बुधवार, 19 अगस्त 2009

रायपुर-भोपाल-नागपुर-रायपुर


28 जुलाई,2009

सुबह तीन बजे बिस्‍तर छोड़ देना पड़ा क्‍योंकि रायपुर के लिए उड़ान साढ़े छह बजे सुबह थी। वह भी सीधी नहीं वाया हैदराबाद । बंगलौर से छोटा हवाई जहाज हमें लेकर उड़ा। मेरे साथ फाउंडेशन की धीरा भी थी। साढ़े़ सात बजे हम हैदराबाद के शमशाबाद हवाई अड्डे पर थे। मौसम साफ पर ठ़ंडा था। रायपुर जाने वाला हवाई जहाज जैसे हमारी प्रतीक्षा में ही था। यह भी छोटा ही था। इस बार मैंने खिड़की वाली सीट चुनी। आठ बजे हैदराबाद से उड़े और दस बजे रायपुर के माना हवाई अड्डे पर थे। हैदराबाद से रायपुर के बीच का दृश्‍य देखने लायक था। रायपुर से कुछ पहले नीचे एक बहुत चौड़े पाट वाली नदी के दर्शन हुए। संभवत: महानदी थी। सबसे सुखद बात यह थी कि इसमें पानी भी था। पिछले दिनों इधर बारिश हुई थी। अच्‍छी बारिश।

फाउंडेशन के कम्‍प्‍यूटर एडेड लर्निग प्रोग्राम के तहत शिक्षक विकास परिचर्चा कार्यशाला का आयोजन धमतरी जिले के कुरूद विकासखंड में था। धीरा और मुझे इस कार्यशाला में ही जाना था। कार्यशाला 30 से थी। मैं दो दिन रायपुर में रूकने वाला था। धीरा को सीधे कुरूद जाना था। उसे लेने टैक्‍सी आने वाली थी। हम उसके इंतजार में एयरपोर्ट पर बैठे रहे। लगभग ग्‍यारह बजे टैक्‍सी आई। उसने मुझे छत्‍तीसगढ़ शिक्षा स्रोत केन्‍द्र में छोड़ा। मैं दो दिन यहीं रहने वाला था। यह केन्‍द्र एकलव्‍य, विद्यामंदिर तथा दिगन्‍तर ने मिलकर बनाया है। एकलव्‍य के पुराने साथी संजय तिवारी इसके प्रभारी हैं। उनसे मिलने का भी लोभ था और उनके साथियों से भी। संजय और उनके साथियों से तो मुलाकात हुई। औपचारिक बातचीत हुई। टीचर्स पोर्टल के बारे में बात हुई।


>कुंवर एक नए दोस्‍त का नाम है

यहां एक नया दोस्‍त बना कुंवर। दुबला-पतला लंबा। गेहुए रंग वाला कुंवर। धीरे-धीरे बोलता है पर साफ-साफ। कुंवर केन्‍द्र की देखभाल करता है। आफिस में चाय बनाकर देता है। जो अतिथि आते हैं उनके लिए खाना बनाता है। अच्‍छा खाना।

कुंवर बहुत जिज्ञासु है। कालेज की पढ़ाई कर रहा है,प्राइवेट। कम्‍प्‍यूटर चलाना सीख लिया है। अंग्रेजी इनपुटिंग करता है। हिन्‍दी सीख रहा है। स्‍केनिंग करता है। नया सीखने को, नई बात सुनने को हमेशा तत्‍पर रहता है। मैं सचमुच उससे बहुत प्रभावित हुआ। मुझे अपनी युवा अवस्‍था याद आ गई। मैंने भी शुरूआत ऐसे ही की थी। हां काम कुछ अलग तरह का था।

कुंवर से मैंने कहा कि मेरा खास ध्‍यान रखने की जरूरत नहीं है। मैं बहुत साधारण व्‍यक्ति हूं। उसने कहा जो लोग ऐसा कहते हैं मैं उनका ज्‍यादा ही ध्‍यान रखता हूं। iपता नहीं यह बात उसने व्‍यंग्‍य में कही थी या गंभीरता से। मैं सोचता रह गया वह उठकर चला गया। अपनी आदत के मुताबिक मैंने उसे गेस्‍ट हाउस की साफ-सफाई को लेकर कुछ टिप्‍स दीं। उसने मेरी बातें ध्‍यान से सुनीं।

>बरसों बाद संजय के साथ

संजय अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर घर ले गए। पर रास्‍ते भर जिस तरह वह मोटरसाइकिल चला रहे थे, मुझे डर ही लग रहा था। ऐसा लगता था,बस अब कहीं टपक ही पड़ेंगे। पर आखिरकार सुरक्षित घर पहुंच ही गए। संजय और मैं एकलव्‍य में लगभग दस-बारह साल साथ रहे,पर कभी उनके परिवार से मिलने का संयोग नहीं बना। असल में संजय होशंगाबाद में थे और मैं भोपाल में। पहली बार संजय की पत्‍नी सुखमणि और बच्‍चों से मुलाकात हुई। होशंगाबाद की, घर परिवार की बातें हुईं,बच्‍चों की बातें, उनकी पढ़ाई-लिखाई की बातें हुईं। छोटे बेटे ने आलू की चिप्‍स तलकर खिलाई। वह उसे बहुत पसंद है।

रत्‍ना जी से एक मुलाकात

रायपुर में डॉ.रत्‍ना वर्मा हैं जो udanti.com नामक एक पत्रिका निकालती हैं। यह वेब पत्रिका है जो कागज पर भी प्रकाशित होती है। उनसे स्रोत फीचर सर्विस के सिलसिले में सम्‍पर्क हुआ था। बाद में वह लेखकीय बिरादरी के रिश्‍ते में बदल गया। रायपुर मैं था तो उनसे मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। फोन पर बात की उन्‍होंने कहा शाम को आ जाइए।

रत्‍ना जी रायपुर में पंडरी में जीवन बीमा रोड पर रहती हैं। उनके पिताजी बृजलाल वर्मा जाने माने स्‍वतंत्रता सेनानी और केन्‍द्रीय संचार मंत्री रहे हैं। वे अब नहीं हैं। उनके अनुभवों की एक डायरी जल्‍द ही रत्‍ना जी प्रकाशित करने जा रही हैं। रत्‍ना जी लगभग बीस-पच्‍चीस साल पत्रकारिता करती रहीं हैं। वे लम्‍बे समय तक नवभारत में फीचर संपादक रहीं हैं। रायपुर में साप्‍ताहिक अखबार इतवारी का संपादन भी करती रहीं हैं। दो एक साल पहले उन्‍होंने तय किया कि वे अब सक्रिय पत्रकारिता छोड़कर कुछ रचनात्‍मक काम करना चाहेंगी। इस निर्णय का नतीजा udanti.com पत्रिका है। बहुरंगी और आकर्षक पत्रिका पहली बार में ही मन मोह लेती है। सामग्री से लेकर साज-सज्‍जा और छपाई सब कुछ आला दर्जे की। मुझे भी इसमें दो बार प्रकाशित होने का अवसर मिला। संजय और मैं लगभग एक डेढ़ घंटे रत्‍ना जी के साथ रहे। साहित्‍य, समाज पत्रकारिता की तमाम बातें हुईं। संजय ने यह संभावना खोजने की कोशिश की कि वे रत्‍ना जी को अपने रिर्सोस सेंटर से कैसे जोड़ सकते हैं। रत्‍ना जी से मिलकर अच्‍छा लगा।

30 जुलाई,2009

कुरूद के पास भाटागांव में कार्यशाला थी। कुंवर मुझे बस में बिठाने के लिए आया। यहां एक मजेदार अनुभव हुआ। बस का कंडक्‍टर चिल्‍ला रहा था दुर्ग और हमने सुना कुरूद। मैं बस में बैठ गया। शंका होने पर मैंने दो बार आगे की सीट पर बैठे एक व्‍यक्ति से समाधान करने की कोशिश की। उसने दोनों बार मेरे सवाल के जवाब में हां में सिर हिलाया। इस बीच बस पूरे रायपुर में घूमती रही और मैं एक तरह से रायपुर दर्शन करता रहा। रायपुर मैं तीसरी बार आया था। सबसे पहले लगभग तीस साल पहले रेल्‍वे की एक परीक्षा देने आया था। दूसरी बार लगभग बीस साल पहले माखनलाल चतुर्वेदी प‍त्रकारिता विश्‍वविद्यालय और राष्‍ट्रीय विज्ञान एवं तकनालॉजी संचार परिषद द्वारा आयोजित विज्ञान पत्रकारिता कार्यशाला में स्रोतव्‍यक्ति के रूप में आया था। रायपुर अभी भी और शहरों की तुलना में शहर कम कस्‍बा ज्‍यादा प्रतीत होता है। जब बस एक जगह जाकर रूकी और कंडक्‍टर तथा ड्रायवर उतरकर चाय पीने लगे तो मुझे लगा कि उनसे ही पूछ लिया जाए।

मेरा सवाल सुनकर दोनों ने मुझे आश्‍चर्य से देखा और कहा अंकल बस पर इतने बड़े अक्षरों में लिखा है कि बस राजनांदगांव जा रही है। मैंने कहा भैया मैं बाहर से आया हूं मुझे नहीं मालूम कि कुरूद किस रास्‍ते पर है। बैठने के पहले मैंने कंडक्‍टर से पूछा था। अब वे मेरी अज्ञानता पर हंस रहे थे और मैं अपनी वेबकूफी पर। मामला बोलने और सुनने का था। कंडक्‍टर जिस तरह से बोल रहा था,वह सुनने में दुर्ग कम कुरूद ज्‍यादा सुनाई देता था। बहरहाल मैं वहां उतरकर आटो लेकर बस स्‍टेंड गया। वहां से धमतरी जाने वाली बस में बैठा।

भाटागांव कुरूद से कोई सात किलोमीटर पहले ही है। यह राष्‍ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 43 पर है। भाटागांव में छत्‍तीसगढ़ पर्यटन मंडल ने अपना गेस्‍ट हाउस बनाया है। यह बिलकुल रोड पर ही है। पर गांव से बाहर। कार्यशाला यहीं थी। गेस्‍ट हाउस का डिजायन अच्‍छा है। गेस्‍ट हाउस बने अगस्‍त में एक साल होगा। लेकिन उसके पहले ही एक बड़े हाल की फालसीलिंग नीचे गिर गई है। घटिया निमार्ण और घटिया सामग्री का इस्‍तेमाल । मैं दो रात इस गेस्‍टहाउस में रहा। दिन में तो बिजली नहीं रहती थी,पर संयोग से रात में दोनों दिन बिजली नहीं गई। कार्यशाला में भाग लेने वाले शिक्षक चूंकि कुरूद विकासखंड के ही थे,इसलिए वे शाम को अपने घर लौट जाते थे। फाउंडेशन की स्‍थानीय टीम के लोग कुरूद में रहते हैं, इसलिए वे भी कुरूद चले जाते थे। यहां गेस्‍टहाउस में मेरे अलावा फाउंडेशन के दो और साथी थे। खाने की व्‍यवस्‍था नहीं थी,वह कुरूद से बनकर आता था। एक सुबह उठकर मैं चाय की तलाश में गांव की तरफ चला गया। गांव छोटा-सा है। चाय की दुकान से पहले मुझे देशी शराब की सरकारी दुकान मिली। यहां ग्राहक भी मौजूद थे। चाय की दुकान भी मिली। मैंने दो गिलास चाय पी और एक गिलास तोड़ा। जानबूझकर नहीं गलती से गिर गया टेबिल से।

आसपास नजर डालने से पता चल रहा था कि पिछले दिनों यहां अच्‍छी बारिश हुई है। खेतों में पानी भरा हुआ था। महिलाएं सिर पर गोबर और घास रखकर ले जा रही थीं। ऐसे दृश्‍य अब गांवों में ही नजर आते हैं।

पिछले साल रूम टू रीड ने एक कार्यशाला दिल्‍ली में आयोजित की थी। मैं उसमें स्रोत व्‍यक्ति था। उसमें एक शिक्षक कुरूद के भी थे तोमनसिंह । उनको फोन किया तो वे सब काम छोड़कर मिलने चले आए। बातों बातों में ही लैपटॉप पर उनका ईमेल एकांउट बनाया और फिर टीचर्स पोर्टल के लिए उनका रजिस्‍ट्रेशन भी किया।

1 अगस्‍त, 2009

शाम को रायपुर वापस लौटा। फिर कुंवर से मुलाकात हुई। उसे मालूम था कि मैं आने वाला हूं। उसने मेरे लिए भी खाना बनाया था। देर रात तक उसके साथ बातचीत होती रही। उसे अपना ब्‍लाग दिखाया। उस पर कमेंट कैसे करते हैं। यह सिखाया। वह मेरे ब्‍लाग का अनुसरणकर्ता बनना चाहता था,वह भी उसे बनाया।


2 अगस्‍त,2009 ** कोरबा में दो दिन

सु‍बह यशंवतपुर लिंक एक्‍सप्रेस पकड़कर कोरबा गया। कोरबा छत्‍तीसगढ़ का बिजली उत्‍पादन केन्‍द्र है। यहां बसंती दीदी (बुआ की लड़की) रहती हैं। वे यहां पिछले लगभग तीस साल से रह रही हैं। रमेश जी यानी मेरे बहनोई एनटीपीसी में एकाउंटेंट थे। रिटायर्ड होने के बाद उन्‍होंने यहीं घर बना लिया। बीच के कुछ साल वे शराब के नशे के बेहद आदी हो गए थे। किसी ने उन्‍हें सलाह दी कि भोपाल में गांधीभवन में नशामुक्ति केन्‍द्र में जाकर रहें। मैं उन्‍हें दो बार वहां लेकर गया। वे लगभग हफ्ता-हफ्ता भर वहां रहे भी। उन्‍हें उससे फायदा हुआ भी। पर वे इस हद तक इस नशे की गिरफ्त में आ चुके थे कि उससे निकलने में उन्‍हें बहुत कोशिश करनी पड़ी। अब वे ठीक हैं। पर कहते हैं उनका लीवर बिलकुल छलनी हो चुका है। मैं पहली बार कोरबा आया। दीदी का छोटा बेटा चिंटू मुझे लेने स्‍टेशन आया। स्‍टेशन से उनका घर लगभग चौदह किलोमीटर दूर है। एक्टिवा स्‍कूटर पर लेकर गया। कम से कम आठ-दस पावर हाउस पूरे कोरबा में फैले हैं,कुछ निजी कंपनियों के हैं तो कुछ सरकार के। ये सब कोयले से बिजली बनाते हैं। पास में हसदेव थर्मल पावर कारपोरेशन भी है,जहां पानी से बिजली बनाई जाती है। हवा में लगातार भारीपन और कोयले के कण महसूस होते रहते हैं। मैं दो दिन कोरबा में रहा। रक्षाबंधन पांच अगस्‍त को था। मैंने बंसती दीदी से तीन तारीख को कहा आप तो आज ही राखी बांध दो।

8 अगस्‍त 2009** यादों का नागपुर

भोपाल से लौटते हुए नागपुर आया हूं। नागपुर स्‍टेशन पर उतरते ही यादें संतरे की फांकों की तरह एक-एक करके खुलने लगी हैं। नागपुर पिछली बार मैं 1994 में आया था। नेशनल बुक ट्रस्‍ट ने राष्‍ट्रीय पुस्‍तक मेले में एक सेमीनार का आयोजन किया था। मुझे उसमें परचा पढ़ना था, ‘क्‍या बच्‍चे बच्‍चों का लिखा पढ़ते हैं। ’ कवि मित्र इलाकुमार भी तब नागपुर में थीं। उनसे भी मिला था। नागपुर मेरी ननिहाल है। जब पिछली बार आया था तो नानी थी। उसी साल वे गुजर गईं । तीन मामा और दो मामियां थीं। वे भी समय के साथ गुजर गए। उनके बेटे-बेटियां हैं। नागपुर के लोहापुल के पास तेलीपुरा-सीताबर्डी मो‍हल्‍ले में रहते हैं। दो मामा इलेक्‍ट्रोप्‍लेंटिग का काम करते थे। छोटे मामा ने घर में ही छोटा-सा कारखाना बनाया था। उनके बेटे उसे अब भी चला रहे हैं। जिस घर में वे सब रहते हैं वह अब भी वैसा ही है जैसा बीस साल पहले था। लगभग हजार वर्गफुट का प्‍लाट तीन-चार हिस्‍सों में बंटा।

नागपुर के साथ बचपन की कितनी यादें जुड़ी हैं। बडे़ मामा मोहनलाल पटेल कपड़ा मिल में काम करते थे। शादी हुई थी,पर किसी कारण से ज्‍यादा दिन नहीं चली। मैं जब भी नागपुर आता बड़े मामा मुझे सिनेमा दिखाने जरूर ले जाते। असल में तो तीनों मामा बारी-बारी से एक एक दिन सिनेमा ले जाते। उन दिनों सिनेमा ले जाना बड़ा सम्‍मान माना जाता था। मैंने नागपुर में आवारा, ललकार,ज्‍वार भाटा,नहले पे दहला जैसी फिल्‍में देखीं थीं। बड़े मामा बहुत अच्‍छे कव्‍वाली गायक थे। नागपुर आकाशवाणी पर उन्‍हें बुलाया जाता था।

मंझले मामा मदनलाल पटेल इलेक्‍ट्रो‍प्‍लेंटिग कारखाने में काम करते थे। जब वे युवा थे तो एक्‍टर बनने बंबई चले गए थे। वहां से निराश होकर लौटे तो मानसिक रूप से गहरे अवसाद मे रहने लगे। वे अक्‍सर राजनीति की बात करते और नेहरू और इंदिरा गांधी की आलोचना करने लगते। जब बोलना शुरू करते तो उन्‍हें रोकना मुश्किल हो जाता। वे हमेशा धोती और कुरता ही पहनते थे। हल्‍की दाढ़ी रखते। किसी युवा समाजवादी नेता की तरह नजर आते।

छोटे मामा का नाम रामनारायण पटेल था। जिन्‍हें हम सब लल्‍लू मामा के नाम से जानते थे। वे शराब के बिना एक दिन नहीं रह सकते थे। पर पीकर भी वे होश में रहते थे। सबसे ज्‍यादा फिल्‍में मैंने उनके साथ ही देखीं। वे घर में ही इलेक्‍ट्रोप्‍लेंटिंग का कारखाना चलाते थे। स्‍टील के बरतन और मोटरसाइकिल के विभिन्‍न पार्टस को निकिल पालिश होते देखना एक अलग अनुभव था।

इन सबके बीच सबसे छोटी मौसी शारदा भी रहती थीं। बचपन में उन्‍हें चेचक निकली थी। इससे उनका पूरा चेहरा चेचक के दागों से भर गया था। वे स्‍कूल गईं थीं और अच्‍छा खासा पढ़ लिख लेती हैं। जब उनकी शादी होनी थी तो उन्‍हें देखने जो लड़का आया उसने हाथ में घड़ी बांधी थी और शर्ट की जेब में पेन रखा था और एक छोटी डायरी। इससे मौसी ने अंदाज लगाया कि वह पढ़ा-लिखा है। शादी हो गई। बाद में पता चला कि लड़का यानी मौसा जी तो कुछ भी नहीं जानते । मौसी ने तय किया कि वे उन्‍हें पढ़ाएंगी। शाम को जब मौसा कपड़ा मिल से लौटते तो उनकी क्‍लास लगती। एक दिन गुस्‍से में मौसी ने मौसा को एक चांटा भी जड़ दिया। पर न तो मौसा ने पढ़ना छोड़ा, न मौसी ने पढ़ाना। आखिरकार मौसा ने अपना नाम लिखना,चिट्ठी पढ़ना और लिखना सीखकर ही दम लिया। दोनों अब भी हैं। मौसी मानसिक रूप से कुछ अस्‍वस्‍‍थ हो गईं थीं। बहुत इलाज चला। बीच में हालत यहां तक बिगड़ी कि उनके हाथ पांव बांधकर रखने पड़ते थे। अब ठीक हैं। पर बीच-बीच में भूल जाती हैं। पहचानने में देर लगती है।

वे अब नागपुर में ही अयोध्‍यानगर में रहते हैं। वहीं मदन मामा की बड़ी बेटी मुक्‍ता का परिवार। इन सबसे लगभग बीस साल बाद मुलाकात हुई। मदन मामा की दूसरी बेटी विद्या तेलीपुरा में ही रहती है। उसकी शादी हुई थी, पर कुछ साल बाद ही पति की मृत्‍यु हो गई। एक बेटी है। विद्या ने हार नहीं मानी। दूसरी शादी नहीं की। अखबार की एंजेसी ले ली और उससे अपनी जीविका चलाई। अब भी चला रहीं हैं। बेटी पढ़ रही है।

शारदा मौसी की तीन बेटियों में से सबसे छोटी बेटी संतोषी के साथ भी ऐसी ही त्रासदी हुई। वह भी अपनी छह साल की प्‍यारी-सी बेटी सृष्टि को लेकर मां-बाप के पास ही रह रही है। घर में छोटी-सी किराने की दुकान है। उस पर बैठती है। हाल ही में एक निजी विद्यालय में नर्सरी कक्षा को पढ़ाना शुरू किया है। दिन भर सबसे मिलकर रात को शिवनाथ एक्‍सप्रेस से रायपुर गया और वहां से अगले दिन हैदराबाद होते हुए वापस बंगलौर।

रायपुर में एक और चरित्र जो याद रह गया है वह है उत्‍तम आटो वाले का। उत्‍तम अक्‍सर छत्‍तीसगढ़ एजूकेशन रिसोर्स सेंटर में आने जाने वालों को यहां से वहां लाते ले जाते हैं। मुझे भी उनके आटो में बैठने का अवसर मिला। वैसे वे वादे के पक्‍के हैं,समय पर आ जाते हैं। पर अगर देर हो जाए तो भी नाराज नहीं हो पाएंगे। जैसे ही आटो में बैठेंगे सामने आपको लिखा नजर आएगा- मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. राजेश भाई अभी अभी आपका ब्लॉग पढ़ रहा था और जैसे ही नागपुर से शिवनाथ एक्सप्रेस से आपकी रयपुर वापसी तक के ज़िक्र तक पहुंचा बिजली चली गई . मै भी नागपुर में रहा हूँ और आपके साथ आपके मामा लोगों के चेहरों को याद कर रहा था .कितना जीवंत वर्णन है वहाँ की मध्यवर्गीय जीवन शैली का . लेकिन शिकायत यही है कि आप यहाँ तक आये और दुर्ग नहीं आये .काश आप कुरूद की बस का पता नहीं पूछते तो दुरूग तक पहुंच ही जाते .मुझे यहाँ ढूंढना आसान है , खैर अब क्या कह सकते है बहुत दिन हुए एकलव्य के उन दिनो के बाद आपसे मुलाकात ही नहे हुई . होशंगाबाद मे भी योगेश वगैरह से बहुत दिन हुए भेट् नही हुई है .खैर अगली बार भूलियेगा नहीं .-आपका शरद

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  2. शरद भाई अगली बार रायपुर की तरफ आया तो जरूर ही दुरूग पहुंचूंगा। इस यात्रा की और बहुत बातें लिखना चाहता था,पर फिर रह गईं। कभी अगली बार। आपके ब्‍लाग पर मां वाली कविता बहुत ही गहरे तक छू जाती है।

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  3. utsahi ji, raipur ke bus stand par jab durg bola jata hai to vah"kurud" hi sunai deta hai. Aur yah ek aisi paheli hai jiska samna har naye vyakti ko karna padta hai. pahli bar jab main Raipur se kurud jane wali bas talash rahi thi to maine do- teen "Kurud Kurud"' chillane wale bus conductors se poocha--arey bus to Durg jayegi, rajnandgaon, unhone meri hansi udate hue kaha. kurud nahi. Aur maje ki baat to ye hai ki Kurud jane wali badi basen bhi direct Dhamtari jane wali sawari ko bithana hi pasand karti hain, taki unhein zyada kiraya mil sake.

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