शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

रेलगाड़ी से चीलगाड़ी में

मैं उस जमाने का हूं जब रेलगाड़ी भी ज्‍यादातर लोगों के लिए एक अजूबा थी। बेशक हमारे ही देश के कई इलाकों में अब भी लोग केवल इसके बारे में सुनते भर हैं। मेरी पत्‍नी निर्मला ने अपनी शादी तक रेलगाड़ी नहीं देखी थी। वह कालेज में हिन्‍दी की अध्‍यापिका थी।

मुझे याद है मैं पहली में था। मध्‍यप्रदेश में होशंगाबाद और इटारसी के बीच एक रेल्‍वे स्‍टेशन है पवारखेड़ा। वहां स्‍टेशन के पास ही रहता था। रोज सुबह लगभग नौ बजे जनता एक्‍सप्रेस दिल्‍ली की ओर से आती थी। यह उसका रोज का क्रम था। उसमें चपटे मुंह का कोयले वाला इंजन लगता था। जिसे हम चपटा इंजन ही कहते थे। लेकिन एक दिन वह हम सबके लिए खासकर बच्‍चों के लिए विशेष हो गई। उसमें गोल और नुकीले मुंह का इंजन लगकर आया। जैसे इंजन में किसी ने नाक लगा दी हो। इस इंजन को खूब सजा-धजाकर गाड़ी में लगाया जाता था। हम बच्‍चों ने चपटे इंजन का नाम अब नकटा इंजन रख दिया था। और इस नए इंजन को नाम दिया था-नाक वाला इंजन। हमें हर सुबह जिस चीज का इंतजार सबसे ज्‍यादा रहता वह यह इंजन ही था।

अब आप सोच सकते हैं कि जब इंजन को लेकर हम इतने दीवाने थे, तो चीलगाड़ी यानी हवाई जहाज को देखकर हमारी क्‍या हालत होती होगी। जब भी हवाई जहाज की आवाज सुनाई पड़ती तो सब कुछ छोड़कर उसे खोजने निकल पड़ते। एक बार नजर भर आ जाता तो फिर जब तक वह दूर बादलों में खो नहीं जाता तब तक उसका पीछा करते रहते। कभी भूले से कोई हवाई जहाज बहुत नीचे उड़ान भरता हुआ चला जाता,तब तो बस आंखें बाहर ही नहीं आतीं बाकी सब कोशिश कर लेते। धीरे-धीरे नाक वाला इंजन, फिर डीजल इंजन और फिर हवाई जहाज रोजमर्रा की बात हो गई। वो रोमांच नहीं रहा।

उम्र ज्‍यों ज्‍यों बढ़ती है, रोमांच के विषय या दायरे बदलते जाते हैं। हवाई जहाज के बारे में रोमांच का दायरा इतना ही बड़ा कि एक दिन भोपाल के हवाई अड्डे पर जाकर हवाई जहाज को उतरते और रनवे से उड़ते हुए देख लिया। अगला दायरा था हवाई जहाज में बैठकर कैसा लगता होगा। हम कभी हवाई जहाज में बैठेंगे यह तो सोच ही नहीं सकते थे।


शायद मेरी यह सबसे बड़ी कमजोरी रही कि मैं सपने भी ठीक तरह से नहीं देख पाया। मैं कहा करता कि हमने तो हवाई जहाज को छूकर भी नहीं देखा,बैठने की बात तो दूर। यह बात भी धीरे-धीरे रोमांचकारी बातों से दूर होती गई। मैंने मान लिया कि अब तो हम पुष्‍पक विमान में बैठकर सीधे नरक में ही जाएंगे।(अगर ऐसी जगह है तो। लोग कहते हैं कि ऐसी जगह है।)

मैंने महसूस किया कि मैं सपने तो ठीक से देख ही सकता हूं। उसमें कौन से पैसे लगते हैं। जब सपने देखना शुरू किए तो अचानक उनमें से एक सच होता हुआ नजर आया। और वो था ए‍क नई नौकरी का। नौकरी के लिए बुलावा आया था। वो भी बंगलौर से। जहां कभी जाने के बारे में मैंने नए सपनों में भी ठीक से नहीं सोचा था। नौकरी की बात तो दूर।
बहरहाल इंटरव्‍यू बंगलौर में होना था। भोपाल से दिल्‍ली व्‍हाया रेलगाड़ी, दिल्‍ली से बंगलौर व्‍हाया चीलगाड़ी। वापसी भी इसी तरह। अंदर कहीं जो थोड़ा सा रोमांच बचा था वह इस रूप में सामने आया कि चलो पुष्‍पक विमान से पहले धरती के विमान में बैठने का मौका मिल रहा है। जो दो-चार दोस्‍त पहले विमान में बैठ चुके थे, उनका साक्षात्‍कार लिया। हवाई जहाज में चढ़ने से पहले किन-किन बातों का ध्‍यान रखना जरूरी है। सब टिप्‍स लें लीं। उन्‍होंने भी कुछ इस तरह से समझाया जैसे किसी नन्‍हें बच्‍चे को समझा रहे हों। खैर हवाई जहाज के मामले में तो अपन नन्‍हें बच्‍चे ही थे।

26 दिसम्‍बर,2008 का दिन आया। दिल्‍ली एयरपोर्ट पहुंचा। समय से चार घंटे पहले। मुझे बताया गया था कि हवाई जहाज में खाना दिया जाता है। आप अपना खाना नहीं ले जा सकते। रात को घर से चलते वक्‍त पत्‍नी ने बड़े प्‍यार से मैथी के पराठे बनाकर दिए थे। ये चार घंटे मैंने पराठे खाकर ही निकाले। हवाई अड्डे पर बोर्डिंग पास काउंटर पर मुझसे पूछा गया कि आपको खिड़की वाली सीट चाहिए या कोई और। नन्‍हें बच्‍चे के अंदाज में मैंने तुरंत कहा खिड़की वाली। जॉंच चौकी पर पुलिस वालों ने अपना धर्म निभाया। औपचारिकताएं पूरी कीं। झंगा-झोली की तलाशी ली। बैग की तलाशी एक्‍सरे मशीन से हुई।

एयरपोर्ट की बस यात्रियों को लेकर हवाई जहाज की तरफ रवाना हुई। जहाज किंगफिशर एयर लाइंस का था। सीढि़यों से जहाज में पहुंचा। सीट पर बैठा। अपने आपको चिकोटी काटी। सब कुछ सच था। पर मैंने महसूस किया मुझे कोई रोमांच नहीं हो रहा था। लोग एयर होस्‍टेस को लेकर भी तरह तरह की बातें करते हैं। पर उन्‍हें देखकर भी मुझे कोई रोमांच नहीं हुआ। शायद इसलिए कि उनकी हर बात हर अदा किसी यंत्रवत सी थी। वह अदा उनके काम का हिस्‍सा थी स्‍वभाव का नहीं। और बनावटी अदा अपने को भाती नहीं,वह कितनी भी मोहक या मारक क्‍यों न हो।

जैसा होता है। पायलट ने अपने केबिन से घोषणा की। अपने और साथियों के नाम बताए। सीट बेल्‍ट बांधने के निर्देश दिए। मुसीबत में क्‍या करना है यह समझाया गया। मोबाइल फोन बंद करवाए। और फिर जहाज ने चलना शुरू किया। धीरे-धीरे जैसे भोपाल की कोई सिटी बस अपनी जगह से लुड़कती है। पर फिर अचानक उसने स्‍पीड पकड़ी और हवा में उड़ने लगा। जब हवाई जहाज उड़ा तो कान जैसे बंद हो गए। आवाज कहीं बहुत दूर से आती हुई लग रही थी। अपनी आवाज ही सुनाई नहीं दे रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई आवाज को कान में आने से रोक रहा हो। थोड़ी देर में सब कुछ सामान्‍य हो गया।

जल्‍द ही नीचे घर, मकान और दुकान माचिस के डिब्‍बी से नजर आने लगे। यह रोमांच का क्षण था। अब तक फिल्‍मों में हवाई जहाज में बैठे किसी और व्‍यक्ति की नजर यानी कैमरे की नजर से ऐसे दृश्‍य देखे थे। यह दृश्‍य अपनी आंखों से देख रहा था। यह सचमुच अद्भुत था। थोड़ी ही देर में नीचे कुछ भी नजर आना बंद हो गया। जहाज अब बादलों के बीच था।

खिड़की से बाहर देखने पर ऐसा लगता था, जैसे हवाई जहाज हवा में कहीं एक जगह ही खड़ा है। जबकि वह आठ सौ किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से अपने गंतव्‍य की ओर जा रहा था। जब भी बाहर कुछ नजर आता मैं खिड़की के शीशे पर आंख गड़ाकर नीचे देखने की कोशिश करता। सामने की सीट की पीठ पर एक छोटा टीवी स्‍क्रीन था। इस पर एक फिल्‍म भी दिखाई जा रही थी। बीच-बीच में यह भी दिखाया जा रहा था कि हवाई जहाज किन शहरों के ऊपर से गुजर रहा है। मैं भोपाल, खंडवा के आसपास की कुछ चीजें मैं पहचान पाया। बंगलौर आने तक बस पूरे समय खिड़की के बाहर ही नजर जमी रही। सड़कें किसी पतली रेखा से दिखाई दे रही थीं। बीच-बीच में जो गांव या शहर थे वे ऐसे नजर आ रहे थे जैसे कोई कांच की प्‍लेट गिरकर टूट गई हो। और उसकी किरचों से सूरज की रोशनी टकराकर वापस आ रही हो। जो किरचें जैसी थीं वे शायद वाहनों के कांच थे। नदियां बिलकुल सूखी थीं उनमें पानी बीच-बीच में नजर आ रहा था। पहाड़ों को देखना रोमांचक था। उन पर लगे पेड़ घास की चादर से नजर आ रहे थे। एकाध जगह कहीं रेलगाड़ी नजर आई,जैसे रेलगाड़ी का खिलौना हो।

dकहीं-कहीं हवाई जहाज बादलों के बीच से भी गुजर रहा था। कहीं ऐसा लग रहा था जैसे नीचे पानी भरा है और उन पर बादल तैर रहे हैं।

इंटरव्‍यू के बाद अगले दिन फिर हवाई जहाज से ही वापस लौटना था। कहां तो हवाई जहाज छूने के लिए तरस रहा था और कहां लग्‍गर दो दिन हवाई जहाज यात्रा।

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कल यानी 2 जुलाई,2009 को छटवीं बार हवाई ज‍हाज में बैठा जयपुर से बंगलौर आने के लिए। पहली उल्‍लेखनीय बात तो यही कि जयपुर के सांगानेर हवाई अड्डे के नए टर्मिनल की शुरूआत एक दिन पहले ही हुई थी। पर यहां हवाई जहाज में एक नया अनुभव हुआ। किसी कारण से हवाई जहाज के एसी के चालू होने में समय लग रहा था। जब उड़ने की तैयारी होने लगी तो एक साहब इस बात पर अड़ गए कि जब तक एसी चालू नहीं होगा,हम सीट पर नहीं बैठेंगे। जैसा कि हमारे यहां होता है,धीरे-धीरे एक के बाद एक कई लोग खड़े हो गए। बात यहां तक पहुंची कि लोग पायलट के साथ मारपीट करने पर उतर आए। बात तब खत्‍म हुई जब सबसे पहले उठने वाले साहब अपनी पत्‍नी के साथ जहाज से उतर गए।

हवाई जहाज उड़ा। थोड़ी देर में एसी भी चालू हो गया। यह उड़ान मुम्‍बई होकर बंगलौर जा रही थी। अपनी अब तक जिंदगी में मैं दूसरी बार जयपुर गया और वहां से हवाई जहाज से लौटा। मुम्‍बई जाने का भी यह मेरा दूसरा अवसर था। हवाई जहाज मुम्‍बई में समुद्र तट के ऊपर से सांताक्रुज हवाई अड्डे पर उतरा। पर हमें हवाई जहाज से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। छोटी बहन गीता मुम्‍बई में ही है। सो हवाई जहाज में बैठे-बैठे ही फोन पर उससे बात कर ली और मान लिया कि मुम्‍बई आकर उससे मिल लिए हैं। मान लेने की बात पर मुझे महादेवी वर्मा की लछमा याद आ जाती है। जिसे बेसन का लड्डू खाने का मन होता तो पीली मिट्टी का लड्डू बनाकर खा लेती और सोचती लड्डू खा लिया।

खैर थोड़ी देर बाद हवाई जहाज मुम्‍बई से उड़ा। जल्‍द ही शहर से बाहर निकलकर समु्द्र के ऊपर आ गया। समुद्र को आसमान से देखना अनोखा अनुभव रहा। मैं खिड़की में आंखें गड़ाए बस उसे देखता ही रहा। वह खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बीच-बीच में नीचे नाव जैसी नजर आतीं थीं। जो शायद पानी के जहाज थे।

तो हवाई जहाज की यात्रा तो अब शुरू हुई है।

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