मंगलवार, 31 अगस्त 2010

कुछ चलती-फिरती यादें


भोपाल और होशंगाबाद के बीच भीमबैठका नाम से एक मशहूर जगह है,जहां बीस हजार साल पहले बनाए गए शैलचित्र हैं। यह दृश्‍य उससे कुछ ही आगे बरखेड़ा की विध्‍यांचल पर्वतमाला का है । सम्‍पर्क क्रांति एक्‍सप्रेस गड़रिया नाले पर बने पुल में प्रवेश कर रही है। यह वही नाला है जिसको केन्‍द्र बनाकर  दिलीप कुमार  और वैजयंती माला की 'नया दौर 'नामक फिल्‍म बनी थी। मैं भोपाल गया था और रक्षाबंधन मनाकर कर वापस बंगलौर लौट रहा था


मैंने पिछले दिनों ही एक कैमरा खरीदा है। तो बस ट्रेन में बैठे-बैठे यह फोटोग्राफी की। विध्‍यांचल की पर्वतमाला के किनारे बहती नर्मदा । यह फोटो बुदनी के पास नर्मदा  पुल पर गुजरती ट्रेन से ही लिया है। 
नर्मदा  किनारे बसे होशंगाबाद का रेल्‍वे स्‍टेशन। जिन्‍दगी के कई महत्‍वपूर्ण क्षण  इस प्‍लेटफार्म की बेंचों पर बिताए हैं। होशंगाबाद की रेल्‍वे कालोनी में घर हुआ करता था। देर रात तक दोस्‍तों के साथ इस प्‍लेटफार्म पर गप्‍पबाजी  चला करती थी। ऐसा समयभी  यहां बीता है जब घोर निराशा के भंवर में इन पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी सबकुछ खत्‍म कर देने के लिए आकर्षित किया करती थी। पर जिन्‍दगी में कहीं कुछ ऐसा भी था,जो हर बार कदमों को जकड़ लेता था।  
होशंगाबाद से इटारसी की तरफ जाते हुए आदमगढ़ की पहाड़ी। यहां भी भीमबैठका के समकालीन शैलचित्रों का खजाना है। यह पहाड़ी भी मेरी यायावरी की गवाह है
होशंगाबाद और इटारसी के बीच बसा पवारखेड़ा रेल्‍वेस्‍टेशन का स्‍टाफ क्‍वार्टर जो मेरे बचपन की शैतानियों और बदमाशियों का गवाह है। इसके बगल में बने एक और क्‍वार्टर में मेरा परिवार रहा करता था। इस घर के क्‍वार्टर के सामने एक कबीट का पेड़ था जिस पर रात के समय गैस का हंडा जला करता था। यहीं वो पेड़ है जिसके नीचे मैंने बारिश के बीच नंगे बदन दो घंटे गुजारे थे। क्‍योंकि मैं स्‍कूल नहीं जाना चाहता था। पिताजी ने सारे कपड़े उतारकर घर से बाहर निकाल दियाथा। यह भी कहता चलूं कि मेरे स्‍कूल की शुरुआत यहीं पवारखेड़ा में हुई थी।
भोपाल से बंगलौर के 27 घंटे के सफर का हमसफर सचिन अपने पिता के साथ। सचिन को देखकर अपना और बड़े होते अपने बच्‍चों का बचपन बहुत याद आता रहा। याद मुझे सदाअत हसन मंटों की कहानी मंत्र का वह बच्‍चा भी आता रहा,जो अपने पिता के जरूरी कागज ट्रेन से बाहर फेंक देता है और कहता है अब वह मंत्र पढ़कर उन्‍हें वापस लाओ,जिससे आप मेरी टोपी वापस ले आते हैं।  सचिन बार बार अपना पैर खिड़की से बाहर डालता रहा और उसके पिता पैर अंदर खींचते रहे।सबसे सुकून देने वाली बात यह थी कि सचिन के पिता उसे डांट या मार नहीं रहे थे। वे भी उसके खेल में शामिल थे। 

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर चित्रण,

    आप भी इस बहस का हिस्सा बनें और
    कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
    अकेला या अकेली

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  2. उत्साही जी बहुत-बहुत शुक्रिया मार्गदर्शन करने के लिए.

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  3. आशा करता हूँ की भविष्य में भी इसी तरह आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा.

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  4. rajesh ji
    hr kisi ki jindgi me aise hoshngabad jaisi rel ki ptriya aati hai lekin vkt se harne ki bjay jujharu ho kr usse mukabla krna hi krmthta hai vrna ise kayrta khenge .
    adhik likh diya ho to chhma kr dijiyega .

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  5. उत्साही जी ,फोटोग्राफी कमाल की है । ये स्थान लगभग सभी देखे हुए हैं पर आपके कैमरे ने जैसे अलग रंग भर दिये हैं । सम्पादन और लेखन के साथ यह कला भी ...बहुत खूब..।

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  6. एक कैमरे का इस से अच्छा उपयोग क्या हो सकता है? आपकी नज़रों से हमने हमारी भोपाल, भीम बेडका, होशंगाबाद, पचमडी की बरसों पुरानी यादों को ताज़ा कर लिया...आप चित्र ऐसे ही खींचते रहें और हमें दिखाते रहें...
    नीरज

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  7. शु्क्रिया इन मनोरम चित्रों को साझा करने के लिए !

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  8. उत्साही जी संगीत, साहित्य के आलावा मुझे भी घुमक्कड़ी का शौक है। इसीलिए आपके तीन ब्लागों में पहले यहाँ खिंचा चला आया। हिंदी में यात्रा लेखन की शुरुआत मैंने अपने चिट्ठे मुसाफ़िर हूँ यारों से की थी। वहाँ नियमित रूप से अपने सफ़र की कहानी सुनाता रहता हूँ।

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  9. ख़ूबसूरत तस्वीरें हैं...और सचिन तो बहुत ही प्यारा लग रहा है....सफ़र अच्छा कटा होगा, उसके सान्निध्य में

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  10. .
    बहुत सुन्दर चित्र के साथ जुडी हुई मधुर यादें । आपने तो कैमरे का पैसा वसूल लिया।
    सुन्दर पोस्ट ..आभार।
    .

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  11. बहुत बढ़िया

    मेरे ब्लॉग कि संभवतया अंतिम पोस्ट, अपनी राय जरुर दे :-
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html
    कृपया विजेट पोल में अपनी राय अवश्य दे ...
    .

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  12. आनन्द आ गया चित्रों को देखकर। फोटोग्राफी मेरा भी द‘ाौक है।

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