शनिवार, 6 जून 2009

बंगलौर डायरी


‍बंगलौर आए तीन महीने हो गए हैं। ऐसा लगता नहीं है कि भोपाल छोड़कर बंगलौर में हूं। इसका बहुत कुछ श्रेय शायद मोबाइल फोन को जाता है। लगभग हर रोज नीमा,गोलू,मोलू से बातचीत हो ही जाती है। और किसी न किसी दोस्‍त या परिचित से भी।

फिर भी बंगलौर में ऐसा बहुत कुछ है जो मुझे अलग लगता है।
घर। हां, जहां हम रहते हैं उसे ही तो हम घर कहते हैं। मेरी सुबह ये रातें,जो बंगलौर में बीत रहीं हैं,अब कभी वापस नहीं आएंगी। इन्‍हें जिस छत के नीचे मैं बिता रहा हूं, उसे अगर घर न कहूं तो क्‍या हूं। असल में यह उस जगह का,उस जमीन का अपमान होगा, अनादर होगा। क्‍या घर केवल सामान से बनता है। शायद नहीं। अगर सामान परिभाषा है तो इस घर में मेरे पास सामान के नाम पर दो बैग,सात जोड़ी कपड़े, एक कंबल, दो ओढ़ने की चादर,दो बिछाने की और दो चटाईयां हैं। लेकिन फिर भी मैं वहां रहता हूं। और उसी को घर कहता हूं। केवल मैं ही नहीं हम तीन लोग रहते हैं। बाकी दो के पास तो और भी कम सामान है।

गोपाल रेड्डी काम्‍पलेक्‍स। हां यही नाम है हमारी बिल्डिंग का।ऊपर फोटो में यही बिल्डिंग है। सरजापुर रोड से दक्षिण ‍ दिशा में कोई दो किलोमीटर दूर है यह। और दफ्तर से कोई तीन किलोमीटर। यह दो मंजिला है। हर मंजिल पर तेरह घर हैं। हर घर में 15बाय 15 का एक हाल और 8 बाय 8 का एक कमरा है। हाल के एक हिस्‍से में किचन है। और कमरे से लगा हुआ बाथरूम । हाल पहले है और कमरा तथा बाथरूम उसके पीछे। बिल्डिंग ज्‍यादा पुरानी नहीं है। अभी दोएक साल ही हुए हैं बने। पानी की चौबीस घंटे सुविधा है।

बिल्डिंग के पीछे नीलगिरी का जंगल है। जंगल कहना ही ज्‍यादा उपयुक्‍त होगा। यहां आसपास जितनी खाली जमीन पड़ी है उसमें ज्‍यादातर में नीलगिरी के पेड़ ही लगा रखे हैं जमीन मालिकों ने। कमरे की खिड़की इन्‍हीं नीलगिरी की तरफ खुलती है। रात को बहुत ठंडी हवा आती है इस खिड़की से। नीलगिरी के ये पेड़ इस दो मंजिला इमारत से भी ऊंचे चले जाते हैं। जब तेज हवा चलती है तो इन पेड़ों को झूमते हुए देखना बहुत अच्‍छा लगता है। नीलगिरी की कटारनुमा पत्तियां हवा में एक-दूसरे को काटती हुई झड़ती रहती हैं। कहते हैं नीलगिरी के ये पेड़ जमीन का बहुत पानी सोखते हैं। बंगलौर तेजी से कंक्रीट के व्‍यवस्थित पहाड़ों में तब्‍दील होता जा रहा है। ऐसे पहाड़ जिनकी कंदराओं और गुफाओं में आदिम नहीं आधुनिक मानव रहता है। इन पहाड़ों को बनाने के लिए नीलगिरी के तने की लम्‍बी-लम्‍बी बल्लियां इस्‍तेमाल की जाती हैं। जिसके अच्‍छे खासे दाम मिलते हैं। नीलगिरी का स्‍वभाव भी ऐसा है कि बिलकुल आसमान की दिशा में बढ़ता है। जैसे आज-बाजू देखने की उसको फुरसत ही नहीं होती । इसलिए इस बात की फिकर कौन करता है कि वे पानी ज्‍यादा सोखते हैं।

बिल्डिंग की छत लगभग सौ कदम लम्‍बी है। रात को खाना खाकर मैं उस के ही कोई बीस-पच्‍चीस फेरे लगा डालता हूं। यहां से कोई पांच किलोमीटर दूर से चैन्‍ने जानी वाली रेल लाइन बिछी है। हर रात लगभग दस बजे के आसपास एक सवारी गाड़ी उस पर गुजरती है। कभी-कभी उसके डीजल इंजन के चीखने की आवाज सुनाई देती है तो कभी-कभी पटरियों पर से गुजरते डिब्‍बों का संगीत। अगर उस समय छत पर होता हूं तो दूर से गुजरते डिब्‍बों को देखने से अपने को रोक नहीं पाता हूं। डिब्‍बे नहीं उनके अंदर जलती लाइट दूर बल्‍बों की किसी सीरिज की तरह नजर आती है। पिताजी रेल्‍वे में थे सो सारा बचपन तो रेल्‍वे स्‍टेशनों के आसपास ही बीता है। उसके चलते वह आज भी अपनी सी लगती है। जब रेल याद आती है तो उससे जुड़ी यादों में सबसे पहले बाबूजी और अम्‍मां याद आते हैं।

एक दिन जब शाम को दफ्तर से निकले तो साथी अरूण ने कहा अभी घर जाने का मन नहीं है। मैंने कहा चलो पास का रेल्‍वे स्‍टेशन देखकर आते हैं। अरूण के पास मोटर साइकिल है। बहुत ही छोटा-सा स्‍टेशन। नाम है कारमेलाराम। केवल एक ही लाइन है। अभी इसका विद्युतीकरण नहीं हुआ है। लगभग पंद्रह-बीस मिनट प्‍लेटफार्म पर बनी बैंच पर बैठे रहे। हमसे थोड़ी दूर एक दूसरी बैंच पर एक दम्‍पति बैठा था। शायद मेरी ही तरह उन्‍हें भी कोई याद खींच लाई थी। या बहुत संभव है वे पास की बस्‍ती में रहते हों और इस नीरव वातावरण का आनंद उठाने के लिए वहां आ बैठे हों। कारमेलाराम के छोटे से स्‍टेशन को देखकर बचपन के न जाने कितने दिन फिल्‍म की तरह आंखों के सामने से गुजर गए।

2 टिप्‍पणियां:

  1. CHALIYE HAM BHI AAPKE SATH CHALTE HAIN....AAPKE BLOG KI KHIDKI WALI SEAT PE WO JO TAULIYA PADA HAI NA ...WO MERA HAI.
    SUSHIL SHUKLA

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  2. यायावरी शुरु तो कर दिया है, मगर इसका पेट भरने के लिए खूब यायावरी करनी भी पड़ेगी...

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