ऑफिस पहुंचते ही सबसे पहला काम
करना होता है, अपने को गूगलटॉक पर सक्रिय करना। असल में वह हमारी टीम के बीच संवाद
का एक जरिया है। जब वह चालू रहता है तो बाकी परिचित भी ऑनलाइन होने पर सामने आ ही
जाते हैं।
2 अप्रैल को विवेक रस्तोगी आए
और कहने लगे-
-आपका ब्लॉग पढ़ रहा था तो पता चला कि आजकल आप
बैंगलोर में हैं, बताएं कब मुलाकात हो सकती है, मैं
भी बैंगलोर में ही पिछले एक वर्ष से रह रहा हूँ।
मैंने कहा-विवेक जी मैं तो पिछले तीन साल से बंगलौर
में हूं।
मैं सरजापुर रोड पर विप्रो ऑफिस के पास हलनायकनहल्ली में हूं। आपका निवास कहां है, मुलाकात शनिवार,रविवार को ही संभव है। इन दिनों में मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है।
मैं सरजापुर रोड पर विप्रो ऑफिस के पास हलनायकनहल्ली में हूं। आपका निवास कहां है, मुलाकात शनिवार,रविवार को ही संभव है। इन दिनों में मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है।
-अरे वाह, मैं कुंदनहल्ली गेट
ब्रुकफ़ील्ड्स में रहता हूँ। मेरा साप्ताहिक अवकाश
भी अधिकतर शनिवार, रविवार को ही होता है। मेरा निवास माराथल्ली के
पास समझ लीजिए। बताईए कब मुलाकात होती है।
इस रविवार ?
-अभी तक तो रविवार का और कोई
कार्यक्रम नहीं है। आप पता और समय बताइए अगर
सब कुछ ठीक रहा तो मैं पहुंच जाऊंगा।
*
फिर 6 अप्रैल को हमारे बीच कुछ इस तरह बातचीत हुई-
-तो विवेक जी रविवार का क्या
कार्यक्रम बना,बताएं।
-जी मिलते हैं, आप बताएं,
आपके लिए कौन सी जगह सुविधाजनक रहेगी?
-आप कुछ जगहों के नाम बताएं।
-कहीं किसी मॉल या कॉफ़ी शाप। माराथल्ली
आपके लिए दूर है क्या?
-नहीं,सरजापुर सिगनल से मैं कोई पांच छह किलोमीटर
की दूरी पर हूं।
-मेरे पास
बाईक है तो मैं आ सकता हूँ। आप अपनी सुविधाजनक जगह बताएं।
-तो मेरे घर
ही आ जाएं।
-अरे वाह ,इससे बेहतर और क्या हो सकता है।
-हां, मैं तो
अकेला ही रहता हूं।
-मेरा परिवार
भी कल छुट्टियों पर जा रहा है।
-वैसे मुझे केआर पुरम में एक मित्र से मिलने आना
है तो मैं भी उस तरफ आ सकता हूं।
-जी ठीक है
-तो समय बताएं ।
-हम तो सुबह दस बजे बाद फ़्री
हैं।
-मेरा फोन नम्बर 09731788446 है आगे की बातचीत हम फोन पर कर लेंगे। आप भी अपना नंबर भेज दीजिए।
*
शाम को फिर से बातचीत हुई।
विवेक ने पूछा-
-क्या आप प्रवीण पाण्डेय जी से मिले हैं?
-नहीं अभी तक मिलना नहीं हुआ है।
-उनसे भी बात करते हैं, उनसे
भी मुलाकात हो जाएगी।
-फिर हम दोनों ही उनकी तरफ जा सकते हैं।
-जी बिल्कुल।
-तो आप बात करें और बताएं।
-ठीक है, उनसे पूछता हूं।
कुछ समय बाद विवेक का जवाब
आया-
-प्रवीण जी तो ट्रेन में हैं
घर जा रहे हैं। 15 अप्रैल को आएंगे।
-चलिए फिर हम तो मिल ही लेते
हैं।
-तो आप मेरे घर आ जाईए या फ़िर मैं आपके घर आ जाता हूं।
-चूंकि मुझे उस ओर आना ही है, आप पता दें। मैं पहुंच जाऊंगा।
-आप किस साधन से आएंगे।
-मैं बस से आऊंगा।
-आपको माराथाल्ली से ITPL जाने वाली
बस लेनी होगी 335E, 500C और beml layout पर उतरना होगा। जब माराथल्ली से बस में चढ़ें मुझे काल कर दें, मैं बस स्टॉप पर ही
मिल जाऊंगा।
-बस तो मुझे
सरजापुर सिगनल से ही मिल जाएगी।
-जी, 500C आपको वहीं से मिल जाएगी।
-मैं 10 बजे निकलूंगा। पहुंचते हुए 11 तो बज ही जाएंगे शायद।
-जी बिल्कुल।
-फ़िर मिलते हैं।
*
तो इस तरह हमारी मुलाकात की
योजना बनी।
शाम को मैंने केआरपुरम में
रहने वाले मित्र जीवराज पटेल को फोन किया। पता चला कि वे इटारसी में हैं। यानी कि
उनसे मिलना नहीं हो सकेगा।
शनिवार की सुबह लगभग पच्चीस
बरस पुराने एक मित्र का फोन आया। मित्र हैं नटवर पटेल। पहले वे भी अपने नाम के साथ
‘उत्साही’ लगाते थे। लेखक तो वे थे ही, हमारी दोस्ती का एक कारण यह भी था। फिर
जैसा कि होता है हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त हो गए। वे इटारसी में ही
हैं। उन्हें मेरा नंबर जीवराज जी ने ही दिया था। असल में जीवराज जी से परिचय नटवर
की वजह से हुआ था। इसका जिक्र मैंने अपनी एक अन्य पोस्ट में किया है।
*
रविवार की सुबह मैं लगभग 9 बजे
घर से निकला। घर से मोरीगेट तक का रास्ता पैदल तयकर के वहां से बस में बैठा। पहला
पड़ाव सरजापुर सिगनल था। वहां से 500C
बस लेनी थी। बंगलौर में दो तरह की बसें चलतीं हैं। एसी और नॉनएसी। मेरे पास नॉनएसी
बस का पास था, इसलिए मैं उसका इंतजार कर रहा था। लेकिन 500C नंबर की नॉनएसी बस आ
ही नहीं रही थी। हारकर मैं एसी बस में ही चढ़ गया। इस बीच विवेक का दो बार फोन आ
चुका था। एक बार तब जब मैं सरजापुर सिगनल पर ही था। वे नहाने जा रहे थे। तब मैंने
कहा था आप आराम से नहा लें। मुझे तो अभी समय लगेगा आने में। जिस इलाके में जा रहा
था, वह मेरे लिए नया था। बस कंडक्टर को कह दिया था कि स्टॉप आए तो कृपया
बता देना। बाद में पता चला कि उस इलाके में इस नंबर की नॉनएसी बस जाती ही नहीं
हैं।
बस
स्टॉप पर विवेक मौजूद थे। हमें एक-दूसरे को पहचानने में देर नहीं लगी। फोटो से
अंदाजा था ही।
*
दुआसलाम
के बाद हम पैदल ही चल पड़े। विवेक का घर पास ही था। दूसरी मंजिल पर, वनबीएचके। तीन
लोगों के छोटे परिवार के लिए पर्याप्त जगह। हाल में घुसते ही बड़ी स्क्रीन वाला
स्लिम टीवी था। दरवाजे के पास जूते-चप्पल रखने का एक रैक। प्लास्टिक का एक टेबिल
और कुछ कुर्सियां। फ्रिज। एक कोने में भगवान का आसन। और दीवार से लगी बिछावन।
विवेक ने एक में एक फंसी प्लास्टिक की कुर्सियों को निकालने का उपक्रम किया तो
मैंने कहा, मैं तो नीचे ही बैठूंगा। और बिछावन के एक कोने पर दीवार से टिककर बैठ
गया।
फ्रिज
खोलते हुए विवेक ने पूछा, क्या पियेंगे।
मैंने
कहा, कोल्डड्रिंक छोड़कर कुछ भी।
-नीबू
पानी चलेगा।
-दौड़ेगा।
*
विवेक
उज्जैन के रहने वाले हैं। व्हाया मुंबई यहां पहुंचे हैं। एकलव्य का जिक्र निकला
तो विवेक कहने लगे आप केआरशर्मा जी को जानते हैं। विवेक उनके छोटे भाई के मित्र
हैं। केआरशर्मा और मैंने बीस साल एकलव्य में साथ काम किया है। संयोग से केआर भी आजकल अज़ीमप्रेमजी फाउंडेशन ,देहरादून में हैं। मैंने फोन मिलाया और विवेक को थमा दिया। मैं विवेक के चेहरे
पर किसी पुराने परिचित से सालों बाद हो रही बातचीत से मिलने वाली खुशी देख रहा था।
पढ़ाई-लिखाई की बात निकली तो पता चला कि हमारी कहानी लगभग एक जैसी है। मैं भी पहले
बीएससी कर रहा था,सफल नहीं हुआ तो फिर बीए किया। विवेक भी उसी राह से आगे गए। बीए
इसलिए कि उन्हें हिन्दी साहित्य में बचपन से रुचि रही है। विवेक यहां आईटी
कंपनी में मैनेजर हैं। लोग ताज्जुब करते हैं कि बीए करने के बाद बंदा आईटी कंपनी
में कैसे पहुंच गया। बीए के बाद उन्होंने फायनेंस में एमबीए किया। उससे पहले कम्प्यूटर
पर इनपुट करने से लेकर कम्प्यूटर बेचने तक के तरह-तरह के काम किए हैं। दिलचस्प
बात यह है कि वे आगे भी भांति-भांति के काम करना चाहते हैं। उनकी शरीकेहयात फिलहाल
शुद्ध गृहणी हैं। वे चाहते हैं कि दोनों मिलकर बंगलौर में शुद्ध उत्तर भारतीय
रेस्टारेंट खोलें। दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारतीय व्यंजनों के दीवाने हैं। वे
कुछ उदाहरण भी देते हैं।
अपने
ब्लाग कल्पतरु के माध्यम से वे निवेश आदि के बारे में जानकारी देते रहते हैं।
उनके सात वर्षीय बेटे हर्ष का भी एक ब्लाग है। मुंबई में थे तो ब्लागर सम्मेलनों
के आयोजन करते रहे हैं। रश्मि रविजा,सतीश पंचम, बोधिसत्व और आभाजी से उनकी मुलाकात होती रहती थी।
साहित्य
में उनकी गहरी रुचि है इसका बात का प्रतीक उनकी टेबिल पर रखी किताबें थीं-जिनमें
रागदरबारी, तमस और काशीनाथसिंह का कहानी संग्रह शामिल था। ये उन्होंने हाल ही में
फिल्पकार्ट से बुलवाई हैं। जयपुर के बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित दस किताबों का
सेट वे यह कहते हुए अलमारी से निकाल लाए कि आपने न पढ़ा हो तो आप ले जाएं। संयोग से
यह सेट मेरे पास पहले से है।
*
बातचीत
करते हुए हमें काफी समय हो चुका था। विवेक ने पूछा, खाना।
मैंने
कहा, आप जो खिलाएं ।
कुछ
सोचकर विवेक बोले, दालबाटी चलेगी। मैंने पूछा, आप बनाएंगे।
बोले
नहीं, पास ही एक राजस्थानी रेस्टोरेंट है, वहां चलेंगे।
बाहर
बहुत तेज धूप थी। मोटरसाइकिल पर हम दोनों निकल पड़े। विवेक ने कुछ दिन पहले ही इस
रेस्टोंरेट का बैनर सड़क पर देखा था। ढूंढते हुए हम बहुत दूर तक चले गए। रेस्टोरेंट
असल में पीछे ही रह गया था।
दालबाटी
को आनंद के साथ उदरस्थ कर वापस लौटे।
मैंने
अपने कविता संग्रह ‘वह, जो शेष है’ की प्रति विवेक को भेंट की। कैमरे को सेट करके
हमने अपने फोटो लिए।
कुछ
देर और गप्प लगाई और फिर मैं वापस लौट पड़ा।
0 राजेश उत्साही
आपने तो मुलाकात का ब्यौरा बहुत ही बेहतरीन लिखा है :)
जवाब देंहटाएंकाश उस दिन हम भी वहाँ होते...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह राजेश जी बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंकुछ समय पहले मैं एक दिन के लिए बैंगलोर (व्हाइटफ़ील्ड) गया था लेकिन चाह कर भी किसी से बात तक नहीं कर पाया, सिवाय एक मित्र के जो कि व्हाइटफ़ील्ड में कंटेनर कॉरपोरेशन देखते हैं.
काजल जी हम भी वहीं पास में रहते हैं :)
जवाब देंहटाएंऐसे सरल व्यक्ति से मिल कर यक़ीनन आपको बहुत अच्छा लगा होगा...इस से बढ़िया ब्लोगर सम्मलेन और क्या होगा...जयपुर के बोधी प्रकाशन की कौनसी दस किताबों के सैट का जिक्र आपने किया है कृपया बताएं...
जवाब देंहटाएंनीरज