इस दिवाली पर घर जाने का कार्यक्रम जैसे-तैसे बना। बंगलौर से भोपाल जाने के लिए ट्रेन में रिजर्वेशन ही नहीं मिल रहा था। इस बीच कुछ मित्रों ने सलाह दी कि व्हाया चैन्ने जाओ। मैंने भोपाल में कबीर से कहा कि एंजेट से पता करो कि टिकट मिल रहा है क्या।
अतंत: चैन्ने से जीटी एक्सप्रेस में भोपाल आने-जाने का रिजर्वेशन मिल गया। बंगलौर से चैन्ने और चैन्ने से बंगलौर का वापसी टिकट भी करवा लिया।
बंगलौर में जहां रहता हूं वहां से रेल्वे स्टेशन लगभग 20 किलोमीटर है। इसलिए पंद्रह अक्टूबर की सुबह सवा आठ बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए घर से पांच की बस से निकलना पड़ा। चैन्ने एक्सप्रेस में सवार हुआ। लगभग तीन सौ पचास किलोमीटर की यात्रा सात घंटे में तय की। ट्रेन में केवल बैठने का आरक्षण था ,लेटने का नहीं। पूरे रास्ते जैसा कि होता है, ट्रेन में तरह-तरह की चीजें बेचने वाले लोग आते रहे। पर नोटिस करने वाली बात यह थी कुछ लोग खिलौने और रोजमर्रा उपयोग की प्लास्टिक आदि की चीजें बेचने आ रहे थे। पर ये सभी के सभी नेत्रहीन थे। जरूर किसी नेत्रहीन संघ के सदस्य होंगे। जिन्होंने उन्हें इस तरह कमाकर खाने की राह दिखाई होगी।
बंगलौर से चैन्ने तक की रेल लाइन पर विद्युतीकरण हो चुका है। चैन्ने का रेल्वे स्टेशन किसी हवाई अड्डे की तरह लगता है। जीटी शाम को सवा सात बजे थी। मैं दोपहर को लगभग साढ़े तीन बजे पहुंच गया था। पहले सोचा बैग अमानती सामान घर में जमा करवा दूं। फिर समझ आया कि एक घंटा तो सामान जमा करने और वापस लेने में ही लगेगा। उससे अच्छा है कि साथ में ही रखा जाए। मैं सामान लेकर खाने की खोज में निकल पड़ा। खोज में इसलिए क्योंकि स्टेशन पर जो रेस्टारेंट थे,उनमें घुसने की हिम्मत नहीं हुई। स्टेशन के बाहर निकलकर थोड़ा भटकने पर एक पंजाबी ढाबा मिला। सबसे अच्छी बात यह थी कि वह सचमुच पंजाबी था। वहां मैंने दाल रोटी खाई।
फिर खरामा-खरामा कदमों से स्टेशन लौट आया। जीटी अपने निर्धारित समय से लगभग घंटे भर बाद चली। मेरा टिकट झांसी तक का था। डिब्बे में लगभग सभी उत्तर भारतीय ही थे। जाहिर है सभी दिवाली पर अपने घर जा रहे थे। पंद्रह की पूरी रात और सोलह का पूरा दिन ट्रेन में गुजारकर शाम को भोपाल पहुंचा। ट्रेन से उतरते ही मोबाइल पर एकलव्य के वरिष्ठ साथी टीसी कोटवानी जी का फोन आ गया। वे पूछ रहे थे, मैं दिवाली पर कहां रहूंगा। दिवाली सत्रह की थी।
लगभग हर दिवाली होशंगाबाद में मनती रही है। लेकिन इस दिवाली पर होशंगाबाद जाना नहीं हुआ। मैं अगले दिन होशंगाबाद गया। सबसे मिलकर शाम को वापस आ गया। फिर तेईस तक भोपाल में ही था।
एकलव्य से छह महीने का अवैतनिक अवकाश लिया था। उसकी मियाद भी अगस्त अंत में खत्म हो गई थी। अतंत: भारी मन से एकलव्य जाकर औपचारिक रूप से इस्तीफा लिखकर दे आया। 1982 में शुरू हुए सफर का अंत था यह। सत्ताइस साल में बस कुछ ही महीने कम। कुछ दिन पहले किसी ने पूछा था, ‘यानी अब आप एकलव्य में नहीं हैं।’ अनायास ही मेरे मुंह से निकला था, ‘हां, पर एकलव्य मुझ में है और हमेशा रहेगा।’
कंडक्टर से झड़प और सलोना चेहरा
चौबीस की सुबह जीटी से वापसी थी। रास्ते भर खाना,चाय और दूसरा सामान बेचने वाले वही चेहरे दिखे जो जाते समय दिखे थे। नागपुर से थोड़ा आगे निकलकर लकड़ी का सामान बेचने वाली महिलाएं लगभग हर दस-पंद्रह मिनट में डिब्बे में मौजूद होती थीं। आते समय मेरी साइड अपर बर्थ थी। लेकिन इस बार मेरे कूपे में मुझे छोड़कर बाकी सवारियां मथुरा से आ रही थीं। असल में पूरी ट्रेन के हर डिब्बे में हरे कृष्णा संप्रदाय के लोग थे। ये लोग भी उनके साथ ही थे। उनका खाने का अपना इंतजाम था। मेरी मिडिल बर्थ थी, पर उनके आग्रह पर मैं ऊपर वाली बर्थ पर चला गया था। यह टिकट भी भोपाल की बजाय विदिशा से थी। होशंगाबाद के निकलते ही मैं ऊपर की बर्थ पर चढ़कर सो गया। उठा तो वहीं ऊपर ही बैठा रहा। दो कूपे छोड़कर तीसरे कूपे की साइड वाली सीट पर एक सांवली महिला थी। वह अपने मोबाइल पर गाने सुन रही थी। साथ-साथ गा भी रही थी। उसके चेहरे पर कुछ ऐसा सलोनापन था कि बार-बार नजर उससे टकरा ही जाती। मैं उसके हिलते हुए होंटों को देखकर यह बूझने की कोशिश करने में लगा रहा कि वह कौन से गीत गा रही होगी। मेरे हाथ में धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ था। उपन्यास पढ़ते हुए और गानों की पहेली हल करते हुए दिन बीत गया।
शाम घिर आई। अचानक एक लड़के ने आकर मुझसे कहा कि उठिए यह सीट मेरी है। मुझे कुछ समझ नहीं आया। हम दोनों बहस करने लगे। मैंने अपना टिकट उसे दिखाया, उसने अपना। असल में उसका टिकट आरएसी में था। चूंकि मैं विदिशा के बजाय भोपाल से सवार हुआ था। और वह भी अपनी वास्तविक बर्थ पर न होकर अन्य किसी बर्थ पर था, सो भोपाल के कंडक्टर ने मुझे नहीं आया मानकर मेरी बर्थ खाली मार्क कर दी थी। नतीजा यह हुआ कि यहां जो कंडक्टर आया उसने बर्थ आरएसी के एवज में उसे दे दी। अब मेरी बहस लड़़के के बजाय कंडक्टर से हो रही थी। मुझे ऐसा लगा कि कंडक्टर नशे में था। उसकी जबान लड़खड़ा रही थी और मुंह से गंध आ रही थी। अंतत: मामला निपटा और मैं अपनी बर्थ पर ही था। उस लड़के को कंडक्टर को दूसरी बर्थ देनी पड़ी। पर इस घटना से मैंने सबक लिया कि ट्रेन में आपको जैसे ही कंडक्टर दिखाई दे, अपनी टिकट उसे जरूर दिखा दें।
खैर चौबीस का पूरा दिन और रात का ट्रेन में गुजारकर एक बार फिर चैन्ने स्टेशन पर था। सुबह के अभी छह ही बजे थे। बंगलौर के लिए ट्रेन दिन में दो बजे थी। यह समय कैसे काटा जाए यह जानने के लिए मैंने साथ के सह यात्रियों से चर्चा की थी। उन्होंने ही सुझाव दिया था कि मरीना बीच पास में ही है,वहां चले जाएं। सामान अमानती घर में जमा करके चैन्ने के मरीना बीच के लिए निकल पड़ा।
मरीना बीच पर मधुबी जोशी की बातें
केवल सात रूपए खर्च करके मरीना बीच के किनारे था। सड़क से लगभग एक किलोमीटर रेत में चलने के बाद समुद्र यानी बंगाल की खाड़ी के किनारे था। अपने जीवन में दूसरी बार समु्द्र के किनारे। पहली बार जब बारह-तेरह बरस की उम्र में जगन्नाथपुरी में समुद्र देखा था। साथ में लेपटाप का बैग था, इसलिए समुद्र की लहरों में अंदर तक जाने का संयोग नहीं हुआ। हालांकि मन बहुत था। पर बीच के किनारे-किनारे राजकपूर की स्टायल में पैंट को घुटनों तक चढ़ाकर लगभग तीन घंटे तक टहलता रहा। अटखेलियां करती समुद्र की लहरों के बीच कई जवानियां अटखेलियां कर रही थीं। शोर करती लहरों के बीच मैंने अपने कुछ दोस्तों से मोबाइल पर बात करके ही मन बहलाया।
मरीना बीच की इस ऐतिहासिक यात्रा के दौरान एक जिंदादिल दोस्त मधुबी जोशी से लगभग पच्चीस-तीस मिनट तक बातचीत होती रही।मधुजी की बातें भी समु्द्र की अनंत गहराईयों की तरह होती हैं। जब वे बतियाना शुरू करतीं हैं तो बस उनकी बातों पर सवार होकर हम दूर-दूर तक निकल जाते हैं। और अगर यह अहसास नहीं हो कि बातें फोन पर हो रही हैं तो शायद बात करते-करते सदियां बीत जाएं, पर बातों की अनंत राशि कभी खत्म न हो। उनके पास सुनाने के लिए हर बार इतना कुछ होता है कि कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि वे सचमुच बोल रही हैं या अपनी किसी डायरी के पन्ने पढ़ रही हैं। उनसे पहली मुलाकात लखनऊ की एक कार्यशाला में हुई थी। वहां यह नाचीज मधुजी को बच्चों के लिए कहानी लिखना सिखाने की जुर्रत कर रहा था। पता चला कि वे तो खुद एक उपन्यास हैं। बहरहाल उसके बाद से उनसे दोस्ती का कुछ ऐसा रिश्ता बना कि अब तक निभ रहा है। पिछले नवम्बर में वे दिल्ली में रूमटूरीड की एक कार्यशाला में टकरा गईं थीं।
हमारे टकराने का यह आयोजन एक और जिंदादिल दोस्त रंजना ने किया था। रंजना रूमटूरीड में लोकल लैंग्वेज प्रोग्राम आफीसर हैं। मैं वहां रूमटूरीड द्वारा चुने हुए उभरते लेखकों से कहानियां लिखवाने की कोशिश कर रहा था।(ऊपर के फोटो में मेरे साथ मधु बी जोशी हैं। नीचे बाएं फोटो में रंजना। दोनों फोटो रूमटूरीड कार्यशाला के हैं।)
हमारे टकराने का यह आयोजन एक और जिंदादिल दोस्त रंजना ने किया था। रंजना रूमटूरीड में लोकल लैंग्वेज प्रोग्राम आफीसर हैं। मैं वहां रूमटूरीड द्वारा चुने हुए उभरते लेखकों से कहानियां लिखवाने की कोशिश कर रहा था।(ऊपर के फोटो में मेरे साथ मधु बी जोशी हैं। नीचे बाएं फोटो में रंजना। दोनों फोटो रूमटूरीड कार्यशाला के हैं।)
खैर इस तरह मरीना बीच मेरी यादों में हमेशा के लिए बस गया। कहते हैं पहले बहुत सुंदर था। लेकिन कुछ साल पहले आए सुनामी ने इसे उजाड़ डाला। दिन होने के कारण दो-ढाई सौ से ज्यादा लोग नहीं थे। पर लगता था कि शाम को अच्छी खासी भीड़ और रौनक होती होगी। यादगार के तौर पर अपने कुछ और दोस्तों के लिए बीच की दुकान से चाबी के गुच्छे खरीदे। फिर स्टेशन लौट आया।
यादगार सफर
बंगलौर जाने वाली ट्रेन में सवार हुआ तो देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि मेरे आगे वाली सीट पर वही सलोनी महिला थी जो जीटी में गाना गाकर अपना दिल बहला रही थी। जीटी में तो उससे कोई परिचय नहीं हुआ था। पर यहां हम एक दूसरे को देखकर स्वाभाविक रूप से मुस्करा दिए। और फिर परिचय भी हुआ। देवी जी वैष्णों देवी की यात्रा करके लौट रहीं थी। बंगलौर में रहती हैं। कुछ और दोस्त भी साथ थे, वे चैन्ने में उतर गए। चैन्ने से बंगलौर की इस यात्रा में जो अंत में याद रखने वाली बात है वह यह कि ट्रेन में राजस्थान के कॉलेजों के एनसीसी के एयरविंग के 40 छात्र-छात्राओं का एक दल भी कैम्प के लिए बंगलौर जा रहा था। संयोग से मेरे बगल की सीट पर एक लड़की थी जो अपने दल की मुखिया थी। उससे भी परिचय हुआ और उसने भी परिचय लिया। उसके साथ उसके तीन जूनियर, जो दोस्त भी थे। उनकी बातों में अल्हड़पन था और इस उम्र का खिलंदड़पन भी। मुझे उनकी बातें सुनकर अच्छा भी लग रहा था और ईर्ष्या भी हो रही थी। क्योंकि हमने यह उम्र एक तरह के संकोच और बंदिशों के बीच गुजारी थी। अंतत: एक यादगार सफर अपने अंजाम पर पहुंचा। यह बंगलौर आने के बाद यह पहली यात्रा थी, जो पूरी तरह निजी थी।
वृतांत पढ़ा । बंगलुरु में क्या कर रहे हैं? जानने की उत्सुकता है ।
जवाब देंहटाएंआपका नाम ब्लाग का यायावरी है पोस्ट कम है यायावरी पर
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