रविवार, 1 अप्रैल 2012

रोहतक में दो दिन


16 मार्च की सुबह जब घर से निकला तो पता नहीं था कि मैं घर में एक हादसे की नींव रखकर जा रहा हूं। और यह भी पता नहीं था कि यात्रा इतनी सुखद होगी कि भुलाए नहीं भूलेगी। हादसे का बयान गुल्‍लक पर कर चुका हूं।
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रोहतक जाने के लिए निकला था। उड़कर दोपहर एक बजे दिल्‍ली पहुंचना था। वहां रमणीक मोहन इंतजार कर रहे थे। दोपहर 2 बजे जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में आनंद पटवर्धन की फिल्‍म 'जय भीम, कॉमरेड' की स्‍क्रीनिंग थी। तय हुआ था कि फिल्‍म देखी जाए। रमणीक जी और मैं लगभग आधा घंटे तक जेएनयू की परिक्रमा करने के बाद कोई तीन बजे उसके कन्‍वेंशन हाल में पहुंचे। फिल्‍म शुरू हुए आधा घंटा हो चुका था। हॉल खचाखच भरा था। दर्शक बीच की सीढि़यों पर बैठे थे, कुछ पीछे दीवार से सटकर खड़े थे। हम भी उनमें शामिल हो गए। फिल्‍म दो भागों में है और दलित विमर्श के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्‍म के फुटेज मराठी में  थे और सबटाइटिल अंग्रेजी में, जिन्‍हें जल्‍दी-जल्‍दी पढ़ पाना कम से कम मेरे लिए तो मुश्किल था। बहरहाल, जितना समझ पाया, उससे यह धारणा बनी कि अम्‍बेडकर भी अब राजनीतिक पार्टियों के लिए एक मुद्दा बन गए हैं। हर राजनीतिक दल उनके नाम के सहारे वोट पाना चाहता है। अम्‍बेडकर की व्‍याख्‍या लोग अपनी अपनी समझ के अनुसार करते हैं। उनके कट्टर अनुयायी भी हैं और भगवान की तरह मानने वाले अंधभक्‍त भी। फिल्‍म के बाद आनंद पटवर्धन ने सवालों के जवाब भी दिए। लंबे-लंबे सवालों के लंबे-लंबे जवाब। समय की कमी के कारण इस सत्र में अंत तक बैठे रहना हमारे लिए संभव नहीं था, इसलिए हम वहां से निकल लिए। मेरे लिए यह अवसर दो कारणों से महत्वपूर्ण रहा। पहला तो यह कि फिल्‍म देख पाया और दूसरा यह कि जेएनयू जाने का यह पहला मौका था। दिल्‍ली से निकले तो हमारे साथ राजेन्‍द्र चौधरी भी थे, रमणीक जी के मित्र। वे भी फिल्‍म देखने ही आए थे खासतौर पर रोहतक से। 
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रात दस बजे रोहतक पहुंचे। रमणीक जी के घर पर श्रीमती किरण  खाने के साथ हमारा इंतजार कर रही थीं। मुझे रमणीक जी के घर में ही रहना था दो दिन। मैंने बंगलौर से निकलते समय अनुरोध किया था कि कहीं किसी होटल में मेरी बुकिंग करवा दें। जवाब में उन्‍होंने कहा था, ‘क्‍यों होटल क्‍यों, आप मेरे घर में रहेंगे।'  उनके कहने का अंदाज कुछ ऐसा था जैसे कह रहे हों कि होटल में रहना हो तो फिर रोहतक मत आइए। मुझे रमणीक जी ने अपना स्‍टडी रूम दे दिया था। वहां एक पलंग भी था। मैं यात्रा में दो चादर साथ लेकर चलता हूं, एक बिछाने के लिए और एक ओढ़ने के लिए। मैंने रमणीक जी से कहा, अगर इस पर मैं अपनी चादर बिछा लूं तो कोई एतराज तो नहीं होगा। वे अपनी फ्रेंचकट दाढ़ी के बीच से बस मुस्‍करा दिए।
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जल्‍दी करते-करते भी रात का एक बजे ही गया था। अगली सुबह समालखा के रास्‍ते पर थे। मैंने नोटिस किया कि सड़क किनारे  बस की प्रतीक्षा करतीं कुछ महिलाएं और लड़कियां दुप्‍पटे से अपने सिर सहित, अपने चेहरे को भी ढके हुई थीं, लगभग घूंघट के अंदाज में। उन्‍हें देखकर हरियाणा की खाप पंचायतों के बारे में सुनी -पढ़ी बातें याद आती रहीं। सुकून की बात यह थी कि वे घर से बाहर तो निकल रहीं थीं।

समालखा में भारत ज्ञानविज्ञान समिति द्वारा संचालित जीवनशाला के बच्‍चों और अध्‍यापकों से मिलना था। 1990 के दशक में हरियाणा का पानीपत जिला साक्षरता अभियान के लिए देश भर में मशहूर था। वहां इस अभियान को पानीपत की चौथी लड़ाई का नाम दिया गया था। पानीपत के अभियान ने हरियाणा के अन्‍य जिलों को भी प्रभावित किया था। 1997 के आसपास भारत ज्ञानविज्ञान ने जीवनशाला की नींव डाली। इन शालाओं में वे बच्‍चे पढ़ने आते थे, जो किसी कारण विशेष से सरकारी स्‍कूलों से बाहर आ गए थे, या बाहर रह गए थे। उद्देश्‍य था इन बच्‍चों को एक-दो साल की तैयारी के बाद पुन: सरकारी स्‍कूलों में भेजना। जीवनशालाएं सफल हुईं। लेकिन आंदोलन का रूप नहीं ले पाईं। समालखा विकासखंड में दो जीवनशालाएं अब भी चल रही हैं। हालांकि इनकी स्थिति बहुत अच्‍छी नहीं है। समालखा के पास हथवाला में गांव की चौपाल में 40 बच्‍चे और दो अध्‍यापक जीवनशाला में हमें मिले। उनका उत्‍साह देखते ही बनता था। बच्‍चे और अध्‍यापक दोनों ही हमारी उपस्थिति के बावजूद सहज थे। बच्‍चों से बातचीत हुई, अध्‍यापकों से भी। यहां की जीवनशाला शहीद वीरेन्‍द्र स्‍मारक समिति द्वारा संचालित की जाती है। वीरेन्‍द्र साक्षरता अभियान के सक्रिय कार्यकर्त्‍ता थे। 1992 में एक टैंकर में लगी आग से लोगों को बचाते हुए वे शहीद हो गए थे।

उनकी याद में एक पुस्‍तकालय भी संचालित किया जाता है। हम उस पुस्‍तकालय में भी गए और उसके कुछ सक्रिय पाठकों से भी मिले। मैंने अपने कविता संग्रह ‘वह, जो शेष है’ कि एक प्रति पुस्‍तकालय को भेंट की।
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दोपहर बाद हम समालखा में थे केन्‍द्रीय जीवनशाला में। यह अब जीवंत नहीं है यानी अब यहां कोई शाला नहीं चल रही है। यद्यपि बच्‍चे अभी भी यहां रहते हैं, पर वे पढ़ने सरकारी स्‍कूल या कॉलेज में जाते हैं। यहां से पढ़कर बाहर निकले 18 युवक-युवतियां एकत्रित हुए थे। उनमें से हरेक की कहानी अपने आप में एक अनुभव था। एक युवती और एक युवक अपना अनुभव सुनाते-सुनाते भावावेश में रो पड़े। इसे भी वीरेन्‍द्र स्‍मारक समिति संचालित करती है। इसके कार्यकर्त्‍ता अभी भी इस कोशिश में लगे हैं कि इस फिर से शुरू किया जाए। यहां भी एक पुस्‍तकालय संचालित है। अपने संग्रह की एक प्रति मैंने यहां भी भेंट की।
18 मार्च को रोहतक में ‘सर्च’ राज्‍य संसाधन केन्‍द्र, हरियाणा में शिक्षकों के साथ बैठक थी। शाम को रमणीक जी के घर उनके परिचितों की एक बैठक थी। पिछले कुछ समय से रमणीक जी और उनके मित्र सांस्‍कृतिक समारोह का आयोजन कर रहे हैं, जिसमें पाकिस्‍तान के लेखकों,संगीतकारों तथा अन्‍य संस्‍कृतिकर्मियों को आमंत्रित करते हैं। इस आयोजन को बहुत अच्‍छा प्रतिसाद मिला है। अभी तक यह आयोजन व्‍यक्तिगत प्रयासों से होता रहा है। विचार बना है कि इसके लिए एक संस्‍था का गठन किया जाए ताकि आयोजन और व्‍यवस्थित रूप से हो सके। बैठक इसी सिलसिले में थी। रमणीक जी ने बैठक के अंत में मेरी कविताओं का पाठ भी रख दिया था। और कहा था कि बैठक में मुझे भी मौजूद रहना ही है।

बैठक में लगभग 10-12 लोग थे। संस्‍था का नाम क्‍या हो, काम का दायरा कितना बड़ा होगा,किस तरह के आयोजन होंगे आदि आदि सवालों पर गर्मागर्म बहस हुई। कुछ नतीजे भी निकले। बैठक घर पर ही थी, सो जलपान की व्‍यवस्‍था किरण जी ने संभाल रखी थी। वह अबाध रूप से जारी रही। हां,कुछ बैठक में मौजूद कुछ साथी मदद के लिए जरूर आगे आ गए।
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बाएं से दुष्‍यंत,सतीश जी,महावीर शर्मा,रमणीक मोहन और
राजेन्‍्द्र  चौधरी 
बैठक के बाद मेरा कविता पाठ शुरू हुआ। संग्रह प्रकाशित होने के बाद यह दूसरा कविता पाठ था। पहला बंगलौर में ही होली की रात को हुआ था, बहुत ही अनौपचारिक रूप से आसपड़ोस के मित्रों के बीच। यह भी हालांकि अनौपचारिक था, पर पहले से घोषित। बैठक में मौजूद कुछ साथियों के पास मेरा यह संग्रह रमणीक जी के माध्‍यम से पहले ही पहुंच चुका था। इनमें से एक परविन्‍दर जी ने मुझे एक रात लगभग 11 बजे फोन करके संग्रह की पहली ही कविता ‘चुप्‍पी‘ पर बधाई दी थी।

मैंने संग्रह से कुछ आठ दस कविताएं पढ़ीं। बहुत ध्‍यानपूर्वक सबने सुनीं। कुछ प्रतिक्रियाएं भी आईं। ‘नूर मोहम्‍मद और उसका घोड़ा’ पढ़ते हुए मैंने कहा कि मुझे यह राजनीतिक व्‍यवस्‍था पर एक टिप्‍पणी की तरह लगती है। राजेन्‍द्र चौधरी ने कहा, उन्‍हें ऐसा नहीं लगा। रमणीक मोहन ने इस कविता को सुनते हुए चेखव की एक कहानी और अमेरिका के राष्‍ट्रकवि रॉबर्ट फ्रॉस्‍ट की कविता 'द वुड्स आर लवली डार्क एण्‍ड डीप' को याद किया।   

युगश्री और सुरेखा 
‘तुम अपने द्वार पर लगे’ कविता पढ़ी तो सुरेखा, जो स्‍वयं कवियत्री हैं, ने कहा कि उन्‍होंने कविता का अंत कुछ इस तरह सोचा था कि कवि कहेगा, कभी अपनी फ्रिक भी कर लिया करो। अंत में महावीर शर्मा जी ने भी अपनी एक कविता सुनाई।

अविनाश ने कहा, कि असल में तो राजेश जी की कविताएं सुनने की नहीं पढ़ने की और एकांत में लौटलौटकर पढ़ने की कविताएं हैं। प्रमोद गौरी ने एक कुशल समीक्षक की तरह कविताओं पर टिप्‍पणी करते हुए कहा कि राजेश की कविताओं में जनचेतना और अपने परिवेश को सूक्ष्‍मता से देखने का माद्दा है। युगश्री, जो चित्रकार हैं ,की टिप्‍पणी थी कि कविताएं बहुत सरल और सहज हैं। एक अन्‍य चित्रकार दुष्‍यंत ने उनकी बात का समर्थन किया। राजेन्‍द्र चौधरी ने अनौपचारिक बातचीत में कहा‍ कि उन्‍हें कविता में बहुत अधिक रूचि नहीं है। पर संग्रह की नीमा कविता वे पूरी पढ़ गए। इस कविता को पढ़कर किरण जी का एक स्‍वाभाविक सवाल था रमणीक जी से, कि आप कब लिख रहे हैं मुझ पर ऐसी कविता। 

कुल मिलाकर मेरे लिए रोहतक की यह यात्रा और आयोजन बहुत आत्‍मीय रहा। वर्षों बाद मैंने इतने साथियों के सामने बैठकर अपनी कविताएं सुनाईं थीं। संग्रह मेरे हाथ में था।

किरण और रमणीक जी के साथ दो दिन का यह प्रवास मेरे लिए अपने घर में किए प्रवास से किसी भी रूप में कम नहीं था। मुझे यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं कहीं और हूं। एक बार फिर से यह कहने का मन है कि घर से दूर एक घर। 
                      0 राजेश उत्‍साही 

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