथ काम करने वाले दो साथी पहले से ही एक साथ रह रहे थे। तब तक दोनों बैचलर थे। उन्होंने कहा था आपको ऐतराज न हो तो आप भी हमारे साथ ही रहिए। एक दिन उनका ‘रूम’ भी जाकर देख लिया। हां वे तो रूम ही कहते हैं। यहां-वहां भटकने के बाद बेहतर यही लगा कि फिलहाल डेरा उनके रूम पर ही ले जाया जाए। बाद में सोचेंगे।
स्वागत है।
जवाब देंहटाएंकुनबा जमाइये और बढ़ाइए ;)
साथ ही बंगलोर शहर के बारे में सब को बताने के लिए नित नए पोस्ट भी लिखते रहिए।
लेख रोचक है । जमें आैर बंगलौर के बारे मे विस्तार से लिखे। बहुत शाानदार शाहर है, पर यहां के जाम से बचकर रहे। नया शाहर वह भी बगलौर बहुत मुबारक हो
जवाब देंहटाएंबेहतर आगाज़...
जवाब देंहटाएंस्वागत है.शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंsundar bhasha me rochak varnan........
जवाब देंहटाएंaapka swagat hai !
nice.narayan narayan
जवाब देंहटाएंaap ka kunba achcha laga
जवाब देंहटाएंस्वागत है.शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंब्लॉगजगत में आपका स्वागत है......लिखते रहिये.....शुभकामनाएं.....
जवाब देंहटाएंसाभार
हमसफ़र यादों का.......
आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
जवाब देंहटाएंलिखते रहिये
चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
गार्गी
हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका हार्दिक स्वागत है.....
जवाब देंहटाएंसही कहा सर आपने पहले इसे बंजारापन कहा करते थे लेकिन अब इसे कमाने का तरीका कहा जाता है..अब तो दुनिया इस चीज की आदी हो चुकी है
जवाब देंहटाएं