मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009

सफर: घर से दफ्तर, दफ्तर से घर


रात को मैं चाहे जितने बजे सोऊं,सुबह पांच और छह बजे के बीच नींद खुल ही जाती है।  सामने दीवार पर लगी घड़ी में छह बजते-‍बजते मैं बिस्‍तर छोड़ ही देता हूं।
  
मेरा दफ्तर सुबह साढे़ आठ बजे शुरू होता है। दफ्तर अक्‍सर पैदल ही जाता हूं। घर से दफ्तर तक का सफर मुझे किसी कविता को पढ़ने जैसा लगता है। जैसे अच्‍छी कविता को हम जितनी बार पढ़ते हैं उतनी बार उसके अलग अर्थ समझ आते हैं। मेरा घर पहली मंजिल पर है। घर से निकलते ही 5 कदम चलता हूं तो सीढि़यां आ जाती हैं। 15 सीढि़यों एक बड़े से आहते में ले जाती हैं। आहते के दरवाजे पर लोहे का बड़ा-सा गेट लगा हुआ है। गेट पर दो कद्दावर कुत्‍ते होते हैं। वे हर आने-जाने वाले को देखकर भौंकते हैं। पता नहीं वे डरा रहे होते हैं या फिर सूचित कर रहे होते हैं कि कोई आ रहा है या जा रहा है। पर उनकी आक्रामकता देखकर ऐसा लगता है कि अगर वे छूट जाएं तो  बोटी-बोटी नोच खाएं ।

कजरारी आंखों वाला कुत्‍ता
आहते से निकलकर पक्‍की सड़क पर पूर्व की ओर चल पड़ता हूं। बाईं तरफ बड़ा सा जंगली मैदान है। मैदान के तीन ओर यूकिलिप्‍टस का जंगल है। दाईं तरफ बस्‍ती है। और  सामने बहुत सारे नारियल के पेड़। सामने राममंदिर है लगभग सौ साल पुराना । दक्षिण भारत के मंदिर बाहर से बहुत सुंदर होते हैं। उन पर इतनी कारीगरी और नक्‍काशी होती है कि बरबस ही ध्‍यान उनकी तरफ खिंच जाता है। मेरी तरफ मंदिर की पीठ होती है। मैं मंदिर से पहले ही उत्‍तर की तरफ एक कच्‍चे रास्‍ते पर मुड़ जाता हूं। लगभग सौ मीटर चलने के बाद पक्‍की सड़क पर पहुंचता हूं। और फिर पश्चिम की ओर चलना शुरू कर देता हूं। सौ मीटर चलने के बाद उत्‍तर की तरफ मुड़ जाता हूं। यह कजरारी आंखों वाले कुत्‍ते का इलाका है। उसकी आंखों के चारों तरफ काले गोले बने हैं। दूर से ऐसा लगता है जैसे उसने आंखों में काजल लगाया हो। मेरी तो उससे पहचान हो गई है। पर नए लोगों को देखकर वह भौंकता है। यह पूरा इलाका हलनायकनहल्‍ली के नाम से जाना जाता है।

लगभग पचास मीटर चलने के बाद दो विशाल घर नजर आते हैं। असल में वे फार्म हाउस ज्‍यादा लगते हैं। उनके बीच सड़क लगभग सौ मीटर पसरकर चलकर मुख्‍य सड़क पर पहुंचती है। लगभग सौ मीटर चलने के बाद यह फिर से उत्‍तर की तरफ मुड़ जाती है। यहां से विप्रो आफिस की दो विशाल बहुमंजिला इमारतें नजर आने लगती हैं। आगे- पीछे सब तरफ काम पर जाने वालों का रेला। ज्‍यादातर महिलाएं। किसी को ऑफिस पहुंचना है तो किसी को किसी बनती हुई बिल्‍डिंग में मजदूरी के लिए। लेकिन सबके बालों में फूल या वेणी जरूर लगी होती है। जल्‍दी हो तो सामने चल रहे लोगों को ओवरटेक करके आगे बढ़ना पड़ता है। इस सड़क के बाईं ओर अभी बस्‍ती नहीं है। बल्कि बस्‍ती बसाने वालों के अधपक्‍के घर हैं। इनके रहन-सहन और बातचीत से लगता है  ज्‍यादातर लोग बिहार या उप्र से आए हैं। एक तरह से प्रवासी मजदूर।

नार सलोनी
जब सड़क लगभग तीन सौ मीटर चल लेती है तो एक और मंदिर आता है अयप्‍पा मंदिर। यहां से दुकानों का सिलसिला शुरू हो जाता है। मंदिर से लगी एक छोटी सी किराने की दुकान है। एक सलोनी महिला दुकान में नजर आती है। वही मालकिन है दुकान की। बिल्‍कुल एक सजग दुकानदार की तरह तैयार। उसके बालों में भी ताजे फूलों की वेणी सजी होती है। इसका मतलब है वह मुंह अंधेरे जाग गई होगी। रोजमर्रा के सुबह के काम निपटाकर स्‍नान कर तैयार होकर दुकान पर आई होगी। उसे देखकर मैं नई उर्जा से भर उठता हूं। मेरे कदम और तेज हो जाते हैं।

सड़क थोड़ी सी तिरछी होकर फिर सीधी हो जाती है। और जहां मैं पहुंचता हूं वह जनसन्‍द्रा कहलाता है। सड़क के दाईं तरफ एक छोटी-सी मडि़या है पता नहीं किस देवता या देवी की। उसके आसपास खाली जगह पड़ी है। यहां इतवार को हाट लगता है। पर  हाट में मुश्किल से बीस दुकानें होती हैं। अधिकतर सब्‍जी की दुकानें। मोड़ पर एक हेयर सैलून है। हजामत यहीं बनवाता हूं। सैलून के बाजू में एक बड़ी इमारत है जिसमें नीचे  नीचे किराने और बेकरी की दुकान हैं। बेकरी की दुकान में चाय मिलती है। यहां चाय तैयार कर बड़े से थर्मस में भर ली जाती है। वही ग्राहकों को मांगने पर दी जाती है। इस बेकरी के बाजू में एक छोटी सी लांड्री है। दुकान के बाहर चबूतरे पर लगी एक टेबिल पर बडी-बड़ी काली आंखों वाली एक सांवली महिला कपड़ों को कोयले वाली प्रेस कर रही होती है। उसको प्रेस करता देखना मुझे बहुत भाता है। उसकी दुकान के सामने से गुजरने में मुझे कम से कम एक मिनट तो लगता ही है। जब मैं वहां से गुजरता हूं तो इस एक मिनट में भी ऐसे क्षण आते हैं जब हमारी नजरें आपस में टकराती हैं। लेकिन अगले ही क्षण वह अपने काम में मशगूल हो जाती है और मैं अपने गंतव्‍य की ओर जाने में। पर न जाने क्‍यों मुझे इस क्षण का इंतजार रहता है।

सुरेश अंबानी
यहां सड़क जैसे लुढ़कने लगती है। दाईं तरफ किराने की दुकान है भाग्‍यलक्ष्‍मी जहां से घर के लिए पीने का पानी लेते हैं। मारवाडि़यों की दुकान । तीन-चार भाई मिलकर दुकान चलाते हैं। उनमें से कोई दिख जाता है तो हाथ उठाकर नमस्‍कार-चमत्‍कार कर लेता हूं। यहीं इलाके का एक मात्र मेडीकल स्‍टोर है। इसकी खासयित यह है कि अगर कोई दवा नहीं हो तो वो शाम तक बुलवाकर दे देता है। 

यहां से लगभग सौ मीटर के बाद दांईं और बाई तरफ लगभग पांच-पांच दुकानें कतार में बनी हैं। इनमें जूते, कपड़े, जेवर, गिफ्ट आयटम, हेयर सैलून, हार्डवेयर, प्‍लास्टिक और बर्तन और टेलर की दुकानें हैं। इनमें से सबसे प्रिय दुकान है बर्तन वाली दुकान। इसे सुरेश नाम का एक मारवाड़ी नवयुवक चलाता है। जिस काम्‍पलेक्‍स में मैं रहता हूं, उसमें मेरे दफ्तर के लगभग दस और लोग रहते हैं। सबने अपनी रोजमर्रा की जरूरत का सामान जिसमें गैस तथा रसोई के बर्तन प्रमुख हैं,इसी दुकान से खरीदे हैं। सुरेश बताता है कि वह जब चौदह साल का था तो राजस्‍थान से जिद करके किसी परिचित के साथ बंगलौर आ गया था। लगभग छह साल उसने अलग-अलग दुकानों में सेठों के यहां काम किया। उसे पांच हजार रूपए महीना,खाना और रहने की जगह मिलती थी। सुरेश पांच हजार में से एक भी पैसा खर्च नहीं करता था। वह उसे बैंक में जमा रखता था। इन छह सालों में वह राजस्‍थान अपने घर भी नहीं गया। उसने जो जमा किया उस पूंजी से उसने यह दुकान डाली। पहले उसने बकायदा सर्वे किया। आसपास के दस किलोमीटर के इलाके में घूमकर आया। देखा कि किस तरह की दुकान इस इलाके में चल सकती है। कुछ पैसा उसने दुकान की पगड़ी के लिए दिया। लगभग एक लाख रूपया लगाकर उसमें अंदर अलमारी और शो केस बनवाए। दो लाख का सामान दुकान में भरा। जब दुकान चलने लगी तो राजस्‍थान गया और शादी करके वापस आया। जब उसने मुझे अपनी कहानी सुनाई तब तक वह राजस्‍थान नहीं गया था। तमिल,तेलुगू,कन्‍नड़,मलयालम,हिन्‍दी और अंग्रेजी बोलता है। औपचारिक स्‍कूल उसने दसवीं के बाद ही छोड़ दिया था। ग्राहकों से इतने प्‍यार से बात करता है कि ग्राहक दुकान से खरीदकर ही बाहर निकलता है। मैं उसकी व्‍यवहारिकता और व्‍यापारिक बुद्धिमता से बहुत प्रभावित हूं। मैंने उसका नाम सुरेश अंबानी रख दिया है।

यहां से मोरी गेट कोई तीन सौ मीटर दूर रह जाता है। यहां बाईं और रेनबो रेसीडेंसी है। पाश कालोनी। जिसके दरवाजे पर बाकायदा जांच पड़ताल होती है। दार्इं तरफ एक विशाल अपार्टमेंट बन रहा है।


आते जाते रास्‍तों पर
मोरी गेट बस स्‍टाप है विप्रो ऑफिस के लगभग सामने। यह है सरजापुर रोड। जो हमारे पते में मिलती है। यहां से दाईं तरफ सरजापुर का रास्‍ता है और बाईं तरफ बंगलौर शहर। बार्इं तरफ मुड़ते ही लगभग पचास मीटर चलने पर विप्रो आफिस का बड़ा सा गेट। यहां पहुंचते ही अपना आई कार्ड निकालकर उसे गले में लटका लेना पड़ता है,वरना वहां खड़े गार्ड रोक लेते हैं। लगभग तीन सौ मीटर चलने पर एक और बड़ा गेट आता है। यहां बेग की तलाशी ली जाती है। कार रोकी जाती है, उसके अंदर का मुआयना किया जाता है। यहां से फिर लगभग दो सौ मीटर चलने के बाद हम खुली जगह में पहुंच जाते हैं। यहां दाईं और विप्रो का स्‍पेशल इकोनोमिक जोन कार्यालय है। बाईं ओर विप्रो का कारपोरेट कार्यालय। इन दोनों के बीच से जाती हुई सड़क पर चलते हुए जब लगभग तीन सौ मीटर की दूर तय करते हैं तो अजीम प्रेमजी फाउंडेशन का कार्यालय का कैम्‍पस आ जाता है। विप्रो की बहुमंजिला इमारत के उलट यह बिलकुल अलग तरह की एक मंजिला इमारत है। सौ मीटर चलने पर कार्यालय की इमारत आ जाती है।

मुख्‍य सड़क से लेकर यहां तक जो गार्ड तैनात होते हैं उनसे पहचान हो गई है। उनसे हर रोज नमस्‍कार आदि के अलावा नाश्‍ता किया या नहीं या आप कैसे हैं आदि वाक्‍यों का आदान प्रदान भी होता है। कई बार जब हम भूल जाते हैं या देख नहीं पाते हैं तब वे खुद ही आवाज देकर अभिवादन करते हैं। इनमें महिलाएं भी हैं। इनमें से एक है विजय लक्ष्‍मी- दुबली पतली सांवली। उसकी सौम्‍य मुस्‍कान और अभिवादन घर से यहां तक की सारी थकान उतार देता है। जिस दिन वह नहीं होती है तो कुछ खालीपन सा लगता है। कई बार वह अंदर वाले गेट पर होती है। तब दूर से ही हाथ उठाकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।

गौधूलि बेला
दिन भर की व्‍यस्‍तता के बाद जब शाम को घर लौटता हूं तो रास्‍ता वही होता है पर चेहरे बदल जाते हैं। गार्ड अभिवादन जरूर करते हैं,पर बैग की तलाशी जैसी कोई बात नहीं होती है। मोरी गेट पार करके हलनायकलहल्‍ली की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ जाता हूं। यहां मोड़ पर ही एक सब्‍जी वाली से भेंट होती है। जो हाथ ठेले पर सब्‍जी बेच रही होती है। उसे देखकर अजीब सा सुकून मिलता है। कई बार हम उससे ही सब्‍जी खरीदते हैं। कई बार जब वह लेट हो जाती है तो रास्‍ते में मिलती है।

शाम और सुबह का एक अंतर और होता है। जब हम सुबह जाते हैं तो चलने की गति तेज होती है,लेकिन शाम को लौटते वक्‍त आराम से खरामा खरामा लौटते हैं। सुबह के समय सुरेश की दुकान नहीं खुली होती है। लेकिन शाम को वह दुकान में होता है। अगर नजर आ जाए तो दो’तीन मिनट उससे बात होती ही है। सड़क पर अंधेरा घिर आता है। अयप्‍पा मंदिर तक ही चहल पहल दिखाई देती है, उसके बाद इक्‍का-दुक्‍का लोग ही दिखाई देते हैं।
कभी बाजू से कोई मोटर साइकिल वाला या आटो या कार हार्न बजाती हुई तेज गति से निकल जाती है। बहरहाल जब वापस घर की बिल्डिंग में वापस पहुंचते हैं तो ऐसा लगता है जैसे कोई पहाड़ चढ़कर आ रहे हैं।


   


1 टिप्पणी:

  1. पहली बार ऐसा अनोखा, मजेदार यात्रा विवरण पढ़ा मजा आया. इससे मुझे भी एक यात्रा विवरण लिखने का आइडिया आया. धन्यवाद.

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