अपने काम के सिलसिले में पिछले कुछ दिनों में जब भी दिल्ली से गुजरता
फेसबुक या जीमेल का स्टेटस देखकर मित्र लोग कहते, ‘अरे यार कभी दिल्ली में भी रुक जाया करो...हमसे भी मिल लिया करो।’ पर हर बार यात्रा
का कार्यक्रम कुछ इस तरह होता था कि रुकने का समय ही नहीं होता।
इस बार बंगलौर से उदयपुर के लिए निकला तो यह कहकर निकला था कि फरवरी
के बाद लौटूंगा। इस बीच भोपाल तथा जबलपुर में बेटे के पास रहकर काम करुंगा। लेकिन जनवरी
का आधा महीना तो उदयपुर में ही गुजर गया। भोपाल में एक हफ्ता रहने के बाद जनवरी का
आखिरी हफ्ता उधमसिंहनगर के नाम था। वहां एक कार्यशाला थी। लौटकर भोपाल ही आना था।
बीच कार्यशाला के अंत में शनिवार, इतवार थे और बीच में दिल्ली। सो ऐसा कार्यक्रम बन सकता था कि दिल्ली
में दो दिन तो गुजारे ही जा सकते थे।
अब सवाल था एक रात के बसेरे का। दिल्ली निवासी मित्र बलराम अग्रवाल
जी से इस बात का जिक्र किया, उस समय वे बंगलौर में थे। सुनते ही बोले, ‘अरे यह तो बहुत अच्छी
बात है आइए, स्वागत है आपका दिल्ली में। मैं तब तक दिल्ली पहुंच जाऊंगा।’
इतना ही नहीं उन्होंने अगले ही दिन फेसबुक पर यह स्टेटस डाल दिया, ‘दिल्ली के बालसाहित्यकारों के लिए एक सूचना है।
कवि एवं संपादक भाई राजेश उत्साही 2 फरवरी 2014 को दिल्ली में होंगे। उनसे मिलने
के लिए कनॉट प्लेस में हनुमान मंदिर के सामने स्थित 'कॉफी
होम' को तय किया है। दिल्ली के जो मित्र भेंट करना
चाहें समय सुझा सकते हैं। यों अभी तक हमने दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक का समय
निश्चित किया है। इच्छुक मित्र उनके या मेरे मो॰ नं॰ 8826499115 पर संपर्क कर सकते
हैं।’
***
1 फरवरी को उधमसिंह नगर से लौटते हुए दोपहर साढे़ तीन बजे मैं पुरानी
दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर उतरा। बलराम जी से फोन पर बात हो चुकी थी। चांदनी चौक
से मेट्रो पकड़कर, कश्मीरी गेट होते हुए शाहदरा पहुंचा। स्टेशन के बाहर बलराम जी अपनी
कायनेटिक स्कूटर के साथ मौजूद थे।
नवीन शाहदरा की गलियों से होते हुए लगभग पन्द्रह मिनट बाद मैं उनके
निवास 70 एम नवीन शाहदरा के सामने था। लोहे का किलानुमा फाटक उन्होंने चाबी लगाकर
खोला। मैंने अंदाजा लगाया कि संभवत: बलराम जी आज अकेले ही हैं, इसलिए ताला लगाकर
मुझे लेने स्टेशन आए थे। लेकिन अगले ही क्षण मेरा अंदाजा गलत साबित हो गया। दरवाजे
के दूसरी ओर मीरा जी स्वागत के लिए तैयार थीं। असल में दरवाजे में आटोमैटिक लॉक
है, जो
दरवाजा बंद करते ही लग जाता है और उसे अंदर या बाहर दोनों तरफ से खोला जा सकता है।
बलराम जी का निवास कहने को वन बीएचके से भी छोटा है, पर उसमें तीन मंजिल
होने से पर्याप्त जगह है। बैठक में पांच मिनट गुजरते गुजरते मीरा जी ने पूछा, चाय लेंगे या फिर
भोजन करेंगे। साढ़े चार बज रहे थे। खाने का समय निकल चुका था। इस समय भोजन का मतलब
था, रात का
खाना खराब करना। इसलिए मैंने सोचा कि इस समय तो चाय ही बेहतर विकल्प है।
चाय पीकर हम निवास की सबसे ऊपरी मंजिल पर पहुंच गए। हालनुमा बड़े कमरे
में बिछे गद्दे हमारा इंतजार कर रहे थे। छह बजे हमारी चर्चाएं शुरू हुईं और, बीच में रात के
भोजन का आधा घंटा छोड़कर, रात के एक बजे तक जारी रहीं। बीच बीच में बलराम जी मित्रों को फोन
करके मेरे आने तथा अगले दिन के मुलाकात के कार्यक्रम की जानकारी देते रहे। इस बीच कुछ मित्रों की सलाह पर उन्होंने
दिलशाद गार्डन के डीयर पार्क में सुबह मिलने का कार्यक्रम भी बना लिया और कॉफी होम
के कार्यक्रम का समय दोपहर दो से चार कर दिया।
2 फरवरी की सुबह हम
मीरा जी के हाथ से बने पोहे का नाश्ता कर रहे थे और बलराम जी याद कर रहे थे देवास
के पोहे। एक बार फिर कायनेटिक पर सवार थे हम दोनों। जीवन में यह पहला मौका था, जब मैंने हेलमेट तो
पहना था, पर स्कूटर नहीं चला रहा था। हां जी, दिल्ली में तो पीछे बैठने वाले को भी
हेलमेट पहनना होता है। बाहर सुहानी धूप खिली हुई थी। गंतव्य था डीयरपार्क। श्यामलाल
कॉलेज पार करते करते पूरा इलाका घने कोहरे से ढका नजर आ रहा था। बहरहाल जब निकल ही
पड़े थे, तो लौटने का सवाल नहीं था।
पार्क में पहुंचे तो कोहरे के कारण बहुत कम लोग नजर आ रहे थे। पार्क
के बाहर चाय की दुकान के पास बलराम जी ने स्कूटर खड़ा किया और एक हेलमेट स्कूटर
की डिक्की के हवाले किया और दूसरा चाय दुकान मालिक के।
डीयर पार्क में तीन 'डियर' : भारतेन्दु मिश्र, रमेश आजाद और बलराम अग्रवाल |
पार्क में घुसते हुए उन्होंने नजर दौड़ाई और बोले दो लोग तो नजर आ
रहे हैं। एक हैं भारतेन्दु मिश्र और दूसरे रमेश आजाद। भारतेन्दु जी से मैं पहली
बार मिल रहा था, पर नाम सुना हुआ लगा रहा था। बातों बातों में पता चला कि वे चकमक के
पाठक रहे हैं। मुझे तुरंत याद आ गया। अब कुछ ऐसा रहा है कि जब तक मैं चकमक में काम
कर रहा था तो जो चकमक के ग्राहक थे उनके नाम पते मेरी नजर से गुजरते रहते थे, भारतेन्दु जी का
नाम भी उनमें था। रमेश जी से मैं एक पुस्तक मेले में मिला था और उन्होंने अपनी
बाल कविताओं का संग्रह मुझे भेंट किया था। उन्होंने याद दिलाया कि वे लखनऊ में
आयोजित बालसाहित्य कार्यशाला में भी मुझसे मिले थे। रमेश जी पक्षाघात के कारण स्पष्ट
बोल नहीं पाते हैं, पर जो बोलते हैं वह समझ आता है।
डीयर पार्क में रमेश आजाद, राजेश उत्साही, डॉ.विश्वनाथ त्रिपाठी और भारतेन्दु मिश्र |
बलराम जी ने बताया लगभग हर रविवार को वे लोग इस पार्क में एकत्रित
होते ही हैं। सो नियमित रूप से आने वाले अन्य साथियों को उन्होंने फोन लगाया। पर
कुछ ऐसा संयोग था कि आज के दिन किसी ने बढ़ई को बुलाया था, कोई बिजली का मीटर
ठीक करवा रहा था, तो कोई यात्रा पर था, किसी को सरदी ने दबोचा था तो कोई कोहरे की चपेट में था। जब फोन
पहुंचा तो डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी रजाई में दुबके थे, लेकिन उन्होंने कहा कि वे आ रहे हैं।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद वे अपनी छड़ी टेकते हुए पार्क में नजर आए। उनके आने के
पहले तक हम चार लोग वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर एक दूसरे का सिर माथा खा रहे
थे। उनके आते ही माहौल बदल गया। चर्चा एक दिन पहले संपन्न हुए एक कविता संग्रह
लोकापर्ण कार्यक्रम की ओर मुड़ गई। त्रिपाठी जी उसमें मुख्य अतिथि थे और बलराम जी
संचालक। कुछ समय चर्चा फिर राजनीति पर आ गई। 84 साल के त्रिपाठी जी का उत्साह देखते
ही बनता है। लगभग घंटे भर की चर्चा और चाय के साथ यह मुलाकात सम्पन्न हुई। रमेश जी
ने अपने घर चलने का आग्रह किया। उनसे वादा किया कि अगली बार उनके घर भी चलेंगे। भारतेन्दु
जी, बलरामजी
और मैंने त्रिपाठी को जी सायकिल रिक्शे पर सवार कराकर विदा किया। उसके बाद भारतेन्दु
जी ने अपनी चिरपरिचित पान की दुकान से एक बीड़ा मुंह में दबाया। हमसे भी पान,बीड़ी,सिगरेट,गुटखा आदि का आग्रह किया।
लेकिन बलराम जी और मैं दोनों ही इनसे दूर रहने वाले प्राणी ठहरे, सो हमने एक-एक इलायची
लेकर उनके आग्रह की लाज रखी।
भारतेन्दु मिश्र, बलराम अग्रवाल और डा.विश्वनाथ त्रिपाठी |
भारतेन्दु जी ने आग्रह किया कि अगली बार आऊं तो उनके निवास पर ठहरूं।
मैंने इसे सधन्यवाद स्वीकार किया। फोन नम्बर का आदान-प्रदान हुआ। इस प्रकार आज की
पहली मुलाकात सभा सम्पन्न हुई।
बलरामजी और मैं दोपहर के भोजन के लिए घर वापस लौटे। भोजन करके हम निकल पड़े हम
कनॉट प्लेस के कॉफी होम के लिए। बलराम जी ने शाहदरा मेट्रो स्टेशन पर स्कूटर पार्क
किया और आगे की यात्रा हमने मेट्रो से की। बलराम जी के मेट्रो पास होने के कारण टिकट
की लंबी लाइन में लगने से बच गए।
अनुप्रिया वहां पहुंच चुकीं थीं, बलराम जी ने देखा कि उनके मोबाइल पर उनके चार मिसकॉल हैं। ओमप्रकाश कश्यप
जी भी पहुंच चुके थे। पर वे एक-दूसरे को पहले से नहीं जानते थे। इसलिए दोनों को ही
हमारा इंतजार था।
कश्यप जी और बलराम जी एक-दूसरे से परिचित थे। मैं दोनों से पहली बार मिल
रहा था। आरंभिक परिचय के बाद शुरू हुआ, साहित्य की चर्चाओं का दौर। अनु अपनी ताजा बाल कविताएं लाईं थीं, मुझे दिखाने और उन पर
राय जानने के लिए। अब ऐसे काम के लिए अपन हमेशा तत्पर रहते हैं। संभवत 10 कविताएं
रही होंगी। लगभग दस-पन्द्रह मिनट लगाकर मैंने उन्हें दो-तीन बार पढ़ डाला। और फिर
बलराम जी और ओमप्रकाश की अनुमति लेकर उन पर अपनी राय से अनुप्रिया को विस्तार से अवगत
कराया।
अनु जी कविताओं के विषय नवीन लगे। कहने का ढ़ंग भी नवीन लगा। लेकिन जो
दोष नजर आया वह यह कि लगभग हर कविता के अंत तक आते आते वह कविता एक तरह के नारे में
तब्दील हो जाती है या फिर शिक्षा देने लगती है। चर्चा में अनु जी ने इस बात को माना
और इस ओर ध्यान देने का आश्वासन दिया। इस तरह की कुछ और बातों पर उनसे चर्चा हुई।
बाएं से : राजेश उत्साही,अनुप्रिया,बलराम अग्रवाल और ओमप्रकाश कश्यप कॉफी होम में वटवृक्ष के नीचे |
लगभग दो घंटे चली हमारी इस गोष्ठी में हम कुल चार लोग थे। इसे गोष्ठी
कहना भी उचित नहीं होगा। संज्ञा उपाध्याय और नरेन्द्र मौर्य ने आने का वादा किया
था। लेकिन दोनों ही नहीं पहुंचे। संज्ञा ने बाद में संदेश भेजा कि उनकी आने की पूरी
तैयारी थी, लेकिन ऐन वक्त पर उनके घर ही अतिथि आ गए। और नरेन्द्र ऑफिस में उलझ
गए। सांभर वड़ा, चाय और केसरी हलवे के साथ इसका मुलाकात का समापन हुआ।
फिर वही मेट्रो से राजीव चौक से कश्मीरी गेट और फिर वहां से शाहदरा होते
हुए हम घर पहुंचे। घर पहुंचते ही मीरा जी ने पूछा, अब क्या इरादा है भोजन करेंगे या..साथ ले
जाएंगे..इस बार भी मुझे दूसरा विकल्प ज्यादा उपयुक्त लगा।
हजरत निजामुद्दीन से नौ बजे भोपाल एक्सप्रेस में सवार होना था। बलराम
जी स्कूटर से मुख्य सड़क तक छोड़ने आए। आटो किया। आटो वाले ने डेढ़ सौ बताए..जब बलराम
जी उससे मोलभाव करने लगे तो उसने कहा, साब मीटर के पैसे ही मांग रहा हूं। मीटर से भी इतने ही बनते हैं। हम भी
उसकी बात मानकर बैठ गए.. जाना तो था ही।
अब असलियत यह है कि काले खां सराय स्टेशन के दरवाजे पर पहुंचकर भी मीटर की
घड़ी 97:00 ही बता रही थी। पर जो तय हुआ था, वह तो देना ही था। उस पर बहस करना एक तरह से अनुचित था।
दो दिन की दिल्ली में बलराम जी, मीरा जी का आतिथ्य हमेशा याद रहने वाला है। पर जो नहीं भूलने वाला है
वह यह कि अधिकांश मित्र केवल फेसबुक पर ही मिलने का वादा करते हैं...और जब सचमुच फेस
दर फेस मिलने का मौका आता है तो उन्हें अपना वादा याद भी नहीं रहता।
0 राजेश उत्साही
भेंटें से ही रंग लाती रहें।
जवाब देंहटाएं*ऐसे ही
जवाब देंहटाएंशुरू-शुरू में हर मुलाकात सामान्य लगती है। लेकिन कौन-सी मुलाकात कब इतिहास का हिस्सा बन जाएगी, मालूम नहीं चलता है। इसलिए चरैवेति, चरैवेति---चलते रहो, चलते रहो, मिलते रहो, मिलते रहो…
जवाब देंहटाएंसटीक विचार है।
जवाब देंहटाएं