पांच सितम्बर को टीचर्स ऑफ इण्डिया पोर्टल की नई डिजायन
जारी होनी थी। तय हुआ था कि इसे अलग अलग जगहों पर जारी करेंगे। इनमें एक जगह में
धमतरी भी थी।
कोई तीन साल पहले मैं धमतरी के पास भाटागांव तक तो गया
था,धमतरी जाने का पहला अवसर था। धमतरी की दलित साहित्य अकादमी ने राज्य भर के 74
शिक्षकों को सम्मानित करने का आयोजन किया था । इसी आयोजन में टीचर्स ऑफ इण्डिया
की नई डिजायन का विमोचन भी हुआ।
अगले दिन अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के कार्यालय में ही साथियों
से मिलना था। वहां के प्रमुख सुनील शाह ने कहा, ‘मांझी अनंत से मिलना चाहेंगे।’ मैंने
कहा क्यों नहीं। उन्होंने तुरंत फोन
लगाया। तय हुआ कि वे भी आएंगे।
फोटो : ताहिर अली |
1982 में अमरकटंक में मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन और
मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के संयुक्त आयोजन में एक रचना शिविर आयोजित हुआ था। मप्र
के लगभग 40 युवा रचनाकार उस शिविर में शामिल हुए थे। मैं भी था। उनमें मांझी अनंत
भी थे। वहां उनसे परिचय हुआ था। बाद में जब मैं चकमक से जुड़ा तो उनसे परिचय का
दायरा थोड़ा और बढ़ा। मुझे याद पड़ता है चकमक में उनकी कुछ कविताएं भी प्रकाशित
हुई थीं। मांझी पेशे से पशु चिक्तिसक हैं। वे आजकल धमतरी में हैं।
सुनील भाई ने अपने अन्य साथियों से उनका परिचय कवि के रूप
में कराया। मुझे याद पड़ता था कि वे कहानियां भी लिखते हैं,सो मैंने जोड़ा कि वे
कहानीकार भी हैं। मांझी उस समय तो चुप रहे। बाद में बोले, ‘राजेश जी, मैंने तो
बहुत कहानियां नहीं लिखीं है।’ मैं याद करता रहा। अचानक मुझे याद आया कि अमरकंटक
शिविर में एक और साथी थे लोक बाबू। मैं लोकबाबू और मांझी अनंत को एक ही व्यक्ति
समझने की भूल कर रहा हूं। जब मैंने यह बात मांझी को बताई तो बोले यही हो रहा है।
लोकबाबू भी छत्तीसगढ़ में ही हैं। लोकबाबू भी चकमक से जुड़े रहे। उनकी कहानी
मेमना मैंने ‘पहल’ से लेकर चकमक में प्रकाशित की थी। वे कहानीकार के तौर पर जाने
जाते हैं। हम पुरानी यादें ताजा करते रहे। समय ज्यादा नहीं था बतियाने का। वादा
किया कि अगली बार जब आऊंगा तो इत्मीनान से बात करेंगे। मैंने अपना सद्य प्रकाशित
कविता संग्रह ‘वह जो शेष है’ उन्हें भेंट किया।
वे भी अपना कविता संग्रह ‘हमारे रास्ते में खिला फूल’ मेरे
लिए लाए थे। उनका यह संग्रह 1997 में रामकृष्ण प्रकाशन,विदिशा से आया था। इसमें
छोटी-बड़ी 64 कविताएं हैं। इसकी छोटी सी भूमिका में कवि राजेश जोशी ने लिखा है- ये
कविताएं आसपास के जीवन और उसके अन्तस के अंधेर-उजालों को देखने-दिखाने की विनम्र
कोशिश है। इन कविताओं में अपने लोक की अनुगूंजें ऐसी गुंथी बुनी हैं कि उन्हे अलग
से ध्यान खींचने का उपक्रम नहीं करना पड़ता।
प्रस्तुत हैं कुछ कविताएं-
(1)
तुम्हारे
हाथों की धौल
जब
मेरी पीठ पर पड़ती है
मैं
जान जाता हूं
अच्छे बीत रहे हैं
तुम्हारे दिन।
(2)
मैं बहुत खुश था
पर मेरी खुशी,
खुशी नहीं थी
मां की आंखों में आंसू
पिता के चेहरे में उदासी
और भाई के मन में दुख था।
कितना दुखद है
नौकरी के लिए
सब छोड़कर जाना।
वह मेरी यात्रा नहीं
मां के आंसू
पिता की उदासी
और भाई के
दुख: की यात्रा थी।
(3)
मैंने उस दिन जाना
क्या होता है प्यार
उस दिन
न सुबह होती है
न ही शाम होती है
फ़कत
एक अंधेरा होता है।
और अंधेरे में
लौ की तरह
टिमटिमाता इन्तजार ।
(4)
भोर
से पहले
सूरज लाल होता है
रात यदि
सचमुच कष्टप्रद है
तो जरूरी है
हम सबके चेहरों का
लाल होना।
0 राजेश उत्साही
बहुत ही सुन्दर कवितायें...
जवाब देंहटाएंcharo kavitaye soondar. aabhaar.
जवाब देंहटाएंji sir ji
जवाब देंहटाएंyaayaavari kam karte hai.
par karte to hai/
uday tamhane.
बढ़िया हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत कविताएं । धन्यवाद उत्साही जी । याद नही कहाँ लेकिन मैंने ये कविताएं कहीं और भी पढीं हैं ।
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