यहां बंगलौर में आज पृथ्वी दिवस पर मुझे भोपाल और अपना घर बहुत याद आ रहा है। इस कदर कि लगता है सब कुछ छोड़कर वापस चला जाऊं। शायद इसलिए भी कि पेड़ की तरह मनुष्य की अपनी पृथ्वी वही होती है जहां वह विकसित होता है। शरद बिल्लौरे की इस कविता में शायद मेरे मनोभाव भी हैं।
यात्रा
हम दूर देश की यात्रा पर निकलते हैं
घूमने नहीं
नौकरी करने।
हम निकलते हैं
अपने शहर से बाहर
और
किसी की पूरी ज़िन्दगी से बाहर निकल जाते हैं,
एकदम जीवित।
रेल में बैठे हुए हम
यात्रा से सम्बन्धित चीज़ों को छोड़कर
शेष सब के बारे में सोचते हैं।
कल
जब हमें अपने शहर में नौकरी मिल जाएगी
हम लौटेंगे
छुट्टियाँ बिताने नहीं,
शहर में हमेशा-हमेशा को बस जाने के लिए।
तब
क्या हम उस संसार में
उतने ही जीवित लौट पाएंगे
जहाँ से एक दिन हम
दूर देश की यात्रा पर निकले थे
नौकरी करने के लिए भी
और अपने शहर
हमेशा-हमेशा को लौटने के लिए भी।
0 शरद बिल्लौरे
(लेखक के कविता संग्रह तय तो यही हुआ था से साभार। लेखक अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर वे अपनी कविताओं के जरिए इस धरती पर हमारे आसपास मौजूद हैं।)
राजेश , तुमने आज शरद बिल्लोरे की याद दिला दी... सच कहूँ तो जब भी घर की याद आती है शरद की यह कविता याद आती है ।और शरद याद आता है तो भोपाल याद आता है । कभी घर से दूर नहीं गया था वह और गया तो ऐसा गया कि फिर लौटा ही नहीं । रीजनल कॉलेज में उसके साथ बिताये क्षण बिलकुल अभी कल की बात लगते हैं । आज मैने भी उसकी किताब तय तो यही हुआ था फिर से देखी । उसकी एक चिठ्ठी मेरे पास सुरक्षित है ..वह चिठ्ठी पढ़ी । अब 3 मई को उसकी पुण्यतिथि है ..उस दिन उसपर गत वर्ष की तरह कुछ लिखूंगा ।
जवाब देंहटाएंतुम घर कब लौट रहे हो भाई...?
शरद भाई,शरद बिल्लौरे की दो कविताएं मैंने गुल्लक में भी कल ही डाली हैं। मैं भी 3 मई को कुछ और बातों के साथ उनको याद करुंगा।
जवाब देंहटाएंघर से दूर... घर की याद की ऐसी अभिव्यक्ति पहले कभी नहीं पढी बल्कि बिल्लौरे जी की कविता पढकर कहना होगा कि अभीतक हमने कुछ खास पढा ही नहीं था ।
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