श्याम सुशील, नरेन्द्र कुमार और राजेश उत्साही (तस्वीर मोबाइल से शिप्रा ने ली।) |
दिल्ली तो दिल वालों की रही है और देश का दिल तो है ही। पर अपने भी कुछ ऐसे हैं जो दिल के करीब हैं और रहते हैं दिल्ली में।
18 से 20 मार्च,2010 तक राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के केन्द्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान ने बच्चों के लिए बनाए गए वीडियो और ऑडियो का एक राष्ट्रीय महोत्सव आयोजित किया था। इसकी स्क्रीनिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना हुआ।
नरेन्द्र यानी नरेन्द्र कुमार यानी नरेन्द्र कुमार मौर्य उस जमाने के मित्र हैं, जिसका जिक्र मैंने हाल ही गुल्लक में एक तस्वीर के बहाने किया है। मैं होशंगाबाद में था, वे होशंगाबाद जिले के पिपरिया कस्बे में। हां, तब तक तो पिपरिया को कस्बा कहना ही ज्यादा ठीक था। संभवत: पढ़ने-लिखने की हमारी आदतें तब शुरू हुई-हुई थीं। जिंदगी में कुछ कर गुजरने का जज्बा था। सो हम लोगों ने ढर्रे वाली नौकरी की बजाय ऐसा काम चुना जो कुछ अलग था। मैं नेहरू युवक केन्द्र में काम करते हुए एकलव्य में आ गया। उधर नरेन्द्र स्वयंसेवी संस्था किशोर भारती में चले गए। बाद में किशोर भारती द्वारा पिपरिया में संचालित पुस्तकालय शहीद भगतसिंह पुस्तकालय एवं सांस्कृतिक केन्द्र के कर्ताधर्ता बने। वे पिपरिया के लोहिया विचार मंच के सदस्य तो थे ही।
मैं बच्चों की पत्रिका चकमक में काम कर रहा था, तो नरेन्द्र भगतसिंह पुस्तकालय में बच्चों के लिए सायक्लोस्टायल पत्रिका बाल चिरैया निकाल रहे थे। किसी न किसी बहाने मुलाकात तो होती ही रहती। पिपरिया में भी एकलव्य का केन्द्र था, अब भी है। मुझे याद है कि 1985 में चकमक के पहले अंक में भगतसिंह पुस्तकालय में आयोजित बच्चों की लेखन और चित्रकारी की प्रतियोगिता से चुनी गई रचनाएं प्रकाशित की गई थीं। 1987 में बच्चों की रचनाओं पर केन्द्रित चकमक का एक अंक प्रकाशित हुआ था, उसमें गुरुजी विष्णुचिंचालकर और तेजी ग्रोवर के साथ नरेन्द्र अतिथि संपादक थे।
फिर कुछ ऐसा हुआ कि वे दिल में तो रहे पर दिल्ली चले गए। 1990 के आसपास से वे दिल्ली में ही हैं। एक जाने-माने अखबार में। दिल्ली वाले दिल में भले ही रहें, पर मिलते हैं गाहे-बगाहे ही। सो साल-छह महीने में कभी कभार मुलाकात हो जाती।
इधर साल भर से मैं देश के दिल तो नहीं पर सिलीकोन ब्रेन बन चुके बंगलौर में हूं। यहां से दिल्ली जाना अक्सर होता रहता है। सो नरेन्द्र से मुलाकात भी बढ़ गई हैं। अब जब दो दीवाने और वो भी पुराने मिलते हैं तो छोटी-सी मुलाकात में मजा नहीं आता। नरेन्द्र लगातार आग्रह करते रहे हैं कि इतना समय लेकर आओ कि घर में आकर रुक सको ताकि जी भर बातें करें ।
मैंने तय किया कि इस बार यह हो ही जाए। महोत्सव खत्म होते ही मैंने नरेन्द्र के घर यानी नौएडा का रुख किया। इसमें कोई शक नहीं कि मेट्रो ने दिल्ली में सफर आसान कर दिया है। वैसे नरेन्द्र इस बात पर आमादा थे कि वे अरविंदो मार्ग से अपनी स्कूटी पर हमें ढोकर ले जाएंगे। मेरे आने की खुशी में उन्होंने अपने शनिवार को इतवार में बदलवा लिया था। वे हमारे सम्मान में अपने स्थानीय बैंड का कार्यक्रम भी रखना चाहते थे। मैंने कहा भैय्ये इतने दिनों बाद तो मौका मिला है अपनी ढपली ढपली और अपना अपना राग गाने यानी गप लगाने का। बैंड का कार्यक्रम अगली बार के लिए रखो। नरेन्द्र मान भी गए।
दिल्ली में एक और दोस्त हैं श्यामसिंह यानी श्याम सुशील। वे ऊपर पहाड़ों की तरफ से आते हैं। इनसे चकमक ने दोस्ती करवाई। वे चकमक खुद तो पढ़ते ही थे औरों को भी पढ़वाते थे यानी पाठक भी, प्रमोटर भी। न जाने कितनों को उन्होंने चकमक का ग्राहक बनवाया होगा। उनका बेटा शिवांक और बेटी शिप्रा दोनों ही चकमक के प्रिय लेखक रहे हैं। इतना ही नहीं वसुंधरा एंक्लेव के जनयुग अपार्टमेंट में बाकायदा एक चकमक क्लब का गठन किया गया था, जहां वे अब भी रहते हैं। यह क्लब बच्चों के लिए एक हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन करता था। इस पत्रिका का एक अंक डा.एपीजे अब्दुल कलाम पर केन्द्रित था। क्लब के सब बच्चे मिलकर उन्हें यह अंक भेंट करने गए थे। शिवांक की कविताओं की एक पुस्तिका हमने भोपाल में ही प्रकाशित करवाई थी। यह संयोग ही है कि वर्षों तक नरेन्द्र भी इसी अपार्टमेंट में रहे। श्याम सुशील भी एक अन्य जाने-माने अखबार में थे। थे इसलिए कि अब वे उस अखबार में नहीं हैं। अब वे दूरदर्शन आर्काइव में चले गए हैं। जाहिर है श्याम सुशील और नरेन्द्र भी गहरे मित्र हैं। लेकिन आरती और अनुराधा जी कहीं ज्यादा गहरी सखियां हैं।
पीछे -शिप्रा, अनुराधा जी,आरती ,नरेन्द्र और मैं । आगे- अबीर और अमल । (तस्वीर श्याम सुशील जी ने ली। ) |
पर पिछले तीन-चार साल से श्याम सुशील से जैसे कहीं खो गए थे,या फिर मैं ही खो गया था। मैंने सोचा इस बार कम से कम उनसे फोन पर ही बात कर ली जाए। नंबर ढूंढकर उन्हें ढूंढा। सारा किस्सा सुनकर बोले चलो हम भी आते हैं नरेन्द्र के यहां। और वे सचमुच पहुंच गए पत्नी अनुराधा जी और बेटी शिप्रा के साथ।शिप्रा आजकल जर्मन सीख रही हैं। हां शिवांक अपनी बारहवीं की परीक्षा में व्यस्त था, सो वह नहीं आया। उससे मुलाकात रह गई।
यहां बंगलौर में खाने में सबसे ज्यादा जिस चीज की याद आती है,वह दालबाटी। नरेन्द्र के घर जब खाने की बारी आई तो सामने दालबाटी और बैंगन का भर्ता था। नरेन्द्र की पत्नी आरती जबलपुर की हैं। आरती से मेरा परिचय उनकी शादी से पहले से है। पर मैं उनसे दूसरी बार ही मिल रहा था। पहली मुलाकात प्रगति मैदान में राष्ट्रीय पुस्तक मेले में नरेन्द्र की पत्नी के रूप में ही हुई थी।आरती-नरेन्द्र के बड़े बेटे का नाम अबीर है और मेरे बड़े बेटे का नाम कबीर। अबीर मासकम्युनिकेशन की पढ़ाई कर रहा है और छोटा बेटा अमल वीडियोग्राफी में हाथ आजमा रहा है।
तो नौएडा के केन्द्रीय विहार के सेक्टर 51 की एक बिल्डिंग के (शायद) चौथे माले के दो कमरों के घर न.138 के एक कमरे में नरेन्द्र और मैं रात को तीन बजे तक अपनी गप में लगे रहे। अगर अगले दिन नरेन्द्र को दफ्तर नहीं जाना होता और मुझे बंगलौर के लिए फ्लाइट नहीं पकड़नी होती तो शायद हम सुबह होने तक गपियाते ही रहते।
संयोग जब होते हैं तो होते ही चले जाते हैं। सुबह पता चला कि आज आरती जी का जन्मदिन है। मजे की बात कि यह आरती और नरेन्द्र को भी एक बधाई फोन आने पर याद आया। लगे हाथ हमने भी बधाई दे दी। अच्छा हुआ जो मिठाई शाम को ही ले आए थे। रात को दालबाटी का भोज था, तो सुबह गरमागरम मैथी के परांठे। दोनों ही मुझे बेहद पसंद।
फ्लाइट तीन बजे की थी। पर अभी दो और सुखद संयोग बाकी थे। एक था मित्र रंजना से मिलना, जो रूमटूरीड में हैं। और दूसरा यह है कि लखनऊ की मित्र प्रियंका किसी काम से आज ही दिल्ली पहुंच रही थीं। लगभग साल भर बाद उनसे भी मिलना हो रहा था। तय था कि हम तीनों रूमटूरीड में मिलेंगे। इसलिए नरेन्द्र और आरती से विदा लेकर मुझे दस बजे ही रवानगी डालनी पड़ी। अबीर तो शायद मेरी ऊंची आवाज सुनकर नींद से जागा था और बाथरूम में था। अमल सुबह ही क्रिकेट खेलने के लिए निकल गया था।
तो यह दिल्ली यात्रा दिल में रहेगी ही।
कौन कौन है, परिचय भी तो कराईये.
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