इस बार जब भोपाल से
बंगलौर के लिए रवाना हुआ तो कुछ संयोग होते चले गए। एक सज्जन इटारसी से
भोपाल आए थे। साथ में उनकी पत्नी भी थीं। बंगलौर में लकड़ी का व्यवसाय करते हैं।
मुझे इटारसी के अपने एक पुराने मित्र नटवर पटेल की याद हो आई। उसके घर में भी
लकड़ी का व्यवसाय ही होता था। सज्जन कहने लगे कि, अरे वह तो हमारे पार्टनर ही
थे, कुछ साल वे बंगलौर भी आकर रहे। मैंने उनके हालचाल जानने की कोशिश की। बात आई गई हो गई।
हबीबगंज निकला ही था।
अभी अभी मैंने नीमा से फोन पर बात खत्म की थी। पांच मिनट बीते होंगे
कि प्रेम सक्सेना जी का फोन आ गया। भोपाल के बीएचईएल इलाके में रहने वाले प्रेम
सक्सेना और उनकी पत्नी शकुंतला जी से 2000 के आसपास मुलाकात हुई थी। वे अपनी
नातिन के पांचवे जन्मदिन पर नातिन की कही गई और शकुंतला जी द्वारा लिपिबद्ध की गई
कविताओं को पुस्तकाकार में छपवाना चाहते थे। पुस्तक छपी भी। यह पूरी कहानी आप एक जन्मदिन ऐसा भी पर पढ़ सकते हैं। तब से वे लगातार सम्पर्क में रहे आए हैं। हालचाल पूछते
रहते हैं। मेरी पत्नी नीमा को वे बेटी की तरह मानते हैं।
अगस्त में छोटे
बेटे उत्सव ने जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लिया है। कुछ दिन वह एक
प्राइवेट होस्टल में था। लेकिन उसे होस्टल कुछ जमा नहीं। बीमार हो गया। अंतत: किराए का घर लेकर उसके आवास की व्यवस्था की है। मैं यही सब इंतजाम
करके बंगलौर लौट रहा था। जबलपुर जाने से पहले प्रेम सक्सेना जी से बातचीत हुई थी।
वहां से लौटा तो उनसे बात नहीं हो पाई थी। प्रेम सक्सेना स्वयं गीतकार हैं, फिल्मों
के लिए भी उन्होंने गीत लिखे हैं। शकुंतला जी भी कविताएं, लेख आदि लिखती हैं। किसी
बेव पत्रिका के संचालक ने उनसे उनके लेख मांगे हैं। प्रेम जी फोन पर पूछ रहे थे कि
क्या करें। उन्हें लेख आदि दें या नहीं। वहां से कोई और इस्तेमाल कर
लेगा, इस बात की कितनी संभावना है। मैं उन्हें कह रहा था, असल में इंटरनेट
पर तो यह सब अब आम बात है। मेरे ब्लाग गुलमोहर पर मेरी कविताएं हैं। मैंने कभी इस
बात की चिंता नहीं की। बस ऐसी ही कुछ और बातचीत हुई। फिर ट्रेन ने रफ्तार पकड़
ली और फोन ने नेटवर्क छोड़ दिया। फोन बंद हो गया।
आप कविताएं लिखते हैं। सम्पर्क क्रांति एक्सप्रेस
के कोच एस-6 के 6वें कूपे में सामने की बर्थ पर बैठे एक नवयुवक ने यह सवाल मेरी तरफ
उछाल दिया। मैंने मुस्कराते हुए कहा, हां।
उसका अगला वाक्य और
चौंकाने वाला था, तो सुनाइए।
मैंने अपने को
संभाला, फिर कहा, मैं सुनाने वाली नहीं, पढ़ने वाली कविताएं लिखता हूं। फिर थोड़ा
अपने को और संभाला। कहा, असल में मुझे कविताएं याद नहीं रहतीं। मेरे पास लैपटॉप था।
संयोग से उसमें बैटरी भी इतनी थी कि मैं उसमें से कविताएं पढ़कर सुना सकता था।
मैंने लैपटॉप खोला। दो-तीन कविताएं पढ़कर सुनाईं। कुछ उसने खुद पढ़ीं। अब तक
आजबाजू वाले लोग भी इस तरफ आकर्षित हो गए थे। वे भी पढ़ने लगे। मेरी कविताओं में रुचि जाहिर करने वाले का नाम था अभिषेक। भोपाल का ही रहने वाला है और हैदराबाद में
नौकरी करता है। दिवाली मनाकर लौट रहा था। लैपटॉप पर गुलजार जी के साथ के फोटो भी
दिखाए। और अपने ब्लाग भी। अभिषेक कहने लगा, आज का दिन तो बहुत अच्छा है। मैंने
पूछा, भला क्यों। कहने लगा, आपसे मुलाकात जो हो गई है।
लकड़ी व्यवसायी
सज्जन ने पूछ लिया, किस नाम से लिखते हैं आप। मैंने कहा, राजेश उत्साही। और फिर
मैंने जोड़ा, असल में नटवर पटेल से भी मेरी दोस्ती इसीलिए हुई थी। वे भी कविताएं
लिखते थे और उनके नाम में भी उत्साही था। वे कहने लगे, अरे मैंने तो आपको पढ़ा है।
और फिर कहने लगे, मैं भी कवि हूं। मैंने नाम पूछा, बोले, जीवराज पटेल। नाम मुझे भी कुछ
पढ़ा-पढ़ा सा लगा। और फिर तो जो परिचय का सिलसिला निकला तो फिर ऊन के गोले की तरह निकलता चला गया। अस्सी
के दशक में हम लोगों ने अखबारों में लिखना शुरू किया था। उस समय आज का दैनिक भास्कर
इतना लोकप्रिय नहीं था। पर लोकप्रिय होने की शुरूआत कर रहा था। नए लिखने वालों को
लगातार जगह दे रहा था। जीवराज जी और मैं उसी दौर से थे।
मयंक |
बातचीत में
झांसी से आ रहे एक और सज्जन शामिल हो गए। नाम था नवीन चतुर्वेदी। वे भी हैदराबाद
ही जा रहे थे। खादी के कपड़ों के सप्लायर हैं। वे भी साहित्य के प्रेमी जान पड़े।
पिछले दिनों ही उन्होंने किसी कवि सम्मेलन में एक ओजस्वी कविता सुनी थी, वह उन्हें
याद भी थी। उन्होंने सुना डाली। इंदौर से बंगलौर वापस जा रहे एमबीए के छात्र मयंक
भी हमारी बातों में दिलचस्पी लेने लगे थे। इस बीच मैंने चकमक का तीन सौ वां अंक भी निकाल लिया था।
वह भी सबके आकर्षण का केन्द्र बन गया। सबने पूछा इसे किस तरह प्राप्त किया जा
सकता है। उसे मंगवाने का पता नोट किया। मैंने अपने ब्लागों के पते भी उन्हें
दिए।
ट्रेन शाम पांच बजे
भोपाल से चली थी। रात के खाने का समय हो गया था। अभिषेक और मयंक बारी-बारी से ऊपर
की बर्थ पर जाकर अपना भोजन कर चुके थे। जीवराज जी और उनकी पत्नी प्रमिला जी ने भी
अपना गुजराती खाना निकाला और आग्रह किया कि मैं उनके साथ खाऊं। असल में तो वे सबको
ही आमंत्रित कर रहे थे। नवीन जी और मैंने विनम्रता पूर्वक उन्हें मना किया। मैं
घर से दाल-बाटी खाकर चला था, इसलिए बहुत भूख लग नहीं रही थी। नीमा ने बाटी से बने
लड्डू साथ रख दिए थे। सोचा सोते समय वही एकाध खा लूंगा। थोड़ा समय बीता तो अब बारी
नवीन जी की थी। उन्होंने साधिकार मुझे खाने के लिए
आमंत्रित ही नहीं किया बल्कि खाना निकालकर मेरे हाथ में रख दिया। कहने लगे, अब आपको
मेरा साथ तो देना ही पडे़गा।
जीवराज जी के पास एक
ही बर्थ थी। वह भी मिडिल। मेरी बर्थ नीचे वाली थी। मैंने कहा मिडिल बर्थ मैं ले
लेता हूं। आप दोनों नीचे वाली बर्थ पर लेट जाएं। जीवराज और प्रमिला जी ने मेरा
सुझाव मान लिया। लगभग आधा घंटा तो यह प्रयास करते रहे किया कि उस बर्थ पर
दोनों लेट पाएं। फिर उन्हें समझ आया कि इस तरह रात नहीं कटेगी। जीवराज जी ने
प्रमिला जी से कहा आप आराम से सोओ। और वे खुद बर्थ के बीच फर्श पर अखबार बिछाकर
खर्राटे भरने लगे।
नवीन जी और अभिषेक
सुबह काचीगुड़ा में उतर गए। ट्रेन यहां लगभग आधा घंटा खड़ी रही। प्रमिला जी का
मायका हैदराबाद में ही है। उनके भाई साहब ताजा नाश्ता लेकर आए थे। इस बार कोई बहाना नहीं था, तो नाश्ते में हिस्सेदारी करनी
पड़ी। अभी बंगलौर दिन भर दूर था। समय तो काटना ही था। जीवराज जी से चर्चा शुरू हुई
। वे इटारसी के देशबंधुपुरा में रहे हैं। कुछ समय मैं भी देशबंधुपुरा में रहा हूं।
तो इटारसी के मोहल्ले,गलियां और भूले बिसरे लोगों की चर्चा जीवराज जी से होती
रही। दोपहर के खाने का समय हुआ, तो उनका खाने का थैला खुला। उनके साथ ही मैंने भी
खाया। खाने के बाद प्रमिला जी ने थैले से दो अमरूद निकाले। बताया कि पच्चीस साल
पहले इटारसी में उन्होंने जो पेड़ अपने हाथों से लगाया था, ये उस पेड़ के हैं।
पिछले लगभग पच्चीस
साल से जीवराज जी का परिवार बंगलौर में है। यहां केआरपुरम् इलाके में उनकी लकड़ी
की दुकान है। वे अब यहीं बस गए हैं। साहित्य से अभी भी उनका जुड़ाव है। केआरपुरम्
इलाके में हिन्दी भाषी लोगों की एक संस्था उन्होंने बनाई है। महीने में किसी एक
रविवार को वे सब एकत्रित होते हैं। हमारे बीच फोन नंबरों का आदान-प्रदान हुआ। उन्होंने
मुझसे मिलने का वादा लिया।
ट्रेन अपने गंतव्य यानी यशवंतपुर,बंगलौर में रात को नौ बजे पूरे दो घंटे लेट आई थी। ट्रेन से उतरकर हम लोग बंगलौर के कंक्रीट जंगल में खो गए। हां जीवराज जी बीच-बीच में फोन करते रहते हैं।
0 राजेश उत्साही
0 राजेश उत्साही
यादगार यात्रा रही।
जवाब देंहटाएंट्रेनयात्रा मुझे सदा ही संभावना का पिटारा लगती है।
जवाब देंहटाएं,RAESHJI,
जवाब देंहटाएंAAPNE NATAVAR PATEL KI YAAD DILA DI.
YE MERE PATR MITR RAHE HAI.
AB PATA NAHI VE KAHA HAI KYA KAR RAHE HAI.
UDAY TAMHANEY
BHOPAL.
W±±±±±±±±±±±±±±±±¢¢¢¢¢¢¢¢±±±±±±±±±±±±±±±±¢¢¢¢¢¢¢¢±±±±±±±±±±±±±±±±¢¢¢¢¢¢¢¢±±±±±±±±±±±±±±±±¢¢¢¢¢¢¢¢±±±±±±±±±±±±±±±±¢¢¢¢¢¢¢¢±±±±±±±±±±±±±±±±¢¢¢¢¢¢¢¢,,, ,,x=191
,RAESHJI,
जवाब देंहटाएंAAPNE NATAVAR PATEL KI YAAD DILA DI.
YE MERE PATR MITR RAHE HAI.
AB PATA NAHI VE KAHA HAI KYA KAR RAHE HAI.
UDAY TAMHANEY
BHOPAL.
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सम्पर्क क्रांति में सम्पर्क की यात्रा का वृतांत पढना बहुत अच्छा लगा.. यह तो बहुत ही अच्छी और संयोग की बात रही की आपको साहित्य प्रेमी मिल गए और आपका सफ़र सुहाना हो गया ....सच तो यही है की मिलनसार स्वभाव वाली व्यक्ति सब जगह फिट हो जाते है .... मैं भी अभी १० दिन काठमांडू होकर लौटी हूँ ..अभी ८ दिन हो गए है लेकिन यात्रा वृतांत ब्लॉग पर लिखने के लिए समय ही नहीं निकल पा रही हूँ ..सच तो यह है की घर दफ्तर में फिर उसी ढर्रे पर जिंदगी लौट आयी है... थोडा थोडा लिखने की कोशिश करती हूँ कुछ फोटो भी है.. देखिये कब तब कामयाब हो पाती हूँ....
जवाब देंहटाएंआपका यात्रा वृतांत पढ़कर लिखने की उत्कंठा जागने लगी है....सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार!
मुझे हर बार यही लगता है कि भाषा की या कहूँ कि अभिव्यक्ति की सहजता मुझे आपसे सीखनी चाहिए। आप न केवल काव्याभिव्यक्ति में बल्कि गद्याभिव्यक्ति में भी सहज रहते हैं। 'संपर्क क्रांति में संपर्क' भी इसका प्रमाण है।
जवाब देंहटाएंरोचक रही रेल यात्रा। दुनिया वाकई बहुत छोटी है।
जवाब देंहटाएंमजेदार और यादगार रही आपकी रेल यात्रा..
जवाब देंहटाएंकुछ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ, जब दिवाली के अवसर पर घर जा रहा था..संघमित्रा एक्सप्रेस से,
वी.आई.टी के फाइनल इअर इंजीनियरिंग के तीन छात्र चढ़े ट्रेन पर..शुरू शुरू में तो बात हुई नहीं, लेकिन शाम के समय मेरी बहन का फोन आया और कुछ ब्लॉग के सम्बन्ध में बात हुई(कुछ दिन पहले एक ब्लॉग पोस्ट छपा था अखबार में उसी सम्बन्ध में)..
तो पास ही बैठे उस लड़के ने पूछा..'आप जर्नलिस्ट हैं क्या',
मैंने कहा 'नहीं', ब्लॉग लिखता हूँ...
उसे सबसे ज्यादा उत्सुकता तब हुई जब मैंने बताया की मेरा एक ब्लॉग है जिसमे कार के बारे में जाकारियां रहती हैं...फिर बहुत बातें हुई, उसने मेरे ब्लॉग का लिंक और मेरा ई-मेल भी ले लिया..और फिर घर पहुंचा तो देखा की उसका फेसबुक पर फ्रेंड-रिक्वेस्ट भी आया हुआ है!!
:)
abhi ने टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंमजेदार और यादगार रही आपकी रेल यात्रा..
कुछ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ, जब दिवाली के अवसर पर घर जा रहा था..संघमित्रा एक्सप्रेस से,
वी.आई.टी के फाइनल इअर इंजीनियरिंग के तीन छात्र चढ़े ट्रेन पर..शुरू शुरू में तो बात हुई नहीं, लेकिन शाम के समय मेरी बहन का फोन आया और कुछ ब्लॉग के सम्बन्ध में बात हुई(कुछ दिन पहले एक ब्लॉग पोस्ट छपा था अखबार में उसी सम्बन्ध में)..
तो पास ही बैठे उस लड़के ने पूछा..'आप जर्नलिस्ट हैं क्या',
मैंने कहा 'नहीं', ब्लॉग लिखता हूँ...
उसे सबसे ज्यादा उत्सुकता तब हुई जब मैंने बताया की मेरा एक ब्लॉग है जिसमे कार के बारे में जाकारियां रहती हैं...फिर बहुत बातें हुई, उसने मेरे ब्लॉग का लिंक और मेरा ई-मेल भी ले लिया..और फिर घर पहुंचा तो देखा की उसका फेसबुक पर फ्रेंड-रिक्वेस्ट भी आया हुआ है!!
:)
रोचक रही रेल यात्रा।
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