19 जनवरी, 2013 की सुबह पांच बजे काठगोदाम एक्सप्रेस जब देहरादून स्टेशन पहुंची तो सारा शहर गहरे कोहरे में ढका हुआ था। ठंड पसरी हुई थी। हमें लेने गाड़ी आई थी, जाहिर है कि वह भी ठिठुर ही रही होगी। उसका ड्रायवर शायद मन ही मन हमें कोस रहा होगा, कि इन्हें भी आज ही आना था। मौसम ये तेवर पिछले दो दिनों में ही बदले थे। हम भी क्या कर सकते थे, हम तो अपनी डयूटी पर थे।
स्टेशन से होटल बहुत अधिक नहीं केवल चार किलोमीटर दूर था। कोहरे
की वजह से दस मीटर से ज्यादा दूर का रास्ता नजर ही नहीं आ रहा था। कार ऐसे चल
रही थी जैसे कोई साइकिल रिक्शा हो।
रूदपुर से ट्रेन रात लगभग साढ़े नौ बजे चली थी। मेरी बर्थ थर्ड
एसी कोच के बीच में ऊपर की थी, सो मैं तो आराम से सोकर आया।
पर मेरी सहकर्मी प्रिया को जो बर्थ मिली थी वह साइड की और दरवाजे के पास थी। मुझे
मालूम था कि वहां रात भर आने-जाने वालों का तांता लगा रहेगा। भोपाल से दिल्ली आते
हुए राजधानी एक्सप्रेस में मैं ऐसी एक रात भुगत चुका हूं। पहले मैंने सोचा था कि
उनसे कहूं कि हम बर्थ बदल लेते हैं। फिर मैंने देखा कि मेरे सामने वाली बर्थ पर एक
साहब थे जो अपने लैपटॉप पर कोई फिल्म देखने में मशगूल थे। उनका सोने का कोई इरादा
दिख नहीं रहा था। इसलिए मैंने इरादा बदल दिया था। जाहिर है सो वे ठीक से नहीं सो
सकीं थीं। होटल सिटी स्टार पहुंचते ही उन्होंने ऐलान किया कि वे देर तक सोएंगी।
हम अपने- अपने कमरों में समा गए। मेरी नींद हो चुकी थी। होटल की खिड़की के बाहर भी
कोहरा पसरा हुआ था। मैंने अपने कैमरे में उसे कैद
करने का असफल प्रयत्न किया। फिर
खुद की एक तस्वीर खींची। लैपटॉप खोला और फेसबुक के सहारे यह खबर फैला दी कि
देहरादून में क्या हाल है। आठ बजते-बजते सूरज महाशय निकल आए थे। होटल की छत से जहां तक नजर जाती थी, सड़कों पर पानी भरा नजर आ रहा था। जो इस बात का सूचक था कि कल रात यहां बारिश भी हुई है। मसूरी भी नजर आ रही थी। उसकी चोटियों पर रूई की तरह जमी बर्फ धूप में चमक रही थी। हमारा मन किया हाथ बढ़ाकर उन चोटियों को छू लें। नींद तो हो गई थी, पर हफ्ते भर की थकान शरीर पर हावी थी। पिछले चार सालों से पांच दिन के हफ्ते में काम करने के बाद अब मन के साथ साथ शरीर भी शनिवार को आराम की मांग करता है। रोज की दिनचर्या भी ऐसी है कि पांच दिन पूरे होते-होते मन और तन दोनों टूटने लगते हैं। रोज सुबह साढ़े आठ से शाम के छह बजे तक का दफ्तर। आने-जाने का समय अलग। तय किया कि आज दिन भर आराम किया जाए। अगले दिन इतवार को मसूरी की पहाडि़यों पर जमी बर्फ से मुलाकात की जाए।
ये वादियां बुला रही हैं..हमें... |
उनमें से एक ने सवाल किया, आप
देहरादून से हैं या बाहर से आए हैं। हमने अपना परिचय दिया और बताया कि यहां अज़ीम प्रेमजी
फाउंडेशन में आए हैं। वे बोले, मैं यहीं देहरादून में रहता
हूं, आपके दफ्तर के बिलकुल पास बलबीर रोड पर। ये मेरे रिश्तेदार
हैं, जमशेदपुर से आए हैं। इन्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं।
बातों-बातों में पता चला कि जनाब बीएचईएल में नौकरी करते थे। भोपाल में भी रहे
हैं। कोई दस बरस पहले हरिद्वार,बीएचईएल से सेवानिवृत हुए
हैं और अब देहरादून में ही निवास कर रहे हैं।
वे रास्ते भर पुराने देहरादून की याद करते रहे। पुराना
इतिहास बताते रहे। हमारी नजरें बाहर के नजारों पर लगी हुई थीं और कान उनकी सूचनाओं
पर। उनकी संगत में देहरादून से मसूरी का लगभग घंटे भर का रास्ता अच्छी तरह से कट
गया। मसूरी पहुंचकर हमारे रास्ते जुदा-जुदा हो गए।
हम कैमल बैक हिल की सड़क पर थे। कैमल बैक हिल के नाम से मशहूर यह पहाड़ी दूर से ऐसी लगती है कि जैसे कोई ऊंठ बैठा हो। इसी सड़क के एक किनारे एक शेड बना हुआ था जहां से खड़े होकर सामने फैली पहाडि़यों का देखा जा सकता था। कोने में चाय की एक छोटी सी दुकान भी थी। ऐसे मौसम में चाय..वह भी अदरक वाली..मिले तो क्या कहने। चाय की दुकान में एक महिला थी। हमने भी दो गिलास चाय मांगी। शेड पर जमा बर्फ धूप से पिघलकर पानी बनकर नीचे गिर रही थी। शेड के चारों तरफ ऐसा नजारा था, जैसे बारिश हो रही हो।
बाईं तरफ नीचे घर थे। जिनकी छत पर बर्फ जमा थी। देखने से
ऐसा लगता था, जैसे किसी ने बर्फ का प्लास्टर कर दिया हो। एक घर की छत
पर एक कोने में एक जनाब कोई किताब पढ़ रहे थे। वहीं छत पर जाने वाली सीढि़यों पर
बैठी एक महिला आलू छील रही थी। एक दूसरे घर की छत पर एक कुत्ता चहलकदमी कर रहा
था। ध्यान से देखने पर समझ आया कि वह छत से नीचे आने का रास्ता ढूंढ रहा है, पर रास्ता बंद है। शायद जानबूझकर उसे वहां कैद किया गया
था। थोड़ा और नीचे नजर घुमाने पर
बच्चों का एक समूह बर्फ के गोलों को फुटबॉल की तरह पैरों से नीचे लुढ़काता नजर आया। जो नजारा हमारे लिए कुछ खास था, वही यहां के लोगों का जीवन था। हमने चाय पीते- पीते यह सब देखा।
बच्चों का एक समूह बर्फ के गोलों को फुटबॉल की तरह पैरों से नीचे लुढ़काता नजर आया। जो नजारा हमारे लिए कुछ खास था, वही यहां के लोगों का जीवन था। हमने चाय पीते- पीते यह सब देखा।
अब तक हमें स्टेट बैंक नहीं मिला था। चाय वाली महिला से इस
बारे में दरियाफ्त की। उसने कहा अभी यहां से कम से कम आपको 2 किलोमीटर और आगे जाना
होगा। प्रिया और हम एक दूसरे को देखकर मुस्कराए और चल दिए आगे की तरफ। वैसे भी
हमारे पास कोई और काम तो था नहीं। खोजते-खोजते आखिर बैंक मिल ही गया। सचमुच बैंक
के पास चप्पल जूतों की एक एक दुकान थी।
पर बंद थी। आसपड़ोस में पूछने पर पता चला कि दुकान मालिक तो देहरादून में रहते
हैं। अब क्या करें।
फिर एक फुटपाथ के दुकानदार से बात की। उसे बताया कि हम खास तरह की सेंडिल खोज रहे हैं। उसने बताया कि वह तो आपको लण्ढौर में मिलेंगी। हमने पूछा कितनी दूर है। हाथ के इशारे से दिशा बताई और जवाब मिला यही कोई आधा घण्टा। यानी कि आधा घण्टा लगेगा।
प्रिया ने पूछा, राजेश जी क्या इरादा है। थक तो नहीं गए। मैंने कहा, अपनी सोचिए। अपन तो दिन भर पैदल घूम सकते हैं। हम लोग अब तक लगभग पांच किलोमीटर तो चल चुके थे। लग रहा था कि प्रिया थक गई हैं। पर सेंडिल का मोह उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था। तो हम फिर चल दिए। आगे का रास्ता चढ़ाई वाला था। सामने से आने वाली गाडि़यों को भी जगह देनी थी और पीछे से आने वालियों को भी। ऊपर की तरफ जाने वाले गाडि़यां कहीं-कहीं बर्फ की फिसलन के कारण चढ़ने में दिक्कत महसूस कर रही थीं। ऐसे में उनके पीछे आने वाली गाडि़यों को एक निश्चित दूरी बनाकर चलना पड़ रहा था।
अब तक भूख लगने लगी थी। लेकिन कहीं कोई खाने की दुकान नजर नहीं आ रही थी। जो नजर आती थीं, वे होटलें थीं,जिनमें ठहरने का इंतजाम था। ठहरो तो खाना भी मिलेगा। पतली गलियों में दोनों तरफ दुकानें थीं। आसमान साफ था लेकिन दुकानों की छतों से पानी सड़क पर गिर रहा था, जैसे बारिश हो रही हो। यह छतों पर जमा बर्फ का पानी था। आखिरकार हम खाने की एक ठीक ठाक दुकान खोजने में सफल हो गए। यहां गरम पकोड़े और गाजर का हलवा खाने को मिला। उसके बाद हमने दो गिलास चाय पी और फिर निकल पड़े सेंडिलों की खोज में।
आखिरकार हम लण्ढौर पहुंच ही गए। उन खास सेंडिलों की दो दुकानें हमें मिल भी गईं। आठ बाई आठ की दुकान में चार कारीगर बैठकर खास और आम चप्पलें, जूते बना रहे थे। ठंड से बचने के लिए दुकान के बीचों बीच अलाव भी जल रहा था। प्रिया ने दोनों दुकानों से एक-एक जोड़ी खरीदी। क्योंकि दोनों दुकानों में इस तरह की सेंडिल का स्टॉक नहीं था। दुकानदार का कहना था कि अब इनकी बहुत मांग नहीं है। जब कोई कहता है तो हम बनाकर दे देते हैं। उसकी दुकान में एक फोटो लगी थी, जिसमें वह फिल्म एक्टर अरशद वारसी के साथ नजर आ रहा था। पूछने पर बताया कि अरशद वापसी किसी फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में मसूरी आए थे, और वे तब हमारी दुकान में आए थे। तो अब हमारा अभियान खत्म हो गया था। दुकानदार ने ही हमें बस स्टैंड का रास्ता बताया। यह रास्ता मसूरी के मशहूर माल रोड से आकर मिलता था और फिर वहां से बस स्टैंड पर।
यह भी मसूरी ही है .. |
प्रिया, मैं और दो लड़के जिस तरह से बैठे, उसमें खासी परेशानी हो रही थी। पर लड़कों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, न वे परेशान हो रहे थे। अंतत: मैंने ड्रायवर के पीछे बने गियर बक्से पर बैठने का निर्णय लिया और ड्रायवर की तरफ पीठ करके बैठ गया। पर यह भी कोई आरादायक स्थिति नहीं थी। हां, प्रिया और वे दोनों लड़के अब आराम से बैठे थे। जब लगभग आधा रास्ता पार हो गया तब मुझे लगा कि जैसे मेरा दम घुट रहा है। मुझे समझ आया कि मैं जिस तरह से बैठा हूं उसमें मेरा पेट दब रहा है और सारा खाया-पिया जैसे गले में चढ़ रहा है। मुझे महसूस हुआ कि मैं किसी भी समय जो कुछ मेरे पेट में है उसे सामने बैठे लोगों पर उगल दूंगा। मैंने ड्रायवर से गाड़ी रोकने के लिए कहा। गाड़ी रुकते ही मैं बाहर निकला और खुली हवा में राहत की सांस ली। मैंने ड्रायवर से कहा कि वह पीछे सामान रखने वाली जगह का दरवाजा खोल दे। वहां इतनी जगह थी कि मैं आराम से लेट सकता था। बहरहाल फिलहाल तो मुझे लेटने नहीं, बैठने की जगह चाहिए थी। सो मैं वहीं पैर फैलाकर बैठ गया। मैं सोच रहा था कि सुबह जाते हुए जो दो लोग मिले थे, जो हम उम्र थे। जो हर दस मिनट में पूछते थे कि आपको बैठने में कोई दिक्कत तो नहीं हो रही। और एक ये नौजवान हैं जिन्हें अपने सिवाय किसी और की कोई परवाह ही नहीं है।
पुरानी (एंटिक्र) वस्तुओं की एक दुकान माल रोड पर |
माल रोड पर मसूरी नगरपालिका द्वारा बनवाई गया म्यूरल |
आपके लेख के सहारे एक बार मसूरी भ्रमण हो ही गया।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
हटाएंपूरा मसूरी ही घुमा दिया आपने।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
हटाएंमसूरी की बढ़िया यात्रा
जवाब देंहटाएंमसूरी घुमने का मेरा मन पता नहीं कब से है...अब तो आपकी ये पोस्ट पढ़कर लग रहा है अभी ही चले जाएँ घुमने :) बहुत ही अच्छी पोस्ट!!
जवाब देंहटाएंnamaskaar
जवाब देंहटाएंis bikaner ki garmi ke mousam me aap ke saath in hasi waadiyon me goom kar bada achcha laga .saadar
बहुत सुन्दर मनोरम यात्रा वृतांत ..मैं भी एक बार ट्रेनिंग में मसूरी हो आई हूँ मुझे वे दिन याद आने लगे ...
जवाब देंहटाएंअनुभूतियों से भरपूर अति रुचिकर वर्णन हैं ।
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