पिछले दो साल से बंगलौर में हूं। पिछले पचास सालों से हवाई जहाज को आकाश में उड़ते देखा करता था और उसकी तमाम कहानियां सुनते रहता था। सोचता था, जिंदगी में शायद ही ऐसा मौका आए कि अपन हवाई जहाज को छूकर भी देखेंगे। अब हाल यह है कि पिछले दो सालों में ट्रेन से ज्यादा प्लेन में ही यात्रा करने का संयोग बनता रहा है। पर अब यह यात्रा बहुत उबाऊ लगने लगी है। चार-पांच घंटे किसी कैद की तरह। हर बार वही एयरहोस्टेस के वही जाने-पहचाने चेहरे। वही उनके संदेश ....कमर की पेटी ऐसे बांधी जाती है,......मास्क ऐसे पहना जाता है,....दो दरवाजे आगे हैं दो पीछे हैं..... आदि आदि। बीच बीच में पायलट की ऐसी आवाज.....लगता है जैसे नींद में बड़बड़ा रहा हो। कुछ भी समझ में नहीं आता। आता है तो बस यह कि हिन्दुस्तानी जहाज को कोई अंग्रेज उड़ा रहा है।
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राजस्थान में अजीमप्रेमजी फाउंडेशन की स्थानीय टीम पिछले कुछ सालों से दो जिलों सिरोही और टोंक में स्कूलों में काम कर रही है। उनका एक कार्यक्रम है जिसमें स्कूलों में शिक्षकों द्वारा किए जा रहे बेहतर शैक्षणिक प्रयासों की पहचान की जा रही है। इस कार्यक्रम के दस्तावेजीकरण के सिलसिले में पिछले कुछ समय से लगातार राजस्थान जाना-आना हो रहा है। इस बार टोंक में चुने हुए शिक्षकों के साथ एक कार्यशाला थी।
घर गए हुए चार महीने हो रहे हैं। जब जब उत्तर की तरफ जाना होता है घर की और ज्यादा याद आने लगती है। हर बार गुंजाइश ढ़ूंढने की कोशिश करता हूं कि क्या एक दो दिन के लिए वहां से भोपाल–होशंगाबाद भी जाया जा सकता है। इस बार भी कोशिश की। पर आजकल प्लेन में टिकट आसानी से मिल जाती है ट्रेन में नहीं। भोपाल अभी भी इतना बड़ा नहीं हुआ कि बंगलौर से लोग उड़कर सीधे वहां जाएं । सो बस मन की उड़ान भरके ही रह गए।
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जयपुर से टोंक कोई 100 किलोमीटर दूर है। टैक्सी में हम चार लोग थे। जयपुर से बाहर निकलकर टोंक जाने वाले उसी नेशनल हाइवे 12 पर थे जो मप्र की ओर जा रहा था। टोंक से लगा हुआ है सवाई माधोपुर और सवाई माधोपुर से लगा हुआ है मप्र का श्योपुरकलां जिला। श्योपुरकलां की सबलगढ़ तहसील में तो सारा बचपन बीता है। महसूस हो रहा था कि घर आसपास ही कहीं है। नेशनल हाइवे पर फोरलेन काम चल रहा है। सड़क के दोनों तरफ वही चिरपरिचित दृश्य थे।
टोंक के बाहर ही कभी-कभी बहती है बनास नदी। बहती इसलिए कि अभी तो बस उसके निशान ही दिख रहे थे और उस पर बना पुल। शायद नदी बारिश में नजर आती होगी। बनास का नाम मैंने सबसे पहले तब जाना था जब इसी नाम से राजस्थान से प्रकाशित होने वाली एक साहित्यिक पत्रिका को देखा था। पत्रिका का पहला अंक जाने माने कथाकार स्वयं प्रकाश पर केन्द्रित था। पत्रिका जयपुर से ही निकलती है। कस्बे में घुसते ही मुझे होशंगाबाद तथा मप्र के दूसरे कस्बे याद आने लगे। मन ही मन मैं उनसे तुलना करने लगा, आबादी और तमाम दूसरी चीजों की। लगा कि बहुत फर्क नहीं है। बैलगाड़ी की जगह यहां ऊंठगाड़ी थी।
टोंक को राजस्थान का लखनऊ कहा जाता है। टोंक में बड़ा कुआं, सुनहरी कोठी और वहां की प्रसिद्ध जामा मस्जिद देखने लायक हैं। इनके सबके बारे में एकलव्य के पुराने साथी मोहम्मद उमर ने बताया भी। वे भी आजकल टोंक में ही हैं। पर कार्यशाला का समय कुछ ऐसा था कि इन्हें देखने जाना संभव ही नहीं था। कस्बे के बीचोंबीच एक टेकरी है जिसे रसिया का टीला कहा जाता है। कस्बे में कहीं भी जाओ यह लगातार ध्यान खींचती रहती है। हालांकि इसके इतिहास के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं चला ।
पहले दिन जब कार्यशाला समाप्त हुई तो शाम हो आई थी। सूरज डूबने जा रहा था। उमर ने कहा कि बनास के बंधा पर चलकर अपन सूरज को डूबते हुए देख सकते हैं। वह बहुत सुंदर दृश्य होता है। जल्दी जल्दी हम वहां जाने के लिए निकले। पर न तो उगने वाला सूरज किसी का इंतजार करता है और न डूबने वाला।
अंधेरा घिर आया था इसलिए किसी अन्य जगह को देखने जाना भी मुनासिब नहीं था। मिलना तो मैं उमर के परिवार से भी चाहता था। उमर की पत्नी रुखसाना मेरे ब्लाग पढ़ती रहती हैं, फोन पर एक-दो बार उनसे बात हुई है। दोनों का एक प्यारा सा बेटा भी है अमान। पर मिलना संभव नहीं था क्योंकि वे कानपुर गए हुए थे। जब निकल रहे थे, तो वहां के एक सहयोगी नरेन्द्र ने आग्रह किया कि समय हो तो चाय के लिए घर आइए। संयोग से उनका घर हम जहां ठहरे थे उसके पास ही था। जब सूरज को डूबता न देख सके तो सोचा चलो नरेन्द्र के परिवार से ही मिल लिया जाए। नरेन्द्र के परिवार में उनकी पत्नी प्रीति, बच्चे पंकज, प्रिया और नवीन हैं। घर में घुसते ही एक के बाद हरेक की नमस्ते सुनने को मिली। और फिर तुरंत ठंडा पानी। फिर चाय के साथ मक्के और चावल के पापड़ भी । पापड़ घर में ही बनाए हुए थे सो कुछ तो उनके बारे में कहना ही था। और फिर जब घर की बात चलती है तो घर की याद आ ही जाती है।
जब चलने लगे तो आग्रह हुआ कि खाना खाकर जाएं। बाकी साथियों का निरामिष भोजन का कार्यक्रम था। अपन ठहरे शाकाहारी। इसलिए वैसे भी उनका साथ नहीं निभाने वाले थे। इसलिए पूछ लिया क्या पक रहा है आज। जवाब मिला जो आप कहेंगे। जवाब प्रीति ने दिया था,पर उनकी नजरें नरेन्द्र की तरफ थीं। नरेन्द्र बोले मैं आफिस से लौटते समय हरी प्याज और .... लाया हूं। हरी प्याज सुनने के बाद मैंने बाकी दो सब्जियों के नाम ही नहीं सुने। मैंने कहा अगर हरी प्याज पके तो आपका न्यौता मंजूर।
हरी प्याज और आलू की सब्जी खाए कुछ नहीं तो साल भर तो गुजर ही गया होगा। एक बार फिर घर की याद हो आई। मैंने अपने दोनों साथियों को विदा किया और वहीं जम गया। टीवी पर आईपीएल का मैच चल रहा था जिसमें सचिन तेंदुलकर अपनी पहली आईपीएल सेंचुरी बनाने की तरफ बढ़ रहे थे। नरेन्द्र और मैं दुनिया जहान की बातों में मशगूल थे,पंकज और नवीन की नजर टीवी पर थी। उधर छोटी-सी रसोई में प्रीति और प्रिया खाना बना रही थीं।
हरी प्याज और आलू की सब्जी, दाल और गरमागरम घी लगी रोटियां जब सामने आईं तो एक बार फिर घर आंखों में उमड़ आया। थाली में मिर्ची और लसूडे़ का अचार था। खाते-खाते मैं सोच रहा था यह भी तो आखिर घर ही है। घर न जाने पाने का गम थोड़ा कम हुआ। घर के खाने का शुक्रिया अदा नहीं किया जाता। पर कुछ ऐसी गंदी आदत पड़ गई है कि मुंह से शुक्रिया शब्द निकल ही जाता है। शुक्रिया प्रीति-नरेन्द्र और बच्चो। आप सबके साथ कुछ पल बिताकर ऐसा लगा जैसे मैं घर ही पहुंच गया हूं।
बरबस ही टोंक के ही एक मशहूर शायर मख्मूर सईदी की एक ग़ज़ल के कुछ शेर याद आ गए। यह संयोग ही था कि उनकी यह ग़ज़ल पिछली रात को ही पढ़ी थी। यह मख्मूर सईदी के संग्रह ‘घर कहीं गुम हो गया’ में है । नीरज गोस्वामी ने अपने ब्लाग किताबों की दुनिया में इस पर विस्तार से लिखा है।
नज़र के सामने कुछ अक्स झिलमिलाये बहुत
हम उनसे बिछुड़े तो दिल में ख्याल आये बहुत
थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत
मिटी न तीरगी 'मख्मूर' घर के आँगन की
चिराग हमने मुंडेरों पे यूँ जलाए बहुत
वहां से लौट तो आया पर ग़ज़ल जैसा ही कुछ-कुछ अनुभव होता रहा। 0 राजेश उत्साही
nice
जवाब देंहटाएंराजस्थान के दूर-दराज़ इलाक़ें बहुत सुंदर व शांत हैं.
जवाब देंहटाएंबढ़िया यात्रा संस्मरण !
जवाब देंहटाएंराजेस्थान देखने की काफी इच्छा है किन्तु अभी तक मौका नहीं मिल पाया है |
जवाब देंहटाएंराजेश भाई, टोंक, बनास नदी, सुनहरी कोठी, घर का खाना सुभान अल्लाह...ये क्या याद दिला दिया आपने? बनास नदी में उगने वाले खरबूजे बहुत मशहूर हुआ करते थे...इतने रसीले और मीठे के चीनी भी पानी भरे...गर्मियों की रातों में उसकी ठंडी रेत पर बैठ कर की गयी पार्टियाँ ज़ेहन में कौंध गयीं...बनास अब सूख गयी है और उसके साथ ही वो रसीले मीठे खरबूजे मतीरे भी गायब हो गए हैं...ठंडी रेत अब तपने लगी है...फिर भी टोंक, टोंक ही है...
जवाब देंहटाएंहरे प्याज़ और आलू की सब्जी हमने कभी नहीं खाई. जयपुर में यूँ आलू प्याज़ की सब्जी बहुत प्रसिद्द है लेकिन उसमें छोटे छोटे साबुत प्याज़ और बड़े बड़े आलू के टुकड़े डाले जाते हैं, किसी जमाने में जब घी तेल खाने पर पाबन्दी नहीं थी तब ये सब्जी खूब चटखारे ले कर खाई जाती थी...आप जब जयपुर आयेंगे तो दोनों साथ मिल के खायेंगे...जयपुर की एक और प्रसिद्द बेसन की गट्टे की सब्जी और दाल बाटी चूरमा का स्वाद तो आपने चखा ही होगा...अब कब आ रहे हैं जयपुर...बताएं.
आपका ये लेख सच किसी ग़ज़ल से कम नहीं. लेखन में आपको कमाल हासिल है इतना जीवंत विवरण है के लगता है हम आपके साथ ही हैं...
नीरज
@नीरज भाई,
जवाब देंहटाएंनदी होगी तो तरबूजे और खरबूजे होंगे ही। होशंगाबाद में नर्मदा के किनारे ये अब भी होते हैं और वहां की खरबूजों की बट्टियां सचमुच आज भी चीनी को मात करती हैं। मैं कल्पना कर सकता हूं बनास की रेतीली पार्टियों की। सचमुच अनोखा आनंद रहा होगा। बेसन के गट्टे की सब्जी तो खाई ही है और दाल बाटी मेरा प्रिय व्यंजन है। चूरमा के बिना तो उसका आनंद ही नहीं। दाल बाटी तो मैं यहां बंगलौर में भी बना ही लेता हूं। राजस्थान की दाल बाटी और चूरमा मैंने पिछले बरस सिरोही यात्रा में छककर खाए हैं। अभी अपन पाबंदियों से बचे हुए हैं।
देखिए अब कब होता है आना जयपुर। खबर करुंगा।
बहुत ही अच्छा लगा ये वृत्तांत ...आपके साथ हम भी घूम आए...
जवाब देंहटाएंसारा वृतांत बहुत सुंदर ......पढ़कर मेरी आखों के सामने भी घर के दृश्य छा गए
जवाब देंहटाएंवहा वहा क्या कहे आपके हर शब्द के बारे में जितनी आपकी तारीफ की जाये उतनी कम होगी
जवाब देंहटाएंआप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अपने अपना कीमती वक़्त मेरे लिए निकला इस के लिए आपको बहुत बहुत धन्वाद देना चाहुगा में आपको
बस शिकायत है तो १ की आप अभी तक मेरे ब्लॉग में सम्लित नहीं हुए और नहीं आपका मुझे सहयोग प्राप्त हुआ है जिसका मैं हक दर था
अब मैं आशा करता हु की आगे मुझे आप शिकायत का मोका नहीं देगे
आपका मित्र दिनेश पारीक
आपके साथ हमने भी राजस्थान का लखनऊ' टोंक' की यात्रा घर बैठे ही कर ली जो बहुत आनंददायक रही ।धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंसुधा भार्गव
आपके आलेख ने राजस्थान की याद दिला दी, मन भीग गया । आप वर्णन भी इतना सजीव करते हैं कि क्या कहने । हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंहमारी तरफ़ से भी बधाई, एक यात्रा के लिये जो मेरा पसंदीदा विषय है,
जवाब देंहटाएंघर से दूर घर की याद बहुत सताती है, तभी तो घर घर होता है... पर जिंदगी एक सी कहाँ रहती है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर संस्मरण.
प्रणाम !
जवाब देंहटाएंआप के साथ हम भी हवाई यात्रा कर आये जीवंत सा लगा , किसे के सामने सखी भी बगार सकते आई यात्रा कि है . राजस्थान में रह कर भी कभी टोंक गए नहीं मगर आप के साथ हम भी हम सफ़र हो लिए . वाकई ऐसा लगा कि हम आप के साथ ही थे इसलिए , आभार !
सादर
शुक्रिया इस यात्रा के अनुभव साझा करने के लिए..
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