गुरुवार, 28 जनवरी 2010

बंगलौर में मकर सक्रांति पर दाल-बाटी की दावत

बंगलौर में यह मेरी पहली सक्रांति थी। होशंगाबाद की नर्मदा नदी,तिल के लड्डू  और घर की दाल बाटी की याद याना स्‍वाभाविक था। सक्रांति यहां भी मनाई जाती है। और पड़ोस के राज्‍य यानी तमिलनाडु में पोंगल के नाम से। सो सक्रांति की छुट्टी तो थी। जिस बिल्‍डिंग में रहता हूं, वहां मेरे दो और साथी ,जो स्‍वयं उत्‍तर भारतीय हैं ,और मकर संक्रा‍ति से अच्‍छी तरह परिचित हैं। हम सब अकेले ही हैं। मेरा परिवार भोपाल में है। और बाकी दोनों की अभी शादी नहीं हुई।


दोनों मतलब सैयद मुनव्‍वर अली मासूम(दूसरे चित्र में यही हमारे मुख्‍य रसोईया हैं) और यशवेन्‍द्र सिंह रावत (पहले चित्र में यही महाशय हैं जो बता रहे हैं कि बाटी बनाने का आयोजन इस घर के अंदर हो रहा है। बाकी सब फोटो इन्‍होंने ही लिए हैं। कैमरा भी उनका है)

योजना बनी कि आज दाल-बाटी बनाई जाए। कंडे की जुगाड़ करना आसान था। क्‍योंकि जहां हम रहते हैं वह बंगलौर का ग्रामीण इलाका ही है। पर फिर लगा कौन इतनी झंझट करे। बंगलौर में कहीं न कहीं जरूर कोई ऐसी होटल या रेस्‍टारेंट या ढाबा होगा जहां बाटी खाने को मिल ही जाएगी। परिचितों को फोन लगाया। एक- दो सूत्र मिले। तैयार होकर निकले कि चलो ढूंढते हैं।


बस पकड़ने के लिए मुख्‍य सड़क पर यानी विप्रो के सामने मोरी गेट तक आना पड़ता है। रास्‍ते में तमाम दुकानें पड़ती हैं। उनमें से एक है सुरेश अंबानी की दुकान। बरतन और घर की अन्‍य तमाम चीजों की दुकान। आते-जाते हम लोग पांचेक मिनट उसकी दुकान पर जरूर रूकते हैं। सुरेश राजस्‍थान का रहने वाला है। हमने उससे पूछा कि बाटी कहां मिलेगी। उसने भी एक-दो जगह बताईं। फिर कहा अरे आप घर में बनाईए न। हमने कहा कैसे? गैस पर कैसे बनाएंगे? हमारे पास तो ओवन भी नहीं है। उसने टोस्‍ट सेंकने वाली एक जाली निकालकर दी और कहा इस पर बनाईए। बाटी बनाओ और इस पर रख दो, उस पर कड़ाई उल्‍टी कर दो। बाटी सिक जाएगी। हम तीनों ने एक-दूसरे को देखा और तय किया कि आज यह प्रयोग हो ही जाए।
रात को भोपाल में पत्‍नी नीमा से मैंने पूछा था कि बाटी बनाने के लिए क्‍या  करना होगा। यह मुझे पता था कि उसके लिए आटा थोड़ा मोटा चाहिए होता है। वह अलग से पिसवाना होता है। नीमा ने कहा था कि अगर मोटा आटा नहीं मिले तो उसमें थोड़ा रवा मिलाने से काम बन जाता है।

तो बस जाली और किराने की दुकान से बाटी के लिए आटा,रवा,घी,अजवायन आदि सब खरीदकर उल्‍टे पांव घर की तरफ रवाना हुए।

आटा गूंथने का काम यशवेन्‍द्र यानी यश बहुत अच्‍छे से करते हैं। पर यह जिम्‍मेदारी फाउंडेशन की हमारी एक और सहयोगी सुवर्णा ने ले ली(इन्‍हें तो आप देख ही सकते हैं,आटा गूंथते हुए)। वह भी उसी बिल्डिंग में रहती थीं। थीं इसलिए कि सक्रांति के दो दिन बाद ही वे मंडिया(पास का एक जिला। जहां उन्‍हें अपना फील्‍डवर्क करना है) चली गईं। आटे में पहले रवा मिलाया,फिर अजवायन और थोड़ा नमक। फिर थोड़ा घी भी डाला।

दाल बनाने की जिम्‍मेदारी सैयद ने ली । क्‍योंकि वे सब्‍जी और दाल बहुत स्‍वादिष्‍ट बनाते हैं। बाटी सेंकने की जिम्‍मेदारी मेरी थी। पहले मैंने बाटी बनाई। उसे देखकर सुवर्णा ने कहा ये ठीक नहीं हैं। मैं बनाती हूं।  

मैंने गैस पर जाली रखकर उस पर बाटियां रखीं। चिमटे से उनको उल्‍टा–पलटा और फिर थोड़ी देर के लिए कड़ाई से ढक दिया। दो घंटे की मेहनत के बाद बाटियां तैयार थीं। एक-एक करके उनको कटोरी में घी का स्‍नान कराया गया। और फिर उसके बाद हम तीनों खाने बैठे। सुवर्णा ने बाटी पहली बार देखी थी। वे अपना उस दिन का खाना खा चुकी थीं,इसलिए उन्‍होंने नहीं खाई।

बाटी थोड़ी कड़क जरूर बनी थीं, पर उससे खाने के आनंद में कोई अंतर नहीं आया। मुझे पता है कि बाटियां देखकर आपके मुंह में भी पानी जरूर आ रहा होगा। तो आप भी कभी यह प्रयोग कर डालिए।


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