रविवार, 27 मार्च 2011

एक दिन अनमना-सा


शनिवार-इतवार की छुट्टी होती है। आम तौर पर आधा शनिवार देर तक सोकर उठने के बाद, हफ्ते भर मैले हुए कपड़ों की धुलाई, घर की सफाई और फिर कुछ कच्‍चा-पक्‍का बनाने और खाने में गुजर जाता है। 

इस बार शनिवार कुछ अनमना-सा था। पिछले कुछ दिनों से बिल्डिंग में पानी की किल्‍लत चल रही है। बोरवेल है। पानी नीचे उतर गया है। वह भी आखिर कब तक साथ दे। आसपास यूक्लिप्‍टस के बगीचे हैं। जगजाहिर है कि यूक्लिप्‍टस बहुत पानी खींचते हैं। मकान मालिक समस्‍या के निदान के लिए जो भी संभव उपाय हैं करने में लगे हैं। पहले दिन तो उन्‍होंने टैंकर बुलवा दिया। फिर बोरवेल में इतना पानी आने लगा कि दो-दो बाल्‍टी वहीं नीचे जाकर भर सकते थे। दो-तीन दिन नीचे से बाल्‍टी भरकर भरकर दूसरी मंजिल पर लानी पड़ी। फिर सुबह-शाम आधा घंटे के लिए घर में ही पानी आने लगा। सो कपड़े तो शुक्रवार की शाम को मिले पानी से धो डाले थे। 

सोकर उठा, सफाई की, नहाया। बिल्डिंग में कार्यालय के एक साथी सैयद भी रहते हैं। वे दस-बारह दिनों के लिए दिल्‍ली चले गए हैं। अन्‍यथा उनके साथ कुछ न कुछ कार्यक्रम बन ही जाता है। सैयद ने क्रिकेट देखने के लिए टीवी लिया है। क्रिकेट का बुखार अपने को भी चढ़ता है। सो वे अपने घर की चाबी दे गए हैं। पर मैच तो दोपहर में शुरू होना था। सोचता रहा क्‍या करूं। कुछ देर लैपटॉप के साथ बैठा रहा। खाने बनाने का मन नहीं था। नींद आ रही थी, सो गया। जागा तो तीन बज रहे थे।

जहां मैं रहता हूं वह गांव जैसा ही है। नाम है हल्‍लनायकनहल्‍ली। पास ही लगभग फर्लांग भर की दूरी पर सौ साल पुराना राममंदिर है। हर साल इन्‍हीं दिनों में राममंदिर का वार्षिक उत्‍सव धूमधाम से मनाया जाता है। कार्यक्रम लगभग हफ्ते भर चलते हैं। शनिवार को मुख्‍य कार्यक्रम था। मंदिर के उत्‍सव की सूचना देने के लिए एक किलोमीटर दूर मुख्‍य सड़क पर बिजली की झालरों से बना होर्डिंग लगाया गया है। नगाड़े और पम्‍परागत रूप से बजाए जाने वाले वाद्ययंत्रों का शोर हो रहा था और लोगों की आवाजें भी आ रही थीं। सोचा चलकर देखा जाए। मैं अपना कैमरा लेकर निकल पड़ा। 


मंदिर के आसपास ग्रामीण मेले का माहौल था। खाने-पीने की वस्‍तुओं की दुकानों के साथ सस्‍ती क्राकरी, बच्‍चों के लिए खिलौने और आइस‍क्रीम की दुकानें भी थीं। टैटू और गुदने बनाने के लिए परम्‍परागत गोदने वाली मशीन लिए एक महिला भी दुकान लगाकर बैठी थी। मंदिर के प्रांगण में लंगर भी चल रहा था। पूजा-पाठ से अपना बहुत अधिक नाता नहीं है। मंदिर में दो-तीन बार पहले भी आया था। कभी किसी का साथ देने और कभी बस जिज्ञासावश। आज मंदिर को सजाया गया था, सो उसकी छटा देखने मंदिर में चला गया। पुजारी ने मेरे हाथ में कैमरा देखा तो फोटो खिंचवाने के लिए पोजीशन ले ली। मैंने मन ही मन उसे धन्‍यवाद दिया और कुछ तस्‍वीरें लीं। 

बाहर निकला तो पांव लंगर की तरफ उठ गए। वहां की तस्‍वीरें लीं। सुबह से कुछ खाया नहीं था, भूख भी लगी थी। और लोगों को खाते देखकर भूख कुछ ज्‍यादा ही लगने लगी। सोचा लंगर में ही खा लिया जाए। पहले मन आगे-पीछे किया। आज तक कभी ऐसे किसी लंगर में भोजन नहीं किया था। फिर सोचा आज यह अनुभव भी कर ही लिया जाए, सो बैठ गया। भोजन में पुलाव,सादा चावल, रसम, केसरीभात, उबले चने की सब्‍जी, अचार, पापड़ और दही चावल था। बाकायदा टेबिल-बेंच लगाकर और उस पर केले का पत्‍ता बिछाकर खाना परसा गया। खाते-खाते मुझे याद आया कि महीने भर पहले दो लोग मंदिर के उत्‍सव के लिए चंदा मांगने आए थे। मैं ऐसा कोई चंदा नहीं देता हूं। फिर उनके पास कोई रसीदकट्टा आदि नहीं था। बस वे एक डायरी और पेन लेकर घूम रहे थे। मुझे तो वे संदिग्‍ध ही लगे थे। उस समय मैंने उन्‍हें टरकाने के लिए कह दिया था कि मैं मंदिर में ही जाकर दे दूंगा। उन्‍होंने भी मुझसे कोई बहस नहीं की। आज सच कहूं तो थोड़ा सा अपराधबोध तो हो रहा था। पर सच यह भी है कि मन भी भर गया और पेट भी । 
 
इस मंदिर के वार्षिक उत्‍सव की विशेषता यह है कि आसपास के मंदिरों के देवी-देवताओं को झांकी में सजाकर यहां लाया जाता है। वे रात भर रहते हैं और फिर सुबह अपने-अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। रात भर उत्‍सव चलता है। जब वे लौटते हैं तो रास्‍ते में उनकी पूजा अर्चना की जाती है। 

यह नजारा देखकर मुझे उत्‍तर भारत में दशहरे के अवसर पर देवी दुर्गा और महाकाली की झांकियां याद आ गईं । 
होशंगाबाद में दशहरे की रात को वहां के लेंडिया बाजार के मैदान में रावण दहन होता है। शहर की अधिकांश दुर्गामूर्तियों को शाम से झांकियों समेत वहां लाया जाता है। रावण दहन के बाद वे रात भर वहीं रहती हैं, और फिर सुबह-सुबह उन्‍हें विसर्जन के लिए नर्मदा किनारे ले जाया जाता है। ये  तस्‍वीरें मैंने ही ली हैं। 
                                                   0 राजेश उत्‍साही 

11 टिप्‍पणियां:

  1. मंदिर की सजावट तो वाकई अच्छी की गई है |

    वैसे खाना खाने के बाद मंदिर के दान पेटी में कुछ डाला की नहीं :))

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ! आपने तो इतनी दूर बैठे भगवान के दर्शन घर बैठे करा दिए । वहां भोजन किया वो तो ठीक, चंदे वालों को टरकाने की बात भी समझ में आती है क्योंकि झूठे चंदे मांने वाले भी घूमते हैं पर भोजन के बाद इसकी भरपाई कर देते तो अपराधबोध से मुक्त हो जाते । ये तो अब भी हो सकता है ।
    वैसे वहां जाकर आपका अनमनापन तो दूर हो ही गया । पढकर हमारा मन भी प्रफुल्लित हो गया ।
    इसके लिये साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. रोचक वृतांत राजेश जी...आनंद आ गया...
    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  4. जीवन वृतांत.... चित्र और शब्दों का सुंदर साम्य.....बहुत बढ़िया ...

    जवाब देंहटाएं
  5. कुछेक तस्वीर तो बहुत ही अच्छे हैं। बहुत रोचक वृत्तांत पढने को मिला।

    जवाब देंहटाएं
  6. ek jeewant man ko aandolit karne wala chitran.. chitron aur shabdon ka adbhut samanjsy... aapki paine drishti aur shilp dekhte hi banta hai..

    जवाब देंहटाएं
  7. अच्छी जानकारी मिली ...शुभकामनायें आपको !!

    जवाब देंहटाएं
  8. सार्थक ब्लॉगिंग।
    मैं भी चंदा मांगने वालों को टरका देता हूँ। मंदिर भी नहीं जाता। अब ध्यान देना पड़ेगा।

    जवाब देंहटाएं
  9. anmaneypan ki ye daastan pasand aai.hoshangabad dashahre ki yaad mujhey bhi taza hi gai.

    जवाब देंहटाएं