जबलपुर 23 मार्च,2012 को दोपहर पहुंचा था। पूरे तीन महीने बाद बेटे,पत्नी और मां से मिलना हुआ। मिलना भी क्या बस ऐसा लगा जैसे मैं कोई मेहमान हूं। अगले दिन फिर निकल जाना था, दोपहर चार बजे गोंडवाना
एक्सप्रेस से दिल्ली। 24 की सुबह भागमभाग से शुरू हुई। उत्सव को एक फोल्डिंग टेबिल चाहिए थी। उसने कहा
आप हैं तो साथ चलिए, खरीद लाते हैं। पास ही एक फर्नीचर की दुकान थी, सोचा आधा
घंटे में वापस आ जाएंगे। वहां नहीं मिली। पर दुकानदार ने कुछ और दुकानों के नाम
बता दिए।
मोटरसाइकिल पर बैठकर जबलपुर के बाजार चक्कर लगाया। आखिरकार टेबिल खरीदकर ही वापस लौटे। जल्दी-जल्दी खाना खाया। अम्मां और नीमा से विदा लेकर मोटरसाइकिल पर ही स्टेशन की ओर रवाना हुआ। ट्रेन छूटने का समय हो गया था, इसलिए उत्सव को स्टेशन के बाहर से ही रवाना कर दिया।
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मोटरसाइकिल पर बैठकर जबलपुर के बाजार चक्कर लगाया। आखिरकार टेबिल खरीदकर ही वापस लौटे। जल्दी-जल्दी खाना खाया। अम्मां और नीमा से विदा लेकर मोटरसाइकिल पर ही स्टेशन की ओर रवाना हुआ। ट्रेन छूटने का समय हो गया था, इसलिए उत्सव को स्टेशन के बाहर से ही रवाना कर दिया।
दौड़ते-भागते एस-2 में पहुंचा।
पुरानी डिजायन के कंपार्टमेंट में साइड बर्थ नम्बर 72 थी। सामान आदि रखकर सुकून
से बैठने का उपक्रम करने लगा। लेकिन ट्रेन के चलते ही यह सुकून जाता रहा। ट्रेन
में सुरक्षा के लिए नियुक्त दो बंदूकधारी आते ही बोले, ‘यह सीट खाली कर दीजिए।’
मैंने कहा, ‘इस पर मेरा आरक्षण है।’
वे बोले,
‘अच्छा ठीक है जरा इसको फैलाइए, 71 नम्बर
हमारी है। ’
मतलब आप मुंह अंदर करके पैर लटकाकर बैठिए और आने जाने
वालों की ठोकर खाइए। लेकिन कोई विकल्प भी नहीं था। थोड़ी देर बाद मैंने ऊपर जाकर
अपनी बर्थ पर लेट जाना ही बेहतर समझा। मेरे ऊपर जाते ही वे दोनों भी वहां एक-दूसरे
के सिर की तरफ पैर करके लम्बलेट हो गए। लगभग घंटे भर बाद देखा तो दोनों वहां से गायब
थे।
नींद नहीं आ रही थी, इसलिए मैं नीचे उतरकर अपनी सीट
पर बैठ गया। अभी मुश्किल से पंद्रह मिनट ही हुए होंगे कि अबकी बार दो नहीं, तीन
नए बंदूकधारी अवतरित हुए। और फिर वही सवाल जवाब।
मैंने कहा, ‘72 नम्बर सीट मेरी है। आप अपनी सीट
संभालिए। ’
मैं पालथी मारकर बैठ गया। पर पालथी मारकर कितनी देर बैठा जा सकता है। मैंने फिर से ऊपर का रुख किया। घर से चलते
समय नीमा ने आलू के पराठे और परनपूरी रख दी थीं। खाकर, बोतल का गर्म पानी हलक से
उतारा और अगले दिन होने वाली मुलाकात के सपने देखता हुआ अपनी बर्थ पर लुढ़क गया।
ट्रेन सुबह सात पैंतीस पर मुझे हजरत निजामुद्दीन पहुंचाने वाली थी।
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पांच मार्च को उदयपुर से दिल्ली होते हुए बंगलौर
लौट रहा था। दिल्ली हवाई अड्डे पर अरुण रॉय को फोन लगाया। बताया कि शहर
में हूं, पर मिल नहीं सकूंगा। वे लगभग नाराज होते हुए बोले इससे तो अच्छा था कि
फोन ही नहीं करते। या फिर पहले बताते तो हम वहीं मुलाकात के लिए आ जाते। मैंने
वादा किया कि अगली बार समय रहते सूचना दूंगा। सलिल को फोन लगाया तो वे अस्पताल
में थे, उनसे भी कुछ इसी तरह की बात हुई।
कुछ संयोग ऐसा हुआ कि मार्च में ही फिर से दिल्ली
की तरफ जाने का कार्यक्रम बना। मैंने लगभग एक हफ्ते पहले ही मेल से सूचना दे दी कि
मैं 25 मार्च की सुबह दिल्ली पहुंच रहा हूं। शाम को बंगलौर वापसी है। आप सबसे
मिलना चाहता हूं।
किताबें जो भेंट में मिलीं,दीं |
लौटती मेल से अरुण का जवाब आया, वे मुझे
निजामुउद्दीन स्टेशन पर लेने पहुंच जाएंगे। बलराम जी ने तुरंत फोन करके कुछ ब्लागर
मित्रों को यह खबर दी। साथ ही तय किया कि कनाटप्लेस के पास कॉफी होम में दिन
में लगभग 12 बजे एक छोटी-सी मुलाकात होगी। उन्होंने नुक्कड़ पर भी एक पोस्ट
लगा दी। पर जैसा कि अक्सर होता है पोस्ट दो घंटे बाद नेपथ्य में चली गई। जो लोग देख पाए उनमें
अविनाश वाचस्पति,वेद व्यथित, अवंति सिंह और वंदना गुप्ता ने वहां लिखा कि वे
आने का प्रयत्न करेंगे। सलिल जी का मेल आ गया, उनका वादा था कि कुछ भी करके वे जरूर
मिलेंगे उस दिन।
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25 मार्च की सुबह जब बाहर उजाला फैलने लगा तो लगा कि अब दिल्ली
दूर नहीं है। नित्यकर्म से निवृत हुआ। गनीमत थी कि ट्रेन में पानी उपलब्ध
था। हम बोतलबंद पानी की चाहे जितनी आलोचना करें, ट्रेन में वह बहुत उपयोगी होता
है। पहली बात तो पीने के लिए भी आसानी से उपलब्ध हो जाता है। दूसरे बोतल खाली
होने पर शौचालय में काम देती है, अन्यथा वहां बिना किसी लोटे या मग्गे के निवृत
होना अपने आप में एक चुनौती होता है।
दाएं-बाएं पूछने पर पता चला कि ट्रेन लेट चल रही है।
और आठ बजे के बाद ही पहुंचेगी। पलवल निकलने के बाद ट्रेन किसी स्टेशन के आउटर
सिग्नल पर लगभग घंटे भर खड़ी रही।
इस बीच बलराम जी का फोन आ गया। वे अपने घर से तड़के
ही निकल चुके थे। उन्होंने कहा सराय काले खां की तरफ वे मेरी प्रतीक्षा करेंगे।
कुछ समय बाद अरुण का फोन भी आ गया। वे भी स्टेशन पहुंच रहे हैं। ट्रेन लगभग पौने
नौ बजे पहुंची। हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से मेरी पुरानी पहचान है। मैं अपने बैग
कंधे पर लटकाकर सराय काले खां की तरफ जाने वाले डगडगे पर बढ़ गया-आटो और टैक्सी
वालों को ना में सिर हिलाते हुए।
बाहर पहुंचा तो बलराम जी मुझे दूर-दूर तक नजर नहीं
आए। फोन मिलाया तो वे बोले मैं तो आपका इंतजार डगडगे पर ही कर रहा हूं। बहरहाल अगले
दो मिनट में हमारा भरत मिलाप हो गया। तब तक सलिल का फोन आ गया वे भी आ रहे हैं।
कुछ समय बाद मैंने यह बताने के लिए सलिल को फोन किया कि सराय काले खां कि तरफ
मिलें। उनके फोन पर एक महिला स्वर सुनाई दिया, कि कि वे निकल गए हैं,
लेकिन फोन यहीं भूल गए हैं। बाद में पता चला कि वह स्वर रेणु जी यानी श्रीमती
सलिल का था। बलराम जी ने अरुण को फोन करके कहा कि वे सराय काले खां के बाहर सड़क
पर ही मिलें।
बलराम जी और मेरी भेंटवार्ता शुरू हो चुकी थी। हम
लगभग डेढ़ साल बाद दुबारा मिल रहे थे। हालांकि इस बीच फोन पर बतियाते रहे थे। पुस्तक मेला, ब्लाग जगत और परिवार सब कुछ था इस
वार्ता में। गपियाते और आटो तथा टैक्सी वालों को धकियाते हुए हम सड़क पर पहुंच
चुके थे। कोई पांच मिनट के इंतजार के बाद अरुण और सलिल जी एक कार में प्रकट हुए।
अरुण ने झुककर पैर छूए और सलिल ने आदत की मुताबिक प्रणाम कहा। सामान पीछे डिक्की
वाली जगह में रखकर मैं और बलराम जी पीछे ही विराज गए। अरुण गाड़ी चला रहे थे और
सलिल उनका साथ दे रहे थे। भेंटवार्ता में वे भी शामिल हो गए। जैसा कि आमतौर पर
होता है यात्रा से लौटते हुए हम सबसे पहले यात्रा की रोचक या अरोचक घटनाओं पर
चर्चा करते हैं। वैसा कुछ यहां भी हुआ। लेकिन जल्द ही हम उससे बाहर निकल आए।
चार ब्लागर साथ थे। ज्योतिपर्व
प्रकाशन की किताबों के विमोचन समारोह की चर्चा, जुड़ी घटनाओं की चर्चा और घटनाओं
से जुड़े व्यक्तियों की चर्चा शुरू हुई। लगभग बीस-पच्चीस मिनट की यात्रा के बाद
हम गाजियाबाद के इंदिरापुरम् में अरुण रॉय के घर ज्योतिपर्व के सामने थे। जी हां,
उनके घर का नाम भी यही है। भूतल के अलावा ऊपर और दो मंजिलें। भूतल पर वे रहते हैं
और बाकी दो तल किराए पर हैं। भूतल के दो कमरों में से एक को उन्होंने अपने काम के
लिए दफ्तर का रूप दे दिया है।
लगभग पांच मिनट बाद ज्योति रॉय चाय के साथ हाजिर
थीं। नाम और शक्ल से हम एक-दूसरे से फोटो के माध्यम से परिचित थे ही। थोड़ी देर
बाद उनके दो बेटों ने आकर हमारे पैर छूकर अभिवादन किया। बलराम जी और सलिल भी
पहली बार ही अरुण के घर आए थे।
अरुण ने विस्तार से विमोचन कार्यक्रम के बारे में
बताया। उन्होंने कार्यक्रम की एक सीडी भी बनाई है, वह उन्होंने डेस्कटाप पर लगा
दी। बलराम जी और सलिल को बतियाता छोड़कर मैं स्नान के लिए चला गया। लौटा तो पता चला कि सलिल घर निकल गए हैं और बाद में आएगें। अरुण ने कहा कि मैं भी स्नान
ध्यान कर लेता हूं। ज्योति नाश्ता तैयार कर रही हैं।
बलराम जी और मैं फिर से साहित्य चर्चा में व्यस्त
हो गए। इस पुस्तक मेले में बलराम जी की भी एक नई किताब मेधा बुक्स से आई है-खलील
जिब्रान। जब वे बंगलौर आए थे, तब इस किताब पर काम कर रहे थे। बातचीत करते-करते
अपने बैग से किताब की एक प्रति निकालकर मुझे भेंट की । इस बीच ब्लागर मित्रों
के फोन उन्हें आने शुरू हो गए थे, यह
जानने के लिए आज का मिलन समारोह यथावत है या उसमें कुछ बदलाव हुआ है।
अरुण तैयार थे और नाश्ता भी। लेकिन जब वह हमारे
सामने परोसा गया तो समझ आया कि वह भोजन है। ज्योति बोलीं, अब समय भी तो भोजन का ही हो रहा है ना। बात सही थी। घड़ी
के कांटे ग्यारह का आंकड़ा पार कर चुके थे। भोजन में आलूमटर की सब्जी और पूरियां थीं। खाना स्वादिष्ट
था। आखिर घर का खाना घर का ही होता है। उन्होंने मनुहार करके जी भर खिलाया और हमने जी भर खाया।
ज्योतिपर्व में : बलराम जी,अरुण,ज्योति और उनके बेटे के साथ |
मुझे अपने संग्रह की 50 और प्रतियां चाहिए थीं। वह
मैंने अरुण से लीं। 10 प्रतियां अपने बैग में रखीं और बाकी 40 को एक खोखे में पैक
किया। उन्हें बंगलौर ले जाना था। बलराम जी हालांकि मेरा संग्रह मेले में क्रय कर चुके थे।
पर मुझे लगा कि जब वे सामने हैं तो मुझे उन्हें एक प्रति भेंट करनी ही चाहिए।
मैंने शुभकामनाएं लिखकर उन्हें प्रति भेंट की। अरुण कहने लगे, ‘सर, आपकी हस्ताक्षरित
एक प्रति पर तो हमारा भी अधिकार बनता है।’
मैंने कहा, ‘बिलकुल।’ ज्योति और अरुण का नाम लिखकर एक प्रति उन्हें
भी भेंट की।
मैंने एक बार फिर ज्योति जी को ज्योतिपर्व प्रकाशन
के लिए बधाई दी और मेरा संग्रह प्रकाशित करने के लिए आभार व्यक्त किया।
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अरुण को दोपहर में कुछ काम था। इसलिए उन्होंने
हमारे साथ कॉफी होम आने में असमर्थता व्यक्त की। वे मुझे और बलराम जी को वैशाली
मेट्रो स्टेशन तक कार से छोड़ने आए। मेरे पास अपने लैपटॉप बैग और हवाई बैग के
अलावा अब एक और लगेज बढ़ गया था। वह था किताबों का खोखा। बलराम जी ने उसे उठाकर मेरा बोझा कम किया। हम कनॉटप्लेस जाने के लिए वैशाली स्टेशन पर थे। टिकट बलराम जी ने ही ली।
उधर कॉफी होम में ब्लागर मित्र पहुंच चुके थे। फोन आने शुरू हो गए थे। कनॉटप्लेस
यानी राजीव चौक तक पहुंचते हुए डेढ़ बज गया। बाहर निकलकर हमने आटो करना बेहतर
समझा और अगले पांच मिनट में हम कॉफी होम के अंदर थे।
कॉफी होम में बरगद के नीचे बाएं से : दीप्ति जी,राजेश उत्साही, सलिल वर्मा,रामेश्वर काम्बोज,सुभाष नीरव |
वटवृक्ष के नीचे पत्थर की बेंचों पर ब्लागर जगत के वटवृक्ष यानी कथाकार सुभाष नीरव, लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, कथाकार रूपसिंह चंदेल और कवि अशोक आन्द्रे मौजूद थे। सबने
गर्मजोशी से स्वागत किया। हमारी प्रतीक्षा करते हुए वह सारी बातचीत हो चुकी थी, जो इस
अवसर पर हो सकती थी। वे सब लगभग घंटे भर पहले वहां आ चुके थे।
श्याम सुंदर 'दीप्ति' |
हम अभी बैठ ही
रहे थे कि लघुकथाकार श्याम सुंदर ‘दीप्ति’ जी भी इस समूह में दाखिल हुए। मैंने सबको अपने
संग्रह ‘वह, जो शेष है’ की एक-एक प्रति भेंट की। रामेश्वर जी ने मुझे
डॉ.सुधा गुप्ता की दो कविता पुस्तकें भेंट की- 'सात छेद वाली मैं' और 'ओक
भर किरनें'। अशोक आन्द्रे जी ने अपना कविता संग्रह 'समय के गहरे पानी में' भेंट
किया। श्याम सुंदर ‘दीप्ति’ जी ने उनके और श्याम सुंदर अग्रवाल द्वारा संपादित ‘विगत
दशक की पंजाबी लघुकथाएं’ पुस्तक मुझे भेंट की। इन सभी पुस्तकों को अभी
केवल सरसरी निगाह से ही देख पाया हूं। विस्तार से पढ़ना बाकी है।
दाएं से : राजेश उत्साही,अविनाश वाचस्पति,संतोष त्रिवेदी,सलिल वर्मा
सुभाष नीरव,अशोक आन्द्रे और रूपसिंह चंदेल |
इस बीच टेबिल पर कॉफी आ चुकी थी और फोन पर सलिल वर्मा। वे वटवृक्ष की एक परिक्रमा लगा चुके थे, हम सब उन्हें नजर ही नहीं आ रहे थे। आखिर, उन्होंने हमें पा ही लिया। हरे कुरते में वे बिलकुल हरियाए हुए थे। वे सबसे रूबरू
हो ही रहे थे कि अविनाश वाचस्पति और संतोष त्रिवेदी भी इस जमावड़े में शामिल हो
गए। औपचारिक अभिवादन के पश्चात् मैंने उन्हें भी अपने संग्रह की प्रति भेंट की।
सलिल भी पुस्तक मेले से मेरा संग्रह क्रय कर चुके थे। पर यहां मुझे लगा कि एक
प्रति पर उनका भी हक बनता है। सो मैंने उन्हें भी अपनी एक हस्ताक्षरित प्रति
भेंट की।
रूपसिह चंदेल और बलराम अग्रवाल |
हम सब एक-दूसरे को ब्लाग पर पढ़ते ही रहते हैं सो
रचनाकर्म पर बहुत बात नहीं हुई। न ही समय था। ब्लागजगत पर भी बहुत बातचीत नहीं हो
पाई। मुझे वापसी यात्रा के लिए एयरपोर्ट पहुंचना था। अतृप्त और भारी मन लिए
मैं विदा लेकर बलराम जी और सलिल के साथ कॉफी होम से बाहर आ गया। उन्होंने एयरपोर्ट
जाने के लिए आटो में बिठाकर मुझे विदा किया। सभी मित्रों ने मेरी इस संक्षिप्त
यात्रा को सफल बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उपलब्धि यह थी कि मैं सबसे रूबरू मिल पाया। फिर भी आटो में बैठा मैं
मुलाकात के ‘वह, जो शेष है’ के बारे में सोच रहा था।
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बलराम जी,सलिल,अरुण,ज्योति रॉय और कॉफी होम में पहुंचे
सभी मित्रों का मैं बहुत आभारी हूं।
0 राजेश उत्साही
आपकी दिल्ली यात्रा तो सच में रोचक रही!!
जवाब देंहटाएंकिताबें भी अच्छी अच्छी भेंट में मिल गयीं आपको :)
बड़ी रोचक यात्रा रही आपकी, साहित्यिक मस्तिष्कों के साथ।
जवाब देंहटाएंराजेश जी आपसे मुलाकात बहुत आत्मीय रहा. आप अत्यंत सरल और सहज हैं. यदि मेरी प्रोफेशनल विवशता नहीं रहती तो मैं भी काफी होम में मौजूद रहता.... लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों के सानिध्य से वंचित रह गया......
जवाब देंहटाएंयात्रा भी....मिलना मिलाना भी.......
जवाब देंहटाएंसिलसिला जारी रहे.............
सादर.
अनु
एक आत्मीयता से भरी पोस्ट। रोचक वृत्तांत।
जवाब देंहटाएंअरुण और ज्योति से मिलना आत्मीय होता है. बहुत मेहनत कर रहे हैं दोनों.... आपका वृतांत रोचक है..
जवाब देंहटाएंअपनी आपबीती के साथ ही बहुत बढ़िया रोचक संस्मरण ...
जवाब देंहटाएंएक साथ इतने साहित्य प्रेमियों का मिलना सुखद रहा , यह देखकर ख़ुशी तो होती है .लेकिन कुछ बातें समयाभाव के कारण शेष रह ही जाती हैं ....इसका मलाल तो रहता है फिर भी कुछ अच्छा होता है तो एक यादगार क्षण बन जाता है ..
सादर
अरे वाह, क्या गजब यात्रा एवं समय संयोजन किया है आपने ।
जवाब देंहटाएंबड़े भाई,
जवाब देंहटाएंयात्रा-वर्णन भी एक दुरूह साहित्यिक विधा है और आपने जिस प्रकार वर्णन किया है मुझे लगता है कि शायद ही कोई घटना इस आलेख में स्थान पाने से वंचित रही हो.. हमारी पत्नी जिनका ज़िक्र मेरी पोस्टों को छोड़कर किसी ने नहीं किया, उनको भी आपने स्थान दिया यह मेरे लिए अत्यंत सुखद स्मृति है.. आम तौर पर रविवार के दिन मैं घोंघे की तरह अपनी खोल में छिपा रहता हूँ और दिन में ग्यारह बजे से पूर्व कोई मुझे फोन नहीं करता, किन्तु वह दिन आपकी पूर्व सूचना के कारण पहले से ही आपको समर्पित था.
मेरे लिए भी वह उपलब्धियों भरा दिन था बलराम जी से भेंट होने के कारण.. उस दिन मुझे नहीं पता था, किन्तु आज जाना कि "खलील जिब्रान" उनकी पुस्तक है.. प्राप्ति का मार्ग बताएं.
आपके ही बहाने कई स्तरीय ब्लॉगरों से भी मुलाक़ात हो गयी.. आपको ऑटो पर बिठाने के पूर्व हमारी साँसें रुकी हुई थीं और जब ऑटो मिला तब जाकर जान में जान आई.. (अब ये मत कहियेगा कि मुसीबत को विदा करके हमने चैन की सांस ली):)
बहुत ही आत्मीयता से आपने लिखा है!! यह आपसे मिलने का दूजा सौभाग्य था!! भारत मिलाप की तरह!!
यह पोस्ट तो छूट ही रही थी! असली तश्वीरों के माध्यम से नकली तश्वीर वाले बिहारी बाबू भी पहचाने गये। ..धन्यवाद रोचक जानकारी के लिए।
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