रविवार, 22 जनवरी 2012

बिहारी ब्‍लागर बंगलौर में

पिछले तीन साल में तीसरी बार मुझे बंगलौर ट्राफिक को गाली देने का मन हुआ। शनिवार 21 जनवरी की शाम मैं मिलने जा रहा था बिहारी ब्‍लागर यानी सलिल वर्मा से और ट्राफिक था कि चींटी की चाल से खिसक रहा था। मैं बस में बैठा बस खीझ रहा था। वहां लालबाग में सलिल वर्मा और करण समस्‍तीपुरी मेरा इंतजार कर रहे थे।

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जनवरी के शुरू में ही सलिल वर्मा का एक मेल आया था, 'मान्‍यवर मैं 16 से 22 तक बंगलौर में होने वाला हूं।' बस तब से ही तय था कि 21 या 22 जनवरी को बिहारी ब्‍लागर से मिलना ही है। वे अपने काम के सिलसिले में दिल्‍ली से एक कार्यशाला में भाग लेने आ रहे थे। कहीं भूल न जाऊं इसलिए मैंने घर में नोटिस बोर्ड पर उनके नाम की पर्ची लिखकर लगा रखी थी।
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गुरुवार की शाम उनका फोन आया, वे बंगलौर आ चुके हैं।  मैजेस्टिक के पास ठहरे हैं। शनिवार दोपहर तक कार्यशाला से निवृत हो जाएंगे। तय हुआ कि वे उसके बाद फोन करेंगे। वे प्रवीण पाण्‍डेय और सरिता अग्रवाल जी (अपनत्‍व ब्‍लाग) से भी मिलना चाहते हैं, सम्‍पर्क करने की कोशिश कर रहे हैं।मैंने सुझाव दिया कि हम सब लोग लालबाग में मिल सकते हैं। 
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मैं भी इनसे मिलना चाहता था। प्रवीण जी से मुलाकात का कार्यक्रम तो पिछले बरस भी बना था, जब दिल्‍ली से बलराम अग्रवाल आए थे। लेकिन मुलाकात नहीं हो सकी थी। 2010 में अपनी शादी की पच्‍चीसवीं सालगिरह पर मैंने नीमा पर एक लम्‍बी कविता गुलमोहर पर पोस्‍ट की थी। वह कविता पढ़कर सरिता जी ने बहुत मार्मिक टिप्‍पणी की थी। उन दिनों वे विदेश में थीं। वहां से लौटने पर मिलने की बात थी। लेकिन फिर हम जिंदगी की आपाधापी में खो गए। नीमा पर लिखी इस कविता को पढ़कर सलिल भी बहुत भावुक हो गए थे। उन्‍होंने मुझसे नीमा का फोन नम्‍बर लिया था और छोटे भाई की तरह उनसे बात की थी।
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अंतत: शनिवार की शाम लगभग सवा पांच बजे उनका फोन आया कि मिलने की घड़ी आ गई है। सलिल बोले, 'मैं आधे घंटे में लालबाग पहुंच जाऊंगा। करण भी वहीं आ रहे हैं। प्रवीण पाण्‍डेय अपनी प्रशासनिक व्‍यस्‍तताओं के चलते नहीं आ पा रहे हैं। स्‍वास्‍थ्‍य कारणों से सरिता जी का आना भी मुश्किल है।' मैंने कहा, 'कोई बात नहीं मैं पहुंच जाऊंगा। पर मुझे कम से कम एक घंटा तो लगेगा।' जहां में रहता हूं वहां से शाम के समय शहर की तरफ जाकर लौटना थोड़ा मुश्किल होता है। पर मिलना तो था। 
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बस मैं बैठते-बैठते मुझे छह बज गए। लालबाग पहुंचा तो पौने आठ बज रहे थे। सलिल और करण लालबाग के गेट पर ही थे। हर साल छब्‍बीस जनवरी के अवसर पर लालबाग में एक फ्लावर शो आयोजित किया जाता है। फ्लावर शो में भीड़ के कारण लालबाग में प्रवेश समय से पहले बंद कर दिया गया था।
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मैं दोनों से पहली बार ही मिल रहा था। इधर सलिल जी से मेरा भरत मिलाप हो रहा था (या कि खड्गसिंह और बाबा भारती का मिलन) और उधर करण मेरे पैर छू रहे थे। करण को मैं मनोज जी के ब्‍लाग पर पढ़ता रहा हूं, पर यह नहीं मालूम था कि वे बंगलौर में ही रहते हैं। अगले दो मिनट में ही हमने यह तय किया कि सबसे पहले कोई रेस्‍टोरेंट ढूंढा जाए, जहां बैठकर खाना खाएंगे और बतियाएंगे। लालबाग के पास हों और एमटीआर याद न आए, यह हो ही नहीं सकता।


एमटीआर यानी मवाली टिफिन रूम। बंगलौर का प्रसिद्ध दक्षिण भारतीय रेस्‍टोरेंट। हम तुरंत ही उसकी ओर चल पड़े। लेकिन वहां पहुंचे तो पाया कि पचास से अधिक लोग खाने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। जी हां, एमटीआर में खाने के लिए ही नहीं चाय पीने के लिए भी लाइन लगानी पड़ती है। हम सुकून से बतियाना चाहते थे। लगा कि इस भीड़ में यह संभव नहीं होगा। इसलिए वहां से निकलकर कोई दूसरा रेस्‍टोरेंट तलाशने लगे।


सड़क पर चलते हुए सलिल और हम लगातार ब्‍लाग की बातें कर रहे थे। सलिल कह रहे थे कि आजकल ब्‍लाग जगत में सन्‍नाटा सा छाया हुआ है। कई ब्‍लागर जो पहले बहुत सक्रिय थे, अब जैसे चुपचाप हैं। उनका और चैतन्‍य का ब्‍लाग 'संवेदना के स्‍वर' भी आजकल चुपचुप है। जो लोग लगातार लिख रहे हैं, उनकी चर्चा भी चली। करण भी बीच-बीच में बातचीत में शामिल हो रहे थे। शायद वे और सलिल मेरा इंतजार करते हुए इतना बतिया चुके थे कि कुछ बचा ही नहीं था। हम लालबाग के अंदर तो नहीं जा सके पर लालबाग के आसपास ही हमने पैदल इतनी दूरी तय कर ली थी, जितनी शायद अंदर करते।  

करण समस्‍तीपुरी, राजेश उत्‍साही और सलिल वर्मा : खाना पीछे दीवार
पर भी था और सामने टेबिल पर भी। 
आखिर हमने एक रेस्‍टारेंट खोज निकाला- यह था कामथ । पूरे बंगलौर में कामथ रेस्‍टारेंट की भी लोकप्रिय और कामयाब शृंखला है। गनीमत थी कि यहां भीड़ नहीं थी। थोड़ा सुकून था। दक्षिण भारतीय खाना हमारे सामने था। खाना खाते हुए ब्‍लाग की चर्चा चल रही थी। सलिल उतने ही सरल हैं जितने अपनी पोस्‍टों में नजर आते हैं। उनसे बात करना उनकी किसी पोस्‍ट को पढ़ने के समान ही लगा। हां भाषा वे यहां खड़ीबोली ही बोल रहे थे। बहुत समय नहीं था हमारे पास। करण और मुझे बस लेकर अपने ठिकानों को लौटना था। सलिल को भी अपनी होटल। खाने से पेट तो भर गया था, लेकिन मुलाकात से मन नहीं भरा था। शायद मन कभी भरेगा भी नहीं।
                                0 राजेश उत्‍साही
पुनश्‍च:
मुझे याद नहीं कि यह कैसे शुरू हुआ था। सलिल जी ने मुझे बाबा भारती और मैंने उन्‍हें खड्गसिंह संबोधन दिया था। ये दोनों ही सुदर्शन की मशहूर कहानी हार की जीत के चरित्र हैं। सच कहूं तो सलिल जी से मुलाकात के समय ये संबोधन मुझे याद ही नहीं आए। शायद इसलिए कि हम हकीकत में मिल रहे थे। फिर वहां काल्‍‍पनिक चरित्रों का क्‍या काम। बहरहाल हम इस तरह एक दूसरे को संबोधित करते रहेंगे। सलिल जी ने अपनी टिप्‍पणी में यह किया भी है। 

13 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बतायें, उस दिन भरसक प्रयत्न किया था लालबॉग पहुँचने का, पर सारा समय प्रशासनिक बाध्यताओं ने लील लिया..

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  2. सलिल जी से मिलना हर बार एक नए व्यक्ति से मिलने जैसा होता है... सलिल जी अत्यंत सरल और सहज हैं... अपनी व्यस्तता से समय निकलना उन्हें आता है... मुझे तो उनका विशेष स्नेह प्राप्त है... बहुत सुन्दर...

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  3. लेकिन मुलाकात से मन नहीं भरा था। शायद मन कभी भरेगा भी नहीं।...sach jab koi apne jaisa sahaj vykti mil jaata hai phir chand samay ki mulakat kam lagne lagti hai...khair ek baar mulakat se milna-julna aur baaten chal padti hain..
    bahut badiya mulakat ki jhalkiya...

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  4. इस मुलाक़ात का करण वर्शन सुन चुका हूं। सलिल जी, अभी तक अपने पत्ते छुपाए बैठे है, शायद चला बिहारी .... पर ही मिलेगा।

    करण से कहा है, अगली फ़ुरसत में इस मिलन पर कुछ लिखे। देखें मेरा अनुरोध रखता है कि नहीं।

    उसकी और आपकी बात में एक बात तो साम्य है कि करण बता रहा था, आधी दूरी उसकी पांच मिनट में तय हुई, बाक़ी की आधी एक घंटे में। दो-तीन साल में (जब मैं गया था, तब से) लगता है बंगलुरू का नाम के सिवाय बहुत कुछ नहीं ही बदला है।

    कामथ ... आह हैदराबाद में हमने भी खूब चखे हैं कामथ के भोजन का स्वाद!!

    सलिल जी से मिलना सच में एक अच्छे अनुभव से गुज़रना होता है।

    शुभकामनाएं, आप तीनों को!!

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  5. यह मिलन सिर्फ सिर्फ तीन ब्लॉग-लेखकों या स्तंभकारों का ही नहीं था. यह बचपन की पढ़ी एक कहानी के सच होने का भी ऐतिहासिक क्षण था... सुदर्शन जी की कहानी "हार की जीत" के बाबा भारती और खडगसिंह का मिलन... ब्लॉग जगत में सबसे पहला रिश्ता जो मैंने बनाया था वह यही रिश्ता था.. और ये रिश्ता इतना महँगा था कि आज तक इसकी किश्तें चुका रहा हूँ, आपके प्रति अपनी श्रद्धा से! न ऋण चुका सकता हूँ, न उऋण होना चाहता हूँ!!

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  6. मनोज कुमार ने " बिहारी ब्‍लागर बंगलौर में " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    इस मुलाक़ात का करण वर्शन सुन चुका हूं। सलिल जी, अभी तक अपने पत्ते छुपाए बैठे है, शायद चला बिहारी .... पर ही मिलेगा।

    करण से कहा है, अगली फ़ुरसत में इस मिलन पर कुछ लिखे। देखें मेरा अनुरोध रखता है कि नहीं।

    उसकी और आपकी बात में एक बात तो साम्य है कि करण बता रहा था, आधी दूरी उसकी पांच मिनट में तय हुई, बाक़ी की आधी एक घंटे में। दो-तीन साल में (जब मैं गया था, तब से) लगता है बंगलुरू का नाम के सिवाय बहुत कुछ नहीं ही बदला है।

    कामथ ... आह हैदराबाद में हमने भी खूब चखे हैं कामथ के भोजन का स्वाद!!

    सलिल जी से मिलना सच में एक अच्छे अनुभव से गुज़रना होता है।

    शुभकामनाएं, आप तीनों को!!

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  7. सलिल जी से मिलना सच में एक अच्छे अनुभव से गुज़रना होता है।
    ise anubhav se vanchit rahe par baat hotee rahtee hai apanapan jo milata hai sukhad lagta hai .
    Karan se kafee dino se baat nahee ho paaee .
    aapse bhee juda mahsoos kartee hoo kaaran aapne apanee ek tipaanee me Bhagvat Rawat kee dillee walee kavita ka jikr kiya tha vo mere bhai ke abhann mitr hai .
    Karan lagta hai ab vyst kuch adhik hai .
    Aabhar .
    weekend me samay nikalna hum housewives ke liye sambhav nahee hota ye to overtime days hote hai.......:)

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  8. उस संगम की स्मृति अभी तक ताजा है। और कुछ कह नहीं सकता क्योंकि वह एक अनिर्वचनीय आनंद था.... !

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  9. आपके माध्यम से हम भी मिल लिए अपने इन प्रिय ब्लोगरों से...

    नीरज

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  10. यह अपनत्व बना रहे.सुन्दर विवरण.

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  11. बाबा भारती,खड़क सिंह और देसिल बायना के रचियता की इस मुलाकात से रु-बरु कराने के लिए आभार...आत्मीय मिलन...ब्लॉगर बंधु मिलन यूं ही होता रहे...

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  12. अच्छी मुलाकात, आपकी भी और आपके माध्यम से हमारी भी।

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