शनिवार, 12 नवंबर 2011

गुलज़ार जी से गपशप आकाश में

भोपाल में भारत भवन के खुले रंगमंच पर फूलों के आदान-प्रदान का यह लघु नाटक  मेरे और गुलज़ार जी के बीच 23 अक्‍टूबर की सुबह खेला गया। पीछे भोपाल का मशहूर तालाब नजर आ रहा है। 
फोटो आकाशवाणी भोपाल के एनाउंसर राजुरकर 'राज' ने लिया।
भोपाल जाने वाले हवाई जहाज में चढ़ने की उद्घोषणा होने लगी थी। छत्रपति शिवाजी हवाई अड्डे के गेट नम्‍बर 14 के सामने लोग कतारबद्ध हो रहे थे। हम भी शामिल होने के लिए आगे बढ़े। तब तक एक बुजुर्ग साहबान ने गुलज़ार जी को पहचान लिया था। अपनी छड़ी टेकते हुए वे पीछे पीछे आ रहे थे। दोनों के बीच दुआ सलाम हुई। गुलज़ार जी पीछे हट गए और उन्‍हें आगे कर दिया। मैं गुलज़ार जी के पीछे था। वे पलटे और मुझे भी आगे आने का इशारा किया। मैं झिझकता हुआ कतार में उनके आगे आ गया। अपनी स्‍ट्राली उन्‍होंने मुझ से वापस ले ली थी। गेट पार कर हम बाहर निकले बस सामने ही थी। लगभग 5 मिनट के सफर के बाद बस हवाई जहाज के पास पहुंची। बस से उतरे तो हवाई जहाज में चढ़ने के लिए फिर कतार थी। मैं कतार में उनके पीछे था दो और व्‍यक्तियों के पीछे। उन्‍होंने फिर पलटकर देखा और हाथ पकड़कर मुझे आगे खींच लिया। मैंने उनके हाथ से स्‍ट्राली लेने की कोशिश की। उन्‍होंने मना कर दिया। कहा,  इसमें वजन कहां है यह तो हल्‍की है।


यह हवाई जहाज छोटा था टूसीटर। उन्‍होंने पूछा आपकी सीट कौन-सी है। मैंने कहा, 5 ए । उनकी सीट थी 18 ए। गुलज़ार जी बोले, चलिए देखते हैं। 18 बी पर एक सरदार जी थे, मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मेरी सीट पर चले जाएं। उन्‍होंने अनुरोध स्‍वीकार कर लिया। मैं खुश था कि अब भोपाल तक गुलज़ार जी का साथ होगा।

औपचारिकताओं के बाद हवाई जहाज ने उड़ान भरी। बातों का सिलसिला शुरू हुआ। गुलज़ार जी के सरल और सहज व्‍यवहार से मुझे यह महसूस ही नहीं हो रहा था कि मैं किसी बड़ी हस्‍ती के साथ बैठा हूं। यह उनका बड़प्‍पन ही था। वे किसी पुराने मित्र की तरह ही मुझसे बात कर रहे थे। मैं भी बस कुछ इस तरह ही उनसे बात कर रहा था जैसे दो मित्र मिलने पर करते हैं। जो कुछ मन में आता जा रहा था मैं पूछता जा रहा था। सवालों के बारे में मैंने पहले से कुछ सोचा नहीं था। और न ही यह कोई साक्षात्‍कार था। पर जो बातचीत हुई वह किसी साक्षात्‍कार से कमतर नहीं है। 

बच्‍चा जो मन की आंखों से गुलज़ार जी
को देखता है। फोटो : राजेश उत्‍साही 
मैंने पूछा, आप कितने दिनों बाद भोपाल जा रहे हैं।
उन्‍होंने याद करने की कोशिश की-लगभग तीन महीने बाद। भोपाल में आरुषि संस्‍था के साथ उनका गहरा नाता है और उसके कार्यक्रमों में वे लगातार जाते ही रहते हैं। आरुषि मूक-बधिर तथा दृष्टिहीन बच्‍चों के लिए काम करती है। गुलज़ार जी उनके लिए लगातार कुछ न कुछ करते रहते हैं। भोपाल के अपने इस प्रवास के दौरान भी उन्‍हें आरुषि के लिए बनी एक कॉफी टेबिल बुक को जारी करना था।

मैंने पूछा, आपने बच्‍चों की थीम पर किताब और परिचय जैसी फिल्‍में बनाईं थीं। आजकल किसी ऐसी फिल्‍म के बारे में सोच रहे हैं।
वे बोले, नहीं अब मैं फिल्‍में नहीं बना रहा हूं। अब मैं केवल गीत लिख रहा हूं। बाकी कुछ और फिल्‍मों में नहीं कर रहा हूं। स्क्रिप्‍ट भी नहीं, क्‍योंकि वह बहुत समय लेती है। गीत भी इसलिए, क्‍योंकि उसी से मुझे वह पैसा मिलता है जिससे मैं अपना वह जीवन स्‍तर कायम रख पाता हूं, जो अब हो गया है। केवल साहित्‍य के बल पर इसे बनाए रखना मुश्किल काम है। गीत भी जब दस लिखता हूं तब कोई एक काम का निकलता है। बहुत मेहनत करनी होती है उनके साथ। मैंने 'बन्दिनी' के उनके लोकप्रिय गीत ‘मेरा गोरा रंग लेई ले’ को याद किया।

वे कहने लगे, इसके अलावा अपने पास कोई और योग्‍यता तो है भी नहीं। मैंने कहा, आप ऐसा क्‍यों कहते हैं। वे बोले, ठीक कह रहा हूं। अधिक से अधिक किसी अखबार या पत्रिका में संपादक की नौकरी मिलेगी। वह भी हिन्‍दी के संपादक की। अंग्रेजी भी इतनी नहीं आती। मैं उनकी बातें सुन रहा था। सोच रहा था यहां भी संघर्ष है, लेकिन कुछ अलग किस्‍म का।

बच्‍चों की फिल्‍मों की बात चली। वे बताने लगे, एक फिल्‍म अमोल पालेकर ने बनाई है, उसमें मैंने गीत लिखे हैं। पर उसे वितरक ही नहीं मिल रहे हैं। संभवत: उसका प्रदर्शन नवम्‍बर में हैदराबाद में हो रहे चिल्‍ड्रन फिल्‍म फेस्‍टीवल में होगा। चिल्‍ड्रन फिल्‍म सोसायटी ने एक समय अच्‍छा काम किया था। तब जया बच्‍चन उसकी अध्‍यक्ष थीं। सोसायटी को उन्‍होंने लगभग अपने पैरों पर खड़ा कर दिया था। फिल्‍में बनाने के लिए किसी अनुदान की जरूरत नहीं होती थी। दूरदर्शन पर भी उन्‍होंने हर हफ्ते बच्‍चों की फिल्‍म के लिए एक स्‍लाट तय करवाया था। उस पर विज्ञापन से जो पैसा आता था, उसी से फिल्‍म की कीमत निकल आती थी। लेकिन अभी सोसायटी जो फिल्‍में बनाती है वह घाटे में ही जाती हैं। इस पूरी बात से वे बहुत दुखी नजर आए। बातों बातों में ही उन्‍होंने कहा कि जया बहुत समझदार और प्रतिभाशाली महिला हैं। कई मामलों में वे अमिताभ जी को भी सलाह देती हैं। ऐसा कहते हुए उन्‍होंने हाथों से अपने कान छू लिए।

भारत भवन में रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर की अनूदित
 कविताओं का पाठ । फोटो : राजेश उत्‍साही 
गुलज़ार जी रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर की बांग्‍ला कविताओं का अनुवाद कर रहे हैं। ये कविताएं चकमक में प्रकाशित हो रही हैं। मैंने पूछा, यह भावानुवाद है या अनुवाद। उन्‍होंने कहा, पहली बात तो  यह शुद्ध अनुवाद है। मैं रवीन्‍द्रनाथ जी के लिखे हर शब्‍द या पंक्ति को ज्‍यों का त्‍यों अनुवाद कर रहा हूं। दूसरी बात यह है कि मैं मूल बांग्‍ला से अनुवाद कर रहा हूं। आमतौर पर रवीन्‍द्र साहित्‍य का अनुवाद अंग्रेजी में अनूदित रचनाओं से होता रहा है। संयोग से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर ने स्‍वयं किया है। और यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि वह कमजोर है। उसका कारण भी उन्‍होंने बताया। उन्‍होंने कहा कि 1930 के आसपास अंग्रेजी का मतलब था यूरोप और इंग्‍लैंड। उसके पाठक वहीं थे। तो रवीन्‍द्रनाथ जी ने अंग्रेजी अनुवाद करते समय ऐसे सब संदर्भ अपनी कविताओं से हटा दिए जो वहां के परिवेश से मेल नहीं खाते थे। ऐसे में जब उन कविताओं का अंग्रेजी से हिन्‍दी या अन्‍य किसी भाषा में अनुवाद हुआ तो वहां से भारतीय परिवेश गायब था। नतीजा यह कि वे अनुवाद बहुत प्रभावशाली नहीं बन पाए।

गुलज़ार जी इस बात से दुखी नजर आए कि कॉपीराइट के कारण रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर साठ सालों तक बहुत सीमित रहे। इससे भारतीय साहित्‍य का बड़ा नुकसान हुआ है। उनकी रचनाएं अगर कॉपीराइट से मुक्‍त होंती तो इनका लाभ बहुत पहले हमें मिल चुका होता।

मुझे भी उनकी बात में दम नजर आया। रवीन्‍द्रनाथ जी ने मेरा स्‍कूल नाम से 1930 के आसपास एक निबंध लिखा था, जिसमें उन्‍होंने शांतिनिकेतन में अपने स्‍कूल के बारे में विस्‍तार से लिखा है। उसे पढ़ते हुए लगता है कि बच्‍चों की शिक्षा को लेकर जो बातें उन्‍होंने उस समय कहीं थीं, उन्‍हें हम आज भी ज्‍यों का त्‍यों दोहरा रहे हैं। वे बातें आज भी उतनी ही मौजूं नजर आती हैं। तो क्‍या हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था ने रवीन्‍द्रनाथ से कुछ नहीं सीखा।

इस बीच हवाई जहाज में सशुल्‍क जलपान की सेवा शुरू हो गई थी। गुलज़ार जी ने फिर वही सवाल किया, क्‍या पिएंगे। उन्‍होंने क्रूबॉय से मीनू मांग लिया। तय किया कि चाय पी जाए। लेकिन चाय उपलब्‍ध नहीं थी। अंतत: तय हुआ कि मैंगो जूस पिया जाए। मैंने सोचा इस बार मुझे भुगतान मुझे करना चाहिए। गुलज़ार जी अपना पर्स निकालने के लिए कुर्सी पर तिरछे हुए। मैंने उनका हाथ पकड़कर रोकते हुए कहा, आप पर्स मत निकालिए, इस बार भुगतान मैं करूंगा। उन्‍होंने कहा, मैं बड़ा (आयु में) हूं, मैं ही भुगतान करूंगा। जब मैंने एक बार फिर प्रतिरोध किया तो बोले, जिद नहीं करते। आप भोपाल में भुगतान करिएगा। सचमुच इससे ज्‍यादा प्रतिरोध या जिद मैं उनके सामने नहीं कर सकता था। भुगतान उन्‍होंने ही किया। जूस टिन कैन में था। वे लगभग आधा मिनट तक उसे खोलने के लिए जूझते रहे। फिर धीरे से मेरी तरफ बढ़ाकर बोले, खोलिए ।

साहित्‍य की बातें फिर शुरू हुईं। मैंने पूछा रवीन्‍द्रनाथ की कविताओं के अनुवाद का कोई संकलन निकालने की योजना है। वे बोले हां है, एकलव्‍य से भी बात हुई थी। पर संभवत: अब वह रूपा प्रकाशन से आएगा। फिर वे कहने लगे रूपा, वाणी तथा राजकमल जैसे प्रकाशकों के साथ कुछ ऐसे रिश्‍ते बन गए हैं कि साल में एक-दो किताबें उनके लिए तैयार करनी ही पड़ती हैं। वे भी बहुत सम्‍मान के साथ छापते हैं। रवीन्‍द्रनाथ की कविताओं पर आधारित एक कैलेण्‍डर प्रकाशित करने का सुझाव वे एकलव्‍य को देना चाहते हैं।

मैंने उनसे कहा, वैसे तो आप चकमक के विमोचन के लिए ही जा रहे हैं। इसलिए यह थोड़ा अजीब सा सवाल है, चकमक को लेकर आपकी राय है। वे कहने लगे, असल में चकमक तो आज रेगिस्‍तान में नखलिस्‍तान की तरह है। हिन्‍दी में बच्‍चों की पत्रिकाओं के नाम पर सूखा पड़ा है। वास्‍तव में अधिकांश भारतीय भाषाओं का यही हाल है। हां बांग्‍ला,मलयालम में स्थिति सुखद है, मराठी में भी पत्रिकाएं निकल रही हैं। पर गुजराती, पंजाबी, उर्दू आदि में तो कुछ हो ही नहीं रहा है। ऐसे में आप लोगों ने चकमक के माध्‍यम से बड़ा काम किया है।

भारत भवन में फरहा और उसकी बिटिया के साथ
 फोटो - राजेश उत्‍साही 
आगे वाली सीट पर एक छोटी सी बच्‍ची थी लगभग साल भर की । वह अपनी मां और फिर शायद मौसी की गोद से पीछे की तरफ झांक रही थी। पहले तो वह हम लोगों को देखकर रोने लगी। फिर जब थोड़ी सहज हुई तो गुलज़ार जी उससे बतियाने लगे। जाहिर है यह बतियाना एक तरफा ही था। गुलज़ार जी ने पेपर नेपकीन को मोड़कर एक खिलौना सा बना‍ लिया। कुर्सियों के बीच से वे उसे उस बच्ची को पकड़ाते। बच्‍ची उसे लेकर दूसरी तरफ से वापस कर देती। बीच बीच में वे मुझ से भी बात करते जा रहे थे। इस बीच उन्‍हें अपनी बिटिया बोस्‍की यानी मेघना की याद भी आ गई। कहने लगे उसकी शादी हो गई है और उसका एक बेटा है अठारह महीने का। यह सब मैं उसके साथ भी करता ही रहता हूं।

उन्‍होंने पूछा मैं बंगलौर में आजकल क्‍या कर रहा हूं। मैंने अपने काम के बारे में बताया। अपने परिवार,एकलव्‍य में बिताए समय, चकमक के बारे में उनसे विस्‍तार से बात हुई। मैंने कहा कि 27 साल तक एकलव्‍य में काम करने के बाद मैंने यह निर्णय लिया कि यहां से बाहर निकलूं। उन्‍होंने मेरे इस निर्णय को सराहा और कहा, आपने बहुत अच्‍छा निर्णय लिया।

बाहर अंधेरा घिर आया था। उन्‍होंने घड़ी देखी। मुम्‍बई से उड़े हमें लगभग डेढ़ घंटा हो गया था। कहने लगे अभी पैंतालीस मिनट का सफर और है। उन्‍होंने चश्‍मा उतार कर कुर्ते की जेब में रख लिया और आंखें बंद कर लीं। कुर्सी पर पीछे टिक गए। मुझे लगा, उन्‍हें थोड़े विश्राम की जरूरत है। 

फिर बहुत ज्‍यादा बातचीत नहीं हुई। अभी तक मैंने अपने कैमरे का उपयोग नहीं किया था। मन हुआ कि अब यहां तो एक फोटो खींच लूं। पर फिर यही सोचकर रह गया कि अगले दो दिन भी साथ ही रहना है चकमक के कार्यक्रम में। बहुत मौके आएंगे। चकमक के वर्तमान संपादक सुशील शुक्‍ल गुलज़ार को लेने हवाई अड्डे पर आने वाले थे। गुलज़ार जी और मुझे एक ही गाड़ी में अपने गंतव्‍यों पर जाना था। आखिर वह समय भी आया जब गुलज़ार जी के साथ इस दुर्लभ हवाई यात्रा का समापन होने जा रहा था। हवाई जहाज भोपाल की जमीन पर उतरा। उसके साथ ही अपन भी अर्श से फर्श पर आ गए। यात्री उतरने की तैयारी करने लगे।

जिस बच्‍ची से गुलज़ार जी और मैं बतिया रहे थे, उसकी मां ने गुलज़ार जी से कहा, 'हम सब आपको बहुत पसंद करते हैं, आपके गीतों को। आपने सचमुच हम सबको बहुत कुछ दिया है। आप सालों तक ऐसे ही बने रहें, हमारी यही कामना है।' गुलज़ार जी ने सिर झुकाकर आभार व्‍यक्‍त किया। कहा कि यहां भी वे बच्‍चों के कार्यक्रम के लिए ही आए हैं। और फिर मेरी तरफ इशारा किया कि ये भी। मैंने लगे हाथ चकमक के आयोजन के बारे में जानकारी दी। यह अच्‍छी बात थी कि वे लोग चकमक के बारे में जानते थे। मैंने अनुरोध किया कि वे कार्यक्रम में आएं।

उनके मना करने के बावजूद मैंने उनकी स्‍ट्राली उठा ली और उनसे पहले ही हवाई जहाज से उतर गया। वे भी उतरे। हम फिर से बस में थे। यहां गुलज़ार को सामने पाकर एक और लड़की से रहा नहीं गया, उसने मुझे अपना मोबाइल देते हुए अनुरोध किया कि एक फोटो उतार दूं। 
बस से उतरे तो मुम्‍बई में मिले बुजुर्ग फिर से सामने थे। कहने लगे, गुलज़ार भाई, दिल तो बच्‍चा है जी। गुलज़ार मुस्‍कराए। सचमुच दिल तो बच्‍चा ही है, उसका मन ही नहीं भरता।                                                                                    
0 राजेश उत्‍साही 
                                                      

19 टिप्‍पणियां:

  1. उनके व्यक्तित्व के ये बालसुलः पक्ष उनकी रचनाओं में भी परिलक्षित होते हैं, काश हमारा भी भाग्य आपकी तरह चमके।

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  2. Sahi... Gulzaar Saheb aur GUl k saath aap aur aapka lekhan bhi chamacham chamakta hua :)

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  3. मुझे तो इस संस्मरण के माध्यम से दो-दो गुरुदेव की बातचीत एक साथ पढ़ने को मिल गयी!!

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  4. हम हीरो वरशिप करने वालों को दूर के ढोल बड़े सुहाने लगते हैं ।
    सेलेब्रिटी भी आखिर इन्सान ही होते हैं । और उनकी अपनी मजबूरियां भी होती हैं ।
    फिर भी , इतने बड़े गीतकार से रूबरू होना अपने आप में एक उपलब्धि है ।

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  5. अभूतपूर्व।
    दो सरल हृदय वालों का मिलन!
    संग्रहणीय।

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  6. मन तृप्त हो गया...
    अनमोल पोस्ट!!!

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  7. पहले भी कहा था अब फिर कह रहा हूँ " मुझे आपकी किस्मत पर रश्क है"

    नीरज

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  8. ऐसा मौका शायद फिर कभी मिले..... आपने वर्णन भी अच्छा किया है.... रविन्द्र नाथ जी ने अपनी रचनाओं का अनुवाद नहीं किया है बल्कि इनका transliteration किया था. ऐसा उन्होंने स्वयं किया था... गीतांजलि बंगला, अंग्रेजी और हिंदी में भाव के स्तर पर अलग अलग है... प्रायः साहित्य में ऐसा उदहारण कोई अन्य नहीं होगा...

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  9. आपके माध्यम से गुलज़ार जी के व्यक्तित्व के एक और पक्ष से रूबरू होने का अवसर मिला...

    आभार इस पोस्ट का...

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  10. पढ़ कर मन गुलज़ार हो गया!

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  11. किस्मत ने गढ़ा, यायावरी का यह दुर्लभ पन्ना।

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  12. दरख्‍त से छिटक कर बिखरे पत्‍तों के बीच उभरे अक्षर, रफ्ता-रफ्ता लेकिन पढ़ गए.

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  13. फिल्‍म का नाम बंद‍नी नहीं, 'बन्दिनी' शायद इस तरह लिखा जाता था.

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  14. शुक्रिया राहुल जी। मैंने बन्दिनी कर दिया है।
    *

    मैं देख रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से ऐसी चूक मुझसे बार बार हो रही है। थोड़ा सतर्क रहना पड़ेगा।

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  15. Guljarji ki yah mulakat hamen bhi baht achhi lagi.. sach koi hasti jab sahajtapurvak sabse milti hai to khushi duguni ho jaati hai... ..bahut achhi baaten padhne ko mili..bahut bahut aabhar.. India arur net se door abhi kathmandu men hun..

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  16. Rajesh Bhai,
    Sach kahu to padh ker aisa lag raha hai ki mano koi chalchitra aankho ke samne abhi abhi gujra ho......
    Bhoot sunder.......... badhayee

    Mahendra

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