उधमसिंह नगर में पांच दिन काम करने के बाद शनिवार का
दिन अवकाश का था। यह 20 अक्टूबर,2012 की तारीख थी। रविवार को वापस बंगलौर के दड़बे में वापिसी थी। मुजाहिद, नितिन
भी साथ थे। पहले सोचा था कि कार्बेट नेशनल पार्क जाएंगे। पर यहां आकर पता चला कि
वह तो आम दर्शकों के लिए 15 नवंबर तक के लिए बंद है। स्थानीय साथियों ने सलाह दी
भीमताल,नैनीताल,हरिद्वार कहीं भी चले जाओ।
देखते ही देखते दो तीन लोगों ने हमें घेर लिया और
नैनीताल की सैर के अपने लोकलुभावने ऑफर प्रस्तुत करने लगे। उन्होंने अपनी जेब से
छपी हुई रेटलिस्ट निकाल लीं। वास्तव में वे कम्प्यूटर प्रिंट रहे होंगे। पर ये
छपे हुए अक्षरों का अपने ऊपर इतना आतंक है कि उसे अपन अंतिम सत्य मान लेते हैं।
बहरहाल अपने को पढ़ने के लिए चश्मा लगता है। चश्मा कंधे पर टंगे झोले में था।
हाथ में कैमरा था। तो चश्मा निकालने की जहमत कौन करे। नितिन कन्नड़ भाषी होने के
कारण वैसे ही हिन्दी बोलने में बहुत सुविधा महसूस नहीं करते सो स्वाभाविक रूप से
रेटलिस्ट देखने की जिम्मेदारी मुजाहिद को सौंप दी। वही उनसे बात भी करने लगा। दो
ऑफर थे। सात सौ में चार पाइंट, चौदह सौ में आठ पाइंट। उनके अनुसार इस राशि में
टोलटैक्स के दो सौ रूपए भी शामिल थे। हालांकि टैक्सी को लगभग पच्चीस किलोमीटर
का ही सफर तय करना था। हां समय जरूर लगभग चार घंटे लगने वाला था।
लगभग बीस मिनट के सफर के बाद हम समुद्र तल से लगभग
2600 मीटर की ऊंचाई पर नैना पीक यानी चाइना पीक पर थे। यह नैनीताल की सबसे ऊंची
चोटी है। सामने हिमालय पवर्तमाला की बर्फ से ढकी 6 चोटियां नजर आ रही थीं, बताया
जा रहा था कि इनके पीछे नंदादेवी चोटी है। इनमें कंचन जंघा भी है। दिन के लगभग
सवा दस बज रहे थे। यह दृश्य यूं तो फिल्मों में और किताबों में अक्सर देखा था
पर अपनी आंखों से रूबरू देखने का पहला अवसर था। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि
दृश्य सचमुच मनोहारी था।
अगला पड़ाव था लवर पाइंट या सुसाइड पाइंट। अब हर
ऊंची जगह पर यह पाइंट भी पक्का बन ही गया है। पता नहीं कितने प्रेमियों ने यहां
प्रेमगति (वीरगति की तर्ज पर) प्राप्त की है, पर नाम तो पड़ ही गया है। पचमढ़ी
में हांडीखोह और ऊंटी में डोडाबैट्टा में भी ऐसे पाइंट प्रसिद्धी पा चुके हैं। हम
तीनों ही शादीशुदा हैं सो आपस में मजाक में कह रहे थे यह तो अपने काम का ही नहीं
है। अपन तो प्रेम-व्रेम के बाद शादी करके वैसे ही सुसाइड कर चुके हैं। बहरहाल ऑफर
प्लान में था सो थोड़ा वक्त तो यहां बिताना ही था और जिन्होंने यहां प्रेमगति
प्राप्त की उनकी याद में दो मिनट का मौन भी तो रखना था।
जब वॉटर फॉल के पास पहुंचे तो यह कहने का मन हुआ कि
यह वॉटर फॉल है या उसके नाम पर कलंक। बस कोई पचास मीटर की ऊंचाई से पहाड़ का पानी
झरने के रूप में गिर रहा था। उसके पास जाने के लिए भी पांच रूपए की टिकट थी। नितिन
ने टिकट के विरोध में झरने के पास नहीं जाने का फैसला किया। पर मुजाहिद और मैंने झरने
के बीच जाकर फिल्मी हीरो की तरह एक-दूसरे की तस्वीरें लीं और अपने को ठगे जाने
के अहसास से थोड़ा मुक्त करने की कोशिश की। आठ में से पांच पाइंट हो गए थे। दूर के ढोल सुहावने होते
हैं कहावत चरितार्थ होते हम देख रहे थे।
बहुत हसरत से पैंतीस-पैतीस रुपए की टिकट लेकर गुफाओं
के अंदर गए। वहां जाकर निराशा ही हुई। वास्तव में ये गुफाएं पहाड़ों के बीच बन गई
दरारें थीं, जिनमें ऊपर पत्थर अटक जाने से नीचे खाली जगह बन गई थी। पर्यटन की
दृष्टि से इनमें थोड़ी सीढि़यां आदि बनाकर गुफा का रूप दे दिया गया है। ये गुफाएं
शहर के बीचों बीच ही कुमाऊं विश्वविद्यालय के परिसर से लगी हुई हैं। इसलिए लोगों
के लिए अवकाश के दिनों में समय बिताने का स्थान बन गई हैं। हालांकि इन दरारों के
बीच में घुसकर निकलना एक अनुभव तो था ही। कई जगह घुप्प अंधेरा भी था।
रोपवे के रास्ते में स्कूल से लौटती कुछ बच्चियों
से मुलाकात हो गई। वे एक पुलिया पर बैठकर सुस्ता रही थीं। हम भी उनसे बात करने
लगे। वे सब पांचवीं की छात्राएं थीं। मुझे अचानक याद आया कि उत्तराखंड की पांचवीं
की पर्यावरण विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में मेरी कविता आलू,मिर्ची,चाय जी है
(हालांकि किताब बनाने वाले वहां मेरा नाम देना भूल गए हैं)। मैंने उनसे पूछ लिया।
कविता उन्होंने पढ़ी थी। मैंने कहा अपने बस्ते में से किताब निकालकर दिखाओ। वे
बोलीं, किताब नहीं है क्योंकि परीक्षाएं चल रही हैं। मैं आगे कुछ बोलता उसके पहले
ही नितिन ने मेरा परिचय उनसे उस कविता के लेखक के रूप में करवाया। पता नहीं इस बात
का उनके लिए क्या मतलब था। पर मेरे लिए तो था। मैंने उनके चेहरे और आंखों में एक
तरह की खुशी देखी थी। और यह बात थोड़ी ही देर बाद सच साबित होती दिखाई दी। हम उनसे
अधिक से अधिक पांच मिनट ही बतियाए होंगे।
रोपवे से एक बार फिर नैनी झील का नजारा किया। स्नो
पीक पाइंट से भी हिमालय दर्शन होता है, लेकिन अब तक हिमालय की पर्वतमालाओं पर बादल
छा चुके थे। यहां बाजार वाली दूरबीन तो नहीं थी, पर पर्यटन विभाग की तरफ से एक स्थायी
दूरबीन लगवाई गई है। पांच रूपए देकर आप इसका लाभ उठा सकते हैं। यहां भी हमने पांच
रुपए खर्च किए। पर बादलों के अलावा कुछ नहीं दिखाई दिया। हां कोसी जरूर नजर आई। रोपवे
का किराया डेढ़सौ रुपए प्रति व्यक्ति था। और स्नो पाइंट पर लगभग एक सवा घंटे
रूकने की अनुमति होती है। उसके बाद आपको वापस लौटना होता है।
लगभग तीन बज चुके थे। हमें सलाह दी गई थी कि अंधेरा
घिरने के पहले हल्द्वानी पहुंच जाएं तो बेहतर है। क्योंकि अंधेरे में बस से ऊपर
से नीचे आना थोड़ा जोखिम वाला मामला होता है।
आगे बढ़े तो फुटपाथ पर ऊन के मौजे बुनती एक औरत बैठी
थी। नितिन और मुजाहिद मौजे उलटने-पलटने लगे। संकोच के साथ उन्होंने पूछा, एक फोटो
ले सकते हैं। औरत ने खुशी-खुशी हामी भरी। बाद में उन्होंने मौजे भी खरीदे। पतले
रंगीन तार से छोटी-छोटी सजावटी साइकिलें और साइकिल रिक्शे बनाता एक युवक भी
फुटपाथ पर था। उसकी साइकिलें भी उल्टी-पल्टी। उससे भी पूछा फोटो के लिए। वह बोला,
भैया फोटो खींचने के तो पैसे नहीं लगते। हमारी नैनीताल यात्रा समाप्ति की ओर थी।
या कहें कि समाप्त हो ही गई थी। अब तो बस हमें बस में बैठकर उधमसिंह नगर ही जाना
था। लौटते हुए दोगांव में चाय पीनी थी और पकौड़े खाने थे। (सभी फोटो राजेश उत्साही)
दो साल पहले की अपनी यात्रा में मैं भीमताल तक हो
आया था। सो तय किया कि नैनीताल की सैर की जाए। स्थानीय साथियों ने उधमसिंह नगर से
टैक्सी करने की सलाह दी। पर मेरे युवा साथियों ने इसमें ज्यादा रूचि नहीं ली।
इसके दो कारण थे, पहला तो पक्के रूप से पैसे की बात थी और दूसरी वे यहां की लोकल
बस में बैठकर मनोरम दृश्यों का आंनद लेना चाहते थे।
नैनीताल अधिक नहीं बस 70 किलोमीटर दूर था। यानी बस
से लगभग दो घंटे का सफर करना था। सुबह साढ़े छह बजे हम सड़क किनारे बस की
प्रतीक्षा कर रहे थे। तय किया था कि जो पहली बस आएगी उसमें सवार हो जाएंगे। जो बस
आई वह हल्द्वानी तक जा रही थी। हम उसी में सवार हो गए। बाहर सूरज महाशय भी हमारा
साथ देने के लिए बस के साथ साथ ही चल रहा थे। साढ़े सात के लगभग हम हल्द्वानी के
बस स्टेंड पर थे। वहां से लगी लगी नैतीलाल के लिए बस मिल गई। हल्द्वानी निकलते
ही कोसी नदी नजर आई। और फिर शुरू हुआ पहाड़ी चक्करदार रास्ता। बरसों तक ऐसे एक
ही रास्ते का अनुभव होता रहा था। वह था मध्यप्रदेश में पचमढ़ी जाते हुए। लेकिन पिछले
तीन बरसों में भीमताल से काठगोदाम, राजस्थान में माऊंट आबू, मैसूर में चामुंडी
हिल, ऊंटी में डोडाबेट्टा जाते हुए ऐसा ही अनुभव हुआ।
पहाड़ी रास्ते से ऊपर जाते हुए बस की खिड़की से दूर
दूर तक फैली वादियों को निहारते हैं, तब तक अचानक ही बस मुड़ जाती है और नजरों के
सामने पहाड़ की दीवार आ जाती है। मैं और नितिन अपने कैमरे हाथों में लिए थे और
दृश्यों को कैद करने की कोशिश कर रहे थे। रास्ते में दोगांव मोड़ पर बस रुकी।
ड्रायवर ने चायपानी की घोषणा की। ढाबानुमा छोटी सी दुकान में चाय और पकोड़े आदि
उपलब्ध थे।
हम लगभग नौ बजे नैनीताल की मुख्य झील के सामने थे।
मुख्य झील के एक सिरे पर ही बस अड्डा है। सबसे पहले हमने पेट में कुछ डालने के
बारे में सोचा। सामने गली में पराठे और दही का बोर्ड देखकर हम वहीं समा गए। पेट
पूजा करके निकले तो झील के किनारे जा खड़े हुए। झील के किनारे शिक्षकों का एक धरना
भी चल रहा था।
नैनी झील कभी आम की तरह लगती है तो कभी..... |
जो बंदा था वह भी मुजाहिद का हमउम्र ही था। वह
लगातार पूरे ऑफर के बारे में होटल के किसी सधे हुए वेटर की तरह फटफट सब जगहों के
नाम गिनाने में लगा हुआ था। मुझे उसे कहना पड़ा कि भाई, आराम से बोल। ट्रेन तो
नहीं छूट रही है। बोला, साहब ट्रेन नहीं समय निकल रहा है। ज्यादा देर करेंगे तो
फिर आपको हिमालय दर्शन नहीं हो पाएंगे। नितिन और मैं फोटो लेने में व्यस्त हो गए
और मुजाहिद ऑफर समझने में।
लगभग दस मिनिट की खिचखिच के बाद बंदा हजार रूपए में
तैयार हुआ। टैक्सी में बैठते-बैठते हमें समझ आ गया कि हम ठगे जा रहे हैं। मुजाहिद
आगे बैठा था। मैं और नितिन पीछे। और न ठगे जाएं इसलिए बंदे से मैंने कहा, हम केवल
हजार रूपए ही देंगे, उसके अलावा और कुछ नहीं। उसने सामने लगे शीशे में मुझे ऐसी
नजरों से घूरा जैसे में नैनीताल के जू से भागकर आया कोई प्राणी होऊं। फिर बोला,
हां जी कुछ नहीं देना है। मैंने राहत की बची-खुची सांस ली।
प्लान के मुताबिक वह हमें सबसे पहले हनुमान गढ़ी ले
गया। हनुमान गढ़ी यानी नैनीताल का एक धार्मिक स्थल। जैसा कि आमतौर पर होता है
मंदिर के लम्बे परिसर में हनुमान जी के साथ सारे देवी-देवता मौजूद थे। हमने परिसर
का एक चक्कर लगाया और वापस आ गए।
जन्नत है या जहन्नुम पता नहीं : मनोहारी हिमालय दर्शन |
यहां भी बाजार मौजूद था। बीस रूपए में दूरबीन से
चोटियों के दर्शन करवाए जा रहे थे। मन नहीं माना तो बीस रूपए खर्च करके दूरबीन को
आंखों के आगे लगा लिया। पर नंगी आंखों से देखने में और दूरबीन से देखने में कोई
बहुत ज्यादा अंतर मुझे तो महसूस नहीं हुआ।
किसी ने कहा, वहीं है जन्नत। मैंने नीचे वादी में
नजर डाली और फिकरा कसा, जन्नत वहां नहीं यहां नीचे कूदने पर मिलेगी। सचमुच वादी ऐसी
है कि अगर कोई कूदे तो सीधा जन्नत में ही जाएगा। भई अगर जन्नत नहीं तो जहन्नुम
तो पहुंच ही जाएगा। बहरहाल अपना फिलहाल ऐसा कोई इरादा नहीं था।
बंदे ने कहा चलिए जी हो गए हिमालय दर्शन हमें आगे
जाना है। हालांकि बंदे ने ऑफर देते समय बारबार यह कहा था कि आप हर पड़ाव पर अपने
हिसाब से समय बिताएंगे। जब आप कहेंगे तब ही हम अगले पड़ाव पर जाएंगे। पर अब बंदा
अपने असली रूप में आ चुका था। बहरहाल हिमालय दर्शन तो हो ही चुके थे। सो हमने भी
आगे की राह पकड़ना बेहतर समझा।
कार अब ऊपर से नीचे की तरफ जा रही थी। रास्ते से
नैनी झील नजर आ रही थी। बंदे ने कहा कि देखिए जी यह है मैंगों शेप में नैनी झील।
एक जगह रूककर हमने झील को निहारा,फोटो लिए और फिर आगे के लिए रवाना हुए।
नितिन,मुजाहिद : लवर पाइंट पर दो मिनट का मौन |
इसी पाइंट पर कुछ नहीं तो लगभग सौ घोड़े सवारी के
लिए सजे-धजे तैयार थे। पता चला कि पांच सौ रूपए में नीचे जंगल के अंदर लगभग घंटे
भर की सैर करवाई जाती है।
अगला पड़ाव था वॉटर फॉल । हमारी कार लगातार नीचे की
तरफ जा रही थी। हम सोच रहे थे कि बंदा ले तो जा रहा वॉटर फॉल दिखाने पर लगातार
नीचे जा रहा है। रास्ते में एक जगह चलती कार के अंदर से इशारा करते हुए बंदे ने
बताया यह है लालपत्थर। यहां ट्रेकिंग आदि के प्रशिक्षण के लिए बच्चे आते हैं।
वॉटर फॉल के बीचों बीच : फोटो-मुजाहिद |
अगला पाइंट था प्राकृतिक गुफाएं। गुफाओं के करीब
पहुंचने को थे कि बंदे ने घोषणा की कि साहब आगे शायद पुलिस चेकिंग है। अगर पूछेंगे
तो कहियेगा कि हम सब रिश्तेदार हैं और पुलिस लाइन में रहते हैं। मैंने कहा, यह तो
आप भी कह सकते हैं। बंदा बोला, नहीं जी मुझे तो लोग जानते हैं न। इसलिए आपको ही
कहना होगा कि आप मेरे रिश्तेदार हैं और घूमने आए हैं। मैंने कहा, भई हम तो तुम्हारा
नाम भी नहीं जानते। बोला, मेरा नाम है तन्नु। हमारे पास उसकी बात मानने के अलावा
कोई चारा नहीं था। हमें यह समझ आया कि तन्नु मियां बिना परमिट की गाड़ी में हमें
घुमा रहे थे। उनके पास टैक्सी का परमिट नहीं था। पर अच्छी या कि बुरी बात यह हुई
कि पुलिस चेकिंग के लिए हाजिर ही नहीं थी। हमने राहत की सांस ली कि हमें उल्टा
सीधा कुछ बोलना नहीं पड़ा। वरना पता नहीं क्या पूछते और अपन क्या बोलते।
प्राकृतिक गुफा में मुजाहिद |
हमने तन्नू जी से निवेदन किया कि वे हमें अगले
पाइंट राजभवन दिखाने की बजाय रोपवे स्टेशन पर छोड़ दें। रोपवे उनके प्लान में
नहीं था। वे मान गए और हमें झील से कोई दो किलोमीटर दूर रोपवे स्टेशन जाने वाली
गली के मुहाने पर छोड़कर विदा ले गए।
अंजना, अदिति, अंजली और सपना |
हम स्नो पीक पाइंट पर जाने के लिए रोपवे स्टेशन
में ट्राली का इंतजार कर रहे थे। और इधर-उधर देख रहे थे। नजर आया कि वे सब
बच्चियां दूर ऊपर की ओर जाती हुईं हमें हाथ हिला रही हैं। हमने भी उन्हें हाथ
हिलाकर जवाब दिया। थोड़ी ही देर में ट्राली आ गई। रोपवे की ट्राली एक बार में दस
लोगों को ही ले जाती है। ट्राली में सवार होकर चले तो देखा कि वे अभी थोड़ा और ऊपर
चली गई हैं, और अभी भी हमें हाथ हिलाकर विदा कर रही हैं। मैं पक्के तौर पर कह
सकता हूं जितनी खुशी उन्हें हो रही थी, उतनी ही हमें भी।
ऊपर से नीचे की ओर आती रोपवे ट्राली |
साइकिल रिक्शे भी कतार में हैं.. |
रोपवे की यात्रा के बाद हम पैदल ही नैनी झील के
किनारे माल रोड पर चलने लगे। यह झील के किनारे से थोड़ा ऊपर वनवे था। झील के
किनारे से लगा दूसरी दिशा में जाने वाला रास्ता था। झील के किनारे साइकिल रिक्शा
फर्राटे भर रहे थे। यहां साइकिल रिक्शा की भी प्रीपेड बुकिंग होती है।
माल रोड पर हर तरह के होटल नजर आ रहे थे। खाने के भी
और रहने के भी। दुकानें थीं, कपड़ों की, क्राफ्ट की और अन्य जैसी की होती हैं।
दुकानें फुटपाथ पर भी थीं। हम लोग चलते-चलते यहां-वहां रूक ही रहे थे। एक दुकान
में टोपियां बिक रही थीं। नितिन का कैमरा मुजाहिद के हाथों में था। नितिन ने एक
हैट उठाकर सिर पर रख लिया। वह किसी दक्षिणी भारतीय हीरो की तरह लग रहा था। मुजाहिद ने उसकी फोटो लेने के लिए
एंगल बनाया। दुकानदार ने तुरंत कहा दस रुपए लगेंगे। मुजाहिद ने कैमरा नीचे किया और
नितिन ने टोपी ।
तार की कलाकृतियां |
0 राजेश उत्साही
SOONDAR YATRA.ACHHI JANKARI.BADHAI AAPKO.
जवाब देंहटाएंनैनों में नैनीताल बसे, पर थोड़ा व्यस्त रहे।
जवाब देंहटाएंपुरानी यादें ताज़ा हो गयीं ...आभार राजेश भाई !
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया। चलो, आपके साथ-साथ हमने भी नैनीताल घूम ही लिया।
जवाब देंहटाएंचित्र कुछ कम रह गए न :)
जवाब देंहटाएंji sir ji.
जवाब देंहटाएंKeep on working, great job!
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सुंदर चित्र, सुंदर वर्णन।
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