हमारे दो बेटे हैं। पत्नी निर्मला अक्सर कहतीं रहीं कि काश एक बिटिया भी घर में होती। मैं जब भी कारण पूछता तो वे कहतीं हैं, ‘अरे कम से कम एक कप चाय तो बनाकर पिलाती। ये बेटे तो बस दिन भर चाय बनवाते ही रहते हैं। लड़की होती तो घर के काम में मेरा हाथ बंटाती।‘ मैं जानता हूं कि बात इससे कहीं गहरी है। शायद एक महिला अपनी बहुत-सी बातें बेटी के साथ जितनी बांट सकती है उतनी बेटों या पति के साथ नहीं। बहरहाल मैंने इसे नियति का फैसला ही माना कि हमारे अपने घर में बिटिया नहीं है।
बंगलौर में मुझे छह माह हो गए हैं। कह सकता हूं कि बंगलौर ने मुझे जीवन का नया मायना दिया है,नई चुनौतियां दी हैं। जिंदगी को नए नजरिए से देखने का सलीका दिया है। देख रहा हूं कि भोपाल में बेटे सचमुच बड़े हो गए हैं। कबीर घर की वे सब जिम्मेदारियां उठा रहा है,जिनके बारे में वो जानता भी नहीं था। उत्सव जिसे नर्सरी से ग्यारहवीं तक मैं खुद स्कूटर पर स्कूल छोड़ने और लेने जाता था, अब वह खुद स्कूटर चला रहा है। स्कूल जाता है, कोचिंग जाता है। कबीर और उत्सव के बीच एक अलग तरह का रिश्ता भी साथ-साथ पनप रहा है। वे थोड़ा झगड़कर, पर बहुत प्यार से रह रहे हैं। निर्मला पर अचानक ही ऐसी जिम्मेदारियां आ गईं जिसके लिए वे शायद तैयार ही नहीं थीं। पर मैं समझता हूं वे एक मां के साथ-साथ पिता का दायित्व भी बखूबी निभा रही हैं। इस सबका ही नतीजा है कि मैं अपने नए काम में रम पा रहा हूं और जीवन को सचमुच जी पा रहा हूं।
बंगलौर ने मुझे नया आसमान दिया है। एक ऐसी कोरी स्लेट दी है जिस पर मैं नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहा हूं। वह समय दिया है जो मेरा होकर भी मेरे पास नहीं था। दोस्त दिए हैं। अकेले रहने के वो खट्टे-मीठे अनुभव दिए हैं,जिनके बारे में मैं बस सुनता ही रहा था।
स्कूल सर्टीफिकेट में मेरा जन्मदिन 30 अगस्त है। अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में यह परम्परा है कि उसमें कार्यरत लोगों के जन्मदिन की सूचना ईमेल पर फाउंडेशन के सभी लोगों को जाती है। जिसका जन्मदिन होता है उसे बाकायदा गुलदस्ता देकर शुभकामनाएं दी जाती हैं। महीने के आखिरी दिन उस महीने में जन्में सारे लोगों के नाम पर केक काटा जाता है। 30 अगस्त,2009 को रविवार था इसलिए मेरे जन्मदिन की सूचना 31 अगस्त को प्रसारित की गई। संयोग से यह माह का आख्रिरी दिन था।
हालांकि मैंने लगभग हफ्ता भर पहले प्रशासनिक विभाग से अनुरोध किया था कि यह मेरी वास्तविक जन्म तिथि नहीं है, अत: इसे प्रसारित न करें। बाद में मुझे बताया गया कि यह तय किया गया है कि प्रशासनिक विभाग के रिकार्ड में जो दर्ज है,उस तिथि को ही वास्तविक माना जाएगा।
संयोग जब होते हैं तो एक के बाद एक होते चले जाते हैं। यह फाउंडेशन में मेरे प्रोबेशन पीरियड का आखिरी दिन भी था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस बात का जश्न मनाऊं। प्रोबेशन के समाप्त होने का जश्न या नई पारी शुरू होने की खुशी। औपचारिक रूप से एकलव्य में भी यह मेरा आख्रिरी दिन था। मैं छह माह के अवैतनिक अवकाश पर था और आज उसका भी आखिरी दिन था। किक्रेट की भाषा में बात करूं तो 27 साल की मैराथन नाट आउट पर रिटायर हर्ट पारी का अंतिम दिन। जिस तारीख को जन्मदिन के रूप में कभी नहीं देखा, आज उस पर मुझे ढेर सारी शुभकामनाएं मिल रहीं थीं। मैंने भी उन्हें तहे दिल से स्वीकार किया। वैसे भी शुभकामनाएं कभी भी स्वीकार की जा सकती हैं।
बस दस महीने की हूँ : राधा |
पर इन सबके बीच मुझे एक ऐसा तोहफा मिला है जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। और यह भी संयोग ही है कि यह तोहफा मुझे मेरे इक्कावनवे जन्म दिन पर मिला।
बंगलौर ने मुझे एक बेटी दे दी। मैं राधा की बात कर रहा हूं। यानी सहकर्मी और दोस्त डॉ.सरस्वती की बेटी। राधा ने इस साल ग्रेजुएशन पूरा किया है और पोस्ट ग्रेजुएशन करने की तैयारी कर रही है। है कन्नड़ भाषी पर अच्छी खासी हिन्दी बोलती है। बारहवीं तक उसका एक विषय हिन्दी था। पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए कॉलेज में प्रवेश परीक्षा की अंतिम सूची जारी होने में समय था, इसलिए चार-पांच दिन के लिए मां के साथ मैसूर से बंगलौर आ गई थी। राधा अचानक ही आ गई थी। पहले से उसका कार्यक्रम तय नहीं था। मैं उससे पहले कभी नहीं मिला था। फोन पर एक-दो बार बात हुई थी। सरस्वती जी ने उसे अचानक मेरे सामने लाकर खड़ा कर दिया यह कहते हुए कि आपकी गेस्ट। एक पल को तो मैंने उसे फाउंडेशन की नई सहकर्मी समझ लिया था। पर सरस्वती जी भी नहीं जानती थीं, और न मैं कि वह गेस्ट नहीं गिफ्ट था।
सरस्वती जी और मैं एक ही बिल्डिंग में अड़ोस-पड़ोस में रहते हैं, लेकिन हमारा चूल्हा सांझा है। हम खाना साझा ही बनाते हैं और साथ ही खाते हैं। साझे परिवार की तरह। हालांकि जब सरस्वती जी होती हैं तो वे ही सारा काम कर लेतीं है। औपचारिकता वश पूछो कि क्या मदद करूं, तो जवाब मिलता है आराम से बैठिए। राधा आई तो उसने खाना बनाने में हाथ बंटाया। फिर मनुहार के साथ खिलाया भी। इन पांच दिनों में मैंने जाना कि सचमुच घर में बेटी होने का मतलब क्या होता है।
सोमवार को राधा ने उपमा बनाया। परस कर दिया। पहला कौर मुंह में डालते ही उसका सवाल था, ‘कैसा बना है बताइए।’ आदत के मुताबिक जब मैं सोचने लगा तो उसने कहा, ‘नहीं, तुरंत बताइए कैसा लगा।‘ उपमा सचमुच स्वादिष्ट बना था। इसमें सरस्वती जी का भी हाथ था।
सरस्वती जी को तो दिन भर आफिस में ही रहना था। राधा भी उनके साथ आ रही थी। उसने आफिस में अपने लिए काम ढूंढ लिया था। वह सरस्वती जी की सहकर्मी सुवर्णा को कम्प्यूटर पर मदद कर रही थी।
मंगलवार की शाम वह मेरे केबिन में आई और धीरे से उसने कहा, ‘अंकल आपके पास थोड़ा समय है।‘
मैंने कहा, ‘बोलो।‘
उसने कहा, ‘मेरे साथ विप्रो कैंटीन तक चलिए। मुझे कुछ खाना है।‘
कैंटीन में उसने पानीपूरी पसंद की। बहुत आग्रह से उसने मुझे भी खाने के लिए कहा। मुझे लगा कि पानीपूरी उसके लिए कम पड़ जाएगी तो एक प्लेट और ले ली जाए। राधा ने कहा आप सेव चाट लीजिए। बहरहाल हम दोनों ने मिलकर खाया। दोपहर में वह खाना नहीं बल्कि केवल फल ही खा रही थी। लौटते हुए मैंने उससे पूछा, ‘तुम दोपहर में खाना क्यों नहीं खाती हो।‘
उसने अपने खास अंदाज में मुझे देखा और फिर धीरे से बोली, ‘वहां मैसूर में तो रोज वही खाना होता है न।‘
साल भर की हूँ , बिस्कुट खा सकती हूँ : राधा |
शाम बंगलौर के बसवनगुड़ी इलाके के मंदिर जाने का कार्यक्रम था। देर हो जाने के कारण तय किया था कि आटो से जाएंगे। पर आटो के रेट सुनकर राधा ने मना कर दिया। उसने कहा इतना पैसा क्यों खर्च किया जाए। अगले दिन सरस्वती जी को एक प्रजेंटेशन करना था, उन्हें उसकी तैयारी भी करनी थी। घर आकर आलू,टमाटर की सब्जी और पराठे बनाए गए। फिर वही सवाल। जवाब भी वही था। खाने के बाद सरस्वती अपने प्रजेंटेशन की तैयारी में लग गईं।
राधा फायनेंसल एनालिसिस एंड मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाली है। मैंने उससे कहा कि टैक्स बचाने के लिए क्या करना चाहिए। बस राधा ने मेरी क्लास ही ले ली। उसने कहा कि पहले आप अपने महीने भर के सारे खर्चों का विवरण लिखिए। बंगलौर के भी और भोपाल के भी। इस विवरण के आधार पर उसने सलाह दी कि मुझे बचत के लिए क्या करना चाहिए। हम दोनों इस विषय पर तीन घंटे एक-दूसरे का माथा खाते रहे। कभी वह एकदम किसी प्रोफेशनल सलाहकार की भूमिका में आ जाती तो कभी बहुत प्यार से बेटी की तरह अपनी बात समझाने की कोशिश करती। अगर सरस्वती जी अगर हमें समय का ध्यान नहीं दिलातीं तो यह बातचीत तीन घंटे और चल सकती थी। तब भी रात के बारह बज चुके थे।
इन तीन घंटों में मैंने महसूस किया कि कोई और भी हमारे भविष्य के बारे में इतनी गहराई से सोच सकता है। लेकिन तभी जब वह सचमुच आपके भविष्य के बारे में चिंतित हो। तीन घंटे की माथापच्ची के बाद इतना तो मेरे माथे में बैठ ही गया था कि मुझे हर महीने कुछ नहीं तो अपने वेतन का दस प्रतिशत हर हाल में बचाना है। ईमानदारी से कहूं तो मैंने इन छह महीनों में इस बारे में कुछ नहीं सोचा था। जब यह बैठक खत्म हुई तो राधा ने अपने आप से आश्चर्य व्यक्त किया कि यह शायद पहला मौका है जब वह तीन घंटे तक केवल हिन्दी में बोलती रही। क्या उसे सचमुच इतनी हिन्दी आती है। इसमें कम से कम मुझे कोई शक नहीं है।
बुधवार की शाम एक बार फिर मंदिर जाने का कार्यक्रम बना। लेकिन बारिश के कारण फिर संभव नहीं हुआ। हम पास के एक सुपरमार्केट में गए। वहां लगभग एक डेढ़ घंटे घूमते रहे। राधा ने अपने लिए कुछ कपड़े देखे। जो उसे पसंद आए वह उसकी नाप के नहीं थे। मैंने देखा वह सुपर मार्केट के उस हिस्से में अटक गई जहां बहुत सारे टेडी बियर और वैसे ही खिलौने रखे थे। पता चला उसे बहुत पसंद हैं। यह राज भी खुला कि उसके बचपन के खिलौने उसने अब तक संभालकर रखे हैं। निकलते-निकलते उसने एक पोशाक खरीद ही ली।
मेरा आफिस सुबह साढ़े आठ बजे शुरू हो जाता है। सरस्वती जी का साढ़े दस बजे। और दिन तो वे मेरे साथ ही कार्यालय आ जाती हैं। पर राधा थी इसलिए इन दिनों बाद में दस बजे के आसपास कार्यालय आ रही थीं। गुरुवार को साढ़े दस बजे के लगभग राधा मेरे केबिन में थी और उसके हाथ में एक छोटा-सा टिफिन बाक्स था। मैंने पूछा इसमें क्या है। उसने कहा आपके लिए नाश्ता। एक पल के लिए तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मैं सचमुच अभिभूत था। इन छह महीनों में ऐसे कई मौके आए जब यहां कार्यालय के कैफेटेरिया में अन्य साथियों द्वारा लाए गए नाश्ते में साझेदारी की। पर कोई घर से खासतौर पर नाश्ता बनाकर लाए यह पहली मौका था। कोई अपना ही यह कर सकता है। वह किया राधा ने। घर में उसने अपने और मां के लिए बनाया था पर वह मुझे नहीं भूली। और बिना किसी संकोच के कार्यालय में भी लेकर चली आई। आमतौर पर रात को जो भी बनता है, उससे में से कुछ न कुछ सुबह के लिए बच ही जाता है। और वही नाश्ता होता है। लेकिन पिछली रात हम बाहर ही खाकर आए थे, इसलिए रात का कुछ नहीं था। और मैं बिना कुछ खाए ही कार्यालय आ गया था।
आज फिर इतनी देर हो गई कि कहीं नहीं जा सकते थे। राधा इस बात को लेकर थोड़ी उदास थी। पर उसने इसे बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया। राधा का बहुत मन था कि वह बनरगट्टा नेशनल पार्क देखने जाए। लेकिन इसे देखने के लिए कम से कम आधा दिन चाहिए । मैंने प्रस्ताव रखा कि शनिवार की सुबह हम पार्क चलें और वहां से दोपहर तक लौटकर वे लोग मैसूर जा सकते हैं। सरस्वती जी को मैसूर जाकर सोमवार को वापस भी आना था। उन्हें लगा कि बहुत थकान हो जाएगी। अतंत: यह तय हुआ कि वे शुक्रवार का अवकाश ले लें। लेकिन उन्हें आधे दिन का ही अवकाश मिल सका। इतने समय तो केवल बसवनगुड़ी के मंदिर ही जा सकते थे। शुक्रवार को मैंने भी आधे दिन का अवकाश ले लिया। राधा खुश थी कि आखिरकार उसे कार्यालय और गोपालरेड्डी काम्पलेक्स से बाहर जाने का मौका तो मिला।
बसवनगुड़ी में चार मशहूर मंदिर लगभग दो किलोमीटर के दायरे में बने हैं। एक छोटी-सी पहाड़ी पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है,एक ही पत्थर से बनी हुई। यह पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है। पर वहां इसके इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं लिखा हुआ है। लेकिन कहते हैं कि लगभग डेढ़ सौ साल पुरानी है। मंदिर के अंदर जाकर अर्चना की। परिक्रमा की। बाहर एक छोटी सी दुकान थी। जिसमें तरह तरह की चीजें बिक रही थीं। वहां धागा देखकर राधा को याद आया कि उसके पास गणेशजी का एक लाकेट है। उसने धागा खरीदा, लाकेट निकाला, धागा डाला और गले में बांध लिया।
दूसरा मंदिर गणेश जी का था। पर उसका समय तय था। वह साढ़े चार बजे खुलने वाला था। मंदिर के पीछे एक पार्क था। हम पार्क में चले गए। राधा ने अपने खास अंदाज में धीरे से अपनी मां से कहा कि वह मुझ से नाराज है। जब मैंने पूछा कि भला क्यों। उसने कहा कि मैंने नंदी मंदिर में भगवान को हाथ नहीं जोड़े। मैंने कहा कि जोड़े थे। उसने कहा नहीं परिक्रमा के समय पीछे छोटे मंदिर में नहीं जोड़े। सचमुच मैंने हाथ नहीं जोड़े थे। मैंने तुरंत मंदिर की तरफ मुंह करके हाथ जोड़ लिए। मैंने देखा उसके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी उभर आई।
पार्क से निकलकर हम लोग पास के बाजार में चले गए। असल में चाय या काफी पीने का मन हो रहा था। लेकिन आसपास कोई दुकान ही नजर नहीं आ रही थी। उसकी ही तलाश में दूर तक निकल गए। यह बंगलौर के गांधीनगर का बाजार था। फिर कपड़े की सेल से कुछ कपड़े खरीदे।
लौटकर मंदिर आए। गणेश जी की मूर्ति भी एक ही पत्थर की बनी है। मंदिर के पट खुलते ही वहां भक्तों की भीड़ उमड़ आई। राधा और सरस्वती जी ने बाकायदा पूजा-अर्चना की। मैं केवल उनका अनुसरण करता रहा।
इस मंदिर से कुछ पांच सौ मीटर की दूरी पर हनुमान जी का मंदिर है। हनुमान जी की मूर्ति भी एक ही पत्थर की बनी है। मंदिर की बाईं और राम-सीता का मंदिर भी बना है। मंदिर ऐसे कोण से बनाया गया है कि जैसे हनुमान जी की नजरें उन्हें ही निहार रही हों। राधा गणेश जी और हनुमान जी को बहुत मानती है। रोज रात को हनुमान चालीसा पढ़कर सोती है।
मंदिर से बाहर निकलते हुए राधा ने मुझसे पूछा कि अंकल आप तो बोर हो रहे होंगे मंदिर मंदिर घूमकर। मैंने कहा नहीं। हां, मैं केवल एक ही शक्ति को मानता हूं जो इस दुनिया को चलाती है। पर मैं इस बारे में कोई तर्क या कुतर्क नहीं करता कि आप किसे माने या न मानें। राधा ने मुझे देखा जैसे कह रही हो शुक्रिया।
आखिरी मंदिर कृष्ण जी का था। यह कृत्रिम रूप से बनाया गया आधुनिक मंदिर है। अंदर गुफा बनाई गईं हैं। उसमें कृष्ण की एक छोटी सी प्रतिमा है,जिसमें वे अपनी तर्जनी पर पर्वत उठाए हुए हैं। सरस्वती जी कृष्ण को बहुत मानती हैं।
मेरा स्वभाव कुछ ऐसा है कि कोई चाहे स्त्री हो या पुरुष मैं उसे एक संस्कारित रूप में देखना पसंद करता हूं। इन छह घंटों में मैंने राधा की हर बात में एक सलीका देखा। राह चलते हुए उसने दुकानों में सजी चीजों को हसरत से देखा। पर कहीं भी इस तरह से नहीं रूकी जिससे ऐसा लगे कि वह उन्हें खरीदने की इच्छा रखती है। एकाध जगह सरस्वती जी ने उसका मन भांपकर खुद उसे देखने के लिए उकसाया। ये कपड़े की दुकानें थीं। वह गई। देखकर वापस आ गई।
जब मैं दो साल की थी : राधा |
मैं उससे कहना चाह रहा था कि उसकी खनकती आवाज में शहद की मिठास है।
मैं उससे कहना चाह रहा था कि मैं इतनी जल्दी किसी से प्रभावित नहीं होता हूं।,पर उसमें ऐसा कुछ है कि उसने मुझे अपना हाथ उसके सिर पर रखने के लिए मजबूर कर दिया।
मैं उससे कहना चाह रहा था कि जितने प्यार से वह मुझे अंकल बुला रही है उतने ही स्नेह से मैं उसे अपनी बेटी मान रहा हूं। वह एक ऐसी बेटी है जिस पर हरेक को गर्व होगा।
मैं उससे कहना चाह रहा था कि यह उससे बहुतों ने कहा होगा कि वह बहुत सुंदर है। पर उसका मन उससे भी अधिक सुंदर है।
पर जैसे उसने मेरे सारे मनोभाव बिना कहे ही समझ लिए। मैं कुछ बोल पाऊं उसके पहले ही उसकी बड़ी-बड़ी काली आंखें भर आईं। मेरा हाथ उसके सिर पर था और उसका सिर मेरे सीने पर। कुछ पलों बाद वह अपनी आंखों में उमड़ आए ज्वार को संभालकर मेरे पैर छूने के लिए झुक रही थी।
यह संभव नहीं था। उत्तर भारतीय परम्परा के अनुसार बेटी या बहन उम्र में कितनी भी छोटी हो आपको उसके पैर छूने होते हैं। दक्षिण भारत में यह उम्र से तय होता है। हर छोटा व्यक्ति अपने से बड़े के पैर छूता है। राधा अपने संस्कारों का पालन कर रही थी। लेकिन मेरे संस्कारों का तकाजा था कि मैं उसके पैर छूकर उसके प्रति अपने प्यार और आदर को व्यक्त करूं। मैंने इसमें एक पल की देर नहीं की। राधा को नीचे झुकने से रोका और उसके पैर छुए। हाथ में एक सौ एक रूपए रखे। खाली हाथ पैर नहीं छुए जाते न। पास खड़ीं सरस्वती जी मेरा और अपनी बेटी का यह नया रूप देख रही थीं।
राधा मैसूर चली गई। एक खुशबू के झोंके तरह पांच दिन गुजर गए। पर एक ऐसे रिश्ते के बीज बो गए, जिसकी साज-संभाल बहुत ध्यान से करनी होगी। राधा ने मैसूर जाकर मोबाइल से संदेश भेजा। वह मुझे अंकल नहीं, पिता जैसा मानती है। मेरे लिए यह सम्मान की बात है। जैसी बिटिया सरस्वती जी और प्रसाद जी को मिली (और मुझे भी) ऐसी बिटिया सबको मिले।
(यह सब मैंने सितम्बर,2009 के पहले हफ्ते में लिखा था। तब से अब तक सात माह और बीत गए हैं। राधा और मेरे बीच बेटी और पिता जैसे अंकल का रिश्ता और प्रगाढ़ हुआ है। इस बीच मैं अक्टूबर में मैसूर गया था। वहां दो दिन राधा (यानी सरस्वती जी और प्रसाद जी के) घर रहा। राधा से फोन पर बातचीत होती रहती है। जनवरी में सरस्वती जी भी मैसूर चली गई हैं। उनका कार्यक्षेत्र मैसूर के पास ही मंडिया जिले में तय हो गया है। वे मैसूर से रोज आना-जाना करती हैं।)
आपने यह टिप्पणी बाक्स खोला है तो इसमें कुछ लिखकर भी जाइए । शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंachi khas h aisi sabhi ladki hoti
जवाब देंहटाएंहा हा हा बल्ली पियाली है आपकी लाधा बेती तो.
जवाब देंहटाएंरिश्ते दो प्रकार के होते हैं खून के और प्यार के. प्यार के रिश्ते ईश्वर संयोगवश ही आपस में मिला कर बनाता है.ये आत्मा के रिश्ते बन जाते है.इनमे कोई स्वार्थ,अपेक्षाएं न होने के कारण बड़े खूबसूरत होते हैं.खून के रिश्तों में जब प्यार स्थाई भाव हो जाता है तो वो भी बेमिसाल हो जाते हैं.पर कितने रिश्ते उस स्टेज तक पहुँच पाते हैं ? आप अकेले तो ....????
राधा को ढेर सारा प्यार.आपको बेटी मिली इस रिश्ते को इश्वर का उपहार समझिए,ये भी 'वो' हर किसी को नही देता.आप लकी हैं.
मैं ऐसे रिश्तों को अपनी साँसों,धडकनों और आँखों में बसा लेती हूँ .जो मेरे 'जाने' के बाद ही मुझसे अलग होंगे.
सचमुच ऐसिच हूँ मैं
aap itni baariki se Observe karte ho ye ab pata chal raha he Maamaaji
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