शनिवार, 11 जुलाई 2009

बंगलौर: दो

फूल
यहां अल्‍लसुबह
बगीचे में नहीं
महिलाओं की
चोटी में खिलते हैं

राह चलते
नजरें उनके
नितम्‍बों पर नहीं
उनकी चोटियों के साथ झूलती
वेणियों पर टिकती हैं
फूलों की सुंदरता निहारते हम
नितम्‍बों का मोहक नृत्‍य भूल जाते हैं

हमारा आदिम मन
वासना नहीं साधना
की ओर जाता है

सोचते हैं
फूलों के रंग
वेणी की बनावट
उसमें फूलों की सजावट

सोचते हैं
वेणी बनाने वाले
धागे में फूल पिरोने वाले
हाथों के बारे में

सोचते हैं
उन्‍हें बगीचे में
देर रात या कि मुंह अंधेरे
पौधे से उतारने वाले
कांपते हाथों के बारे में

सोचते हैं
साइकिल के पीछे
परातनुमा डलिया में रखकर
फर्राटा भरते छोकरे के बारे में
या कि
सिर पर धरे डलिया
आवाज लगाती
बिना अपने बालों में लगाए वेणी
वेणी बेचती औरत के बारे में

सोचते हैं
यहां अल्‍लसुबह
जैस्‍मीन, सेंवती और ऐसे तमाम फूलों के बारे में
जो बगीचे में नहीं
महिलाओं के जूडे़ में
खिलते हैं।

राजेश उत्‍साही

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