इस बार जब यात्रा से लौटा तो सबसे पहले मैंने अपनी एक शर्ट के बटन दुरुस्त किए। यह शर्ट मैं घर में भी पहनता हूं और सफर में ट्रेन में सोते समय। इस शर्ट ने मुझे इस बार शर्मिन्दा कर दिया। पर इसने कुछ सवाल भी उठाए जो हमारी शिक्षा या संस्कार की तरफ भी इशारा करते हैं।
कुछ दिनों पहले इस शर्ट का बीच का एक बटन टूट गया था। बचपन से अपना काम खुद करने का संस्कार रहा है। सो घर में जो बटन मेरे हाथ में आया वह मैंने टांक लिया। वह दूसरे रंग का था। बाकी बटनों के बीच कुछ अजीब-सा लग रहा था। पत्नी ने टोका भी। पर मैंने ध्यान नहीं दिया। आखिरकार घर में ही तो पहननी थी।
इस बार जब यात्रा पर था, तो लखनऊ से दिल्ली आने वाली सद्भावना एक्सप्रेस में सवार हुआ। रात के आठ बज रहे थे। सोचा शर्ट बदल ली जाए। शर्ट लेकर बाथरूम में गया। बदलकर पहनी। लेकिन फिर आइने में नजर पड़ी तो लगा कि बटनों का अजीब-सा संगम देखकर सामने बैठी सवारियां क्या सोचेंगी। कम्पार्टमेंट भी यह सेंकड एसी का था। कुछ सोचकर मैंने फिर से पहले वाली शर्ट ही पहन ली।
सामने की सीट पर एक आठ-दस साल का बच्चा,एक महिला और एक पुरुष बैठे थे। मैंने देखा कि बच्चा मुझे देखकर लगातार हंसे जा रहा है और महिला अपनी हंसी रोकने की कोशिश कर रही है। पुरुष अपना चेहरा अखबार में छिपाए हुए है। बाजू में बैठी युवती ने अपनी आंखें बंद कर रखीं हैं। थोड़ी देर बाद बच्चे ने अपना मुंह खिड़की के कांच पर सटा लिया और महिला ने भी आंखें बंद कर लीं। मैं भी अपने में खोया था।
अचानक मेरी नजर अपने पैंट पर पड़ी। उसकी चेन खुली हुई थी। बैठे होने के कारण वह और भद्दे तरीके से दिख रही थी। मैं तुरंत खड़ा हुआ। मुंह फेरा और चेन लगाई। यह शर्ट बदलने के चक्कर में खुली रह गई थी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि थोड़ी देर पहले बच्चा और महिला किस बात पर हंस रहे थे।
इस घटना ने मेरे जेहन में यह सवाल पैदा किया कि क्या मेरी इस चूक की तरफ ध्यान दिलाने का कोई तरीका उनके पास नहीं था। वे हंस तो सकते थे,लेकिन मुझे इसके प्रति आगाह नहीं कर सकते थे। क्यों भला? किसी को जिल्लत से बचाना ज्यादा अच्छा है या उसकी खिल्ली उड़ाना?
मुझे कुछ दिनों पहले का एक ऐसा ही वाकया याद आता है। मेरी हमउम्र, मेरी एक सहयोगी हैं। मैंने देखा कि पीठ की तरफ से उनकी ब्रेजियर का हुक खुल गया है और वह ब्लाउज से बाहर निकल रहा है। अन्य सहयोगी महिलाएं तथा लड़कियां यह देख रही थीं। पर कोई भी इस तरफ उनका ध्यान नहीं खींच रहा था। लेकिन मुझ से रहा नहीं जा रहा था। पर मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। फिर अचानक मुझे एक तरीका सूझा। मैंने एक चिट पर यह बात लिखी और उन्हें थमा दी। उन्होंने चिट पढ़ी। उठीं और चली गईं। पांच मिनट बाद लौंटी, मेरी तरफ देखा और धीरे से धन्य़वाद कहा। वे उसे ठीक करके आ गईं थीं। मैं एक अजीब से संतोष से भर उठा। शायद मैंने उन्हें कहीं ज्यादा असुविधाजनक स्थिति में आने से बचा लिया था। क्यों कि मैं नहीं चाहता था कि ऐसी स्थिति पैदा हो।
पर मेरे साथ घटी घटना ने मन में यह सवाल पैदा किया कि क्या वह बच्चा, महिला या उनके साथ का पुरुष मुझे इस बात से आगाह करने का कोई तरीका नहीं सोच सकते थे। क्या यह बात पुरुष मुझसे धीरे से मेरे कान में नहीं कह सकता था? क्या बच्चा हंसते हुए या फिर सामान्य रूप से यह बात मुझसे नहीं कह सकता था?
सोच रहा हूं ये कौन से संस्कार हैं,यह कौन सी शिक्षा है जिसमें हम सामने वाले पर हंस तो सकते हैं, पर सामने वाले को हंसी का पात्र बनने से रोक नहीं सकते ।
(यह टिप्पणी मैंने पिछले साल यानी 2009 में जनसंवाद के लिए लिखी थी। वहां प्रकाशित भी हुई है।)
sahab tamashon ki duniya....tamashbeen log....dekh lenge tali baja lenge...bas maza ho gaya....aapke kritya pe bada garv mehsoos hua aur seekh bhi mili...
जवाब देंहटाएंराजेश भैया आज कल लोगों को मज़े लेने में ही संतोष आता है यह कुछ संस्कार का दोष है पीढ़ी हमारी है फिर भी हमें कहने में कोई संकोच नही कि हम अपने संस्कारों के प्रति तनिक भी सजग नही है बस लोगों की खिल्ली उड़ाना ज़्यादा अच्छा लगता है..संस्मरण बहुत ही अच्छा लगा हम भी ध्यान देंगे....धन्यवाद इस बढ़िया पोस्ट के लिए
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रसंग...
जवाब देंहटाएंaisi hradayhin nirpekshta ke prati aap sajag v samvedansheel hai? qmaal hai rajesh ji.aksar to yahi hota hai ki log doosaron ki kamjoriyon v galtiyoh ko nissangata v heyata ke saath tamaasha banne ke liye chhod kar apne aapko uchcha star par rakhte hai ..ekdam nirdosh...aprajeya...sansmaran badhiya hai.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है राजेश भाई आपने , छोटी छोटी बातें कोई चर्चा करना भी पसंद नहीं करता ब्लाग पर ! मगर बेहद आवश्यक हैं यह शायद इस तरह के लेख से एक आदमी भी सबक ले ले तो यह लेख लिखना सफल हो जायेगा ! आपको शुभकामनायें
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