शनिवार, 14 अप्रैल 2012

ताकि सनद रहे....


इधर यायावरी पढ़ने बहुत कम लोग आते हैं। पर मन है कि मानता ही नहीं लिखने से। चलो अपना काम तो लिखना है, ताकि सनद रहे।

रोहतक से अगला पड़ाव जयपुर का था दिल्‍ली होते हुए। वहां अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के उत्‍तर क्षेत्र के सदस्‍यों का वार्षिक मिलन समारोह था 20-21 मार्च,2012 को। हमारी गिनती दक्षिणी क्षेत्र में होती है, पर उत्‍तर क्षेत्र के साथियों से मिलने के लिए मैंने यहां आना तय किया था।


रोहतक से रमणीक मोहन भी साथ थे। 19 मार्च की सुबह लगभग आठ बजे टैक्‍सी से दिल्‍ली के लिए निकले। इंडिया गेट से लगे बीकानेर हाऊस से जयपुर की बस लेनी थी। सोमवार की भागम भाग वाली दिल्‍ली की सुबह थी यह।

अरुण राय से बात हुई थी। ‘वह, जो शेष है’ की लगभग पचास प्रतियां चाहिए थीं मुझे। उन्‍होंने वादा किया था कि वे मुझे बस पर पहुंचा देंगे। मैं उन्‍हें दिल्‍ली पहुंचने पर सूचित कर दूं। बीकानेर हाऊस के करीब पहुंचकर मैंने अरुण को फोन किया। वे बोले  आधा घंटे में पहुंच रहा हूं।

मैं बीकानेर हाऊस के बाहर उनका इंतजार करते हुए टहलने लगा। अरुण नजर आए। मैं जब तक उन्‍हें इशारा करता, वे बीकानेर हाऊस परिसर के अंदर जा चुके थे। मोटर साइकिल पार्क करके जब उन्‍होंने नजरें घुमाईं तो मैं उनके सामने था। उन्‍होंने झुककर पैर छू लिए और मैंने उन्‍हें लगभग बीच में रोकते हुए गले से लगा लिया। यह हमारी पहली मुलाकात थी। ब्‍लाग की गतिविधियों के माध्‍यम से हम एक दूसरे को जानते थे। विमोचन कार्यक्रम में न आ पाने के लिए मैंने उनसे माफी मांगी। बहु‍त संक्षिप्‍त में कार्यक्रम की बातें हुईं। समय कम था, जयपुर जाने वाली बस चलने के लिए तैयार खड़ी थी। रमणीक जी सवार हो चुके थे।

अरुण चंद्र राय से पहली मुलाकात
हमने पास खड़े सज्‍जन से अनुरोध किया कि हमारी इस पहली मुलाकात को कैमरे में कैद कर दें। 25 मार्च को मुझे बंगलौर की वापसी यात्रा के लिए फिर से दिल्‍ली आना था। मैंने अरुण से वादा किया कि उस दिन हम इत्‍मीनान से मिलेंगे। अरुण ने वादा कि वे मुझे स्‍टेशन लेने आएंगे।
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जयपुर में अजमेर रोड पर स्थित होटल जयपुर ग्रीन में मिलन समारोह था। होटल मुख्‍य सड़क से कम से कम चार किलोमीटर अंदर रहा होगा। हमें दो दिन यहीं बिताने थे। मिलन समारोह में अन्‍य कार्यक्रमों के अलावा 20 मार्च की शाम को सदस्‍यों द्वारा सांस्‍कृतिक प्रस्‍तुति का आयोजन भी था। मैंने भी कविता पाठ के लिए अपना नाम दिया था।
शाम या कहूं कि रात मेरा नंबर लगभग नौ बजे आया। मैंने 6 कविताओं का पाठ किया। तालियां भी बजीं और बाद में तारीफ भी मिली। पर हकीकत यह भी है कि जब मैंने मंच से यह पूछा कि क्‍या कुछ और कविताएं सुनना चाहेंगे तो जवा‍ब चुप्‍पी में था। खैर यह तो होना ही था, पर शायद यहां समय की कमी भी थी।

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फाउंडेशन की  दिल्‍ली टीम की साथी प्राची गौर चौधरी  और शब्‍दा बी बेदी
मेरा पहला कविता संग्रह प्रकाशित होकर आया है। जिंदगी में जो काम कभी नहीं किया वह  करना पड़ रहा है। अब तक औरों की किताबें बेचीं। अब अपनी ही किताब को बेचना है। महसूस हुआ कि एक किस्‍म की बेशरमी अपने ऊपर ओढ़ लेनी होगी, तभी यह काम हो पाएगा। शुक्रगुजार हूं उन साथियों का जिन्‍होंने सहर्ष संग्रह खरीदा, उनका भी जिन्‍हें मैंने एक तरह से जबरन बेचा। पर सबसे ज्‍यादा उनका जिन्‍होंने खुद संग्रह खरीदने की इच्‍छा जताई।
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गुरु डॉ.सुरेश मिश्र 
21 की शाम को जयपुर से भोपाल की यात्रा पर था। जाने क्‍या हुआ कि मैं तो समय से स्‍टेशन पहुंच गया था, पर जिस जयपुर-भोपाल एक्‍सप्रेस में  मेरा आरक्षण था वह मुझे लिए बिना ही चली गई। संयोग से जोधपुर-भोपाल पैंसेजर लेट चल रही थी, उसका टिकट लिया और फिर रेल में ही आरक्षण करवाकर सफर किया।

नई राह दिखाने वाले श्‍याम भाई और श्रीमती आशा बोहरे 
22 मार्च की दोपहर होने को आई थी जब मैं भोपाल पहुंचा। आटो करके सीधे एकलव्‍य ही चला गया। वहां पुराने साथियों से भेंट की, उनके साथ खाना खाया। कबीर के साथ शाम को डा.जयजयराम आनंद, डा.सुरेश मिश्र और श्‍याम भाई से मुलाकात की और अपने संग्रह की प्रति उन्‍हें भेंट की।


संग्रह की भूमिका में मैंने लिखा है, ‘सबसे ज्यादा खुशी शायद मेरे गुरु डॉ. सुरेश मिश्र को होगी। जिन्होंने न तो मुझे स्कूल में पढ़ाया, न कॉलेज में। फिर भी मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे हर बार मिलने पर या सम्पर्क होने पर बस एक ही सवाल पूछते रहे हैं कि संकलन कब आ रहा है। और हर बार मैं कहता रहा हूं कि तैयारी कर रहा हूं। लेकिन दूर-दूर तक कोई तैयारी नहीं। इस खुशी में श्‍याम (बोहरे) भाई बराबर के शरीक होंगे।’ श्‍याम भाई वे व्‍यक्ति हैं जिन्‍होंने मुझे उस समय एक नई राह दिखाकर सहारा दिया जब मैं जिंदगी से लगभग निराश हो चुका था।

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23 की सुबह जबलपुर की यात्रा पर था। 

अम्‍मां और नीमा : फोटो जल्‍दी जल्‍दी में उत्‍सव ने लिया।
अम्‍मां अक्‍सर  कैमरे के सामने आंख बंद कर लेती हैं। 
24 की दोपहर तक जबलपुर में घर में था। घर की इतनी संक्षिप्‍त यात्रा पर शायद पहली ही बार आया था। परिवार से मिले चार माह हो चुके थे, इसलिए सोचा कि संक्षिप्‍त ही सही यह यात्रा कर ली जाए। संयोग से अम्‍मां भी जबलपुर में ही थीं, सो उनसे मिलना हो गया।
                                   0 राजेश उत्‍साही                                                

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यात्रा में हम भी चल रहे हैं साथ.........

    सादर
    अनु

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  2. उत्तर
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  3. राजेश जी आपकी हर पोस्ट मैं पढ़ता हूँ. ये बात अलग है कि प्रतिक्रिया नहीं दे पाता. हजारों ब्लागरों में जिसको मैं खार तौर पर पसंद करता हूँ. उनमे आप महत्वपूर्ण हैं.. हाँ ये भी सच है कि आपके साथ यात्राओं का आनंद हम हर शै उठा रहे हैं.
    नमन !

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  4. CHALTE-CHALTE
    AISE HEE
    MIL JAATE HAI.
    UDAY TAMHANE
    B.L.O.

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  5. आपके इस यात्रा वृत्तांत के कई ऐसे पल हैं जो मन में समा गए हैं।
    अरुण पांव छूने में कोई कमी नहीं करता, यह मैंने अकसर देखा है।

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  6. यायावरी पढ़ने कम लोग अगर आते भी हैं तो ये मुझे यकीन है की वो इसे पुरे दिल से पढ़ते होंगे :)
    आप बहुत कम समय के लिए दिल्ली आये थे, वरना मैं भी मिल लेता..वैसे बैंगलोर आने पर आपसे मिलूँगा ही, ये तो पक्का है!!

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