रविवार, 5 फ़रवरी 2012

कोई मिलने के लिए बिछुड़ता है, तो कोई बिछुड़कर मिलता है..


पिछले कुछ दिनों से बंगलौर में अब शनिवार-रविवार जैसे काटने को दौड़ने लगे हैं। मैं उनसे हर संभव बचने की कोशिश करता हूं। कहने को तो इन दिनों अवकाश होता है, पर वे काटे नहीं कटते। ऐसे में अगर किसी से मिलने-जुलने का कार्यक्रम बन जाए तो लगता है, जैसे वीराने में बहार आ गई।  
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शनिवार 4 फरवरी को महत्‍वपूर्ण बनना ही था, सो वह बन गया। ब्‍लागर अभिषेक बंगलौर छोड़कर आठ फरवरी को दिल्‍ली जा रहे हैं। हम लोग एक-दूसरे को ब्‍लाग के माध्‍यम से ही जानते रहे हैं। कभी मिलना नहीं हुआ। सो शनिवार की शाम को फोरम मॉल में मिलना तय हुआ था। शुक्रवार की शाम उनका संदेश आया कि व्‍यस्‍तता की वजह से वे नहीं आ पाएंगे। मैं हफ्ते भर से इस शनिवार का इंतजार कर रहा था। लेकिन संदेश पाकर उदासी और बढ़ गई। उदासी का एक कारण और था। पिछले लगभग ढाई साल से बिल्डिंग में साथ रह रहा सैयद मुनव्‍वर अली मासूम बंगलौर से देहरादून स्‍थानांतरित हो गया है। वह भी शुक्रवार की शाम को रवाना हो गया था।
मासूम (लालटी शर्ट में) भी एक दिन भजिए तलने खड़े हो गए थे। 
लगभग हर रोज हम दोनों का कार्यालय जाना और वापस आना साथ-साथ ही होता था। शुरू- शुरू में शाम को लौटते वक्‍त रास्‍ते में बरतन वाले की दुकान पर बैठकर पांच-दस मिनट बैठकर गप्‍प करना और चाय पीना हमारा रोज का शगल था। फिर वह छूट गया तो किराने की दुकान पर रुकने का क्रम बन गया। चाहे खरीदना कुछ भी न हो। पर जब तक हम दुकानदार से बोल-बतिया न लें, लगता कुछ अधूरा है। फिर वहीं दुकान के पास एक भजिये का ठेला लगने लगा। कभी-कभार उसके भजिए भी खा लेते। पर उससे दुआ-सलाम का सिलसिला रोज ही होता। शनिवार और रविवार साथ ही बीतते थे। बंगलौर की बहुत सारी जगहें हम साथ-साथ ही घूमने गए। थियेटर में फिल्‍म देखने भी साथ ही जाते थे। कई बार खाना साथ बनाते और खाते। वर्ल्‍डकप के दौरान मासूम ने टीवी भी खरीद लिया था। जब वह बंगलौर से बाहर जाता,घर की चाबी मुझे दे जाता। तो कुछ शामें उसके घर में टीवी के सामने बीततीं। अब वह नहीं होगा। तो यह सब भी नहीं होगा। और होगा भी तो अधूरा-सा लगेगा। सु‍बह-शाम उसका सर सर बोल कर ‘सर’ खाना याद आता रहेगा।
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शुक्रवार की रात देर तक लैपटाप को अपने पे बिठाए रखा। नतीता शमेरे मोबाइल की कॉलर टयून बज रही थी, रिमझिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन। स्‍क्रीन में एक अनजान नंबर था, उठाया तो उधर से एक महिला की आवाज थी।
‘गुरु जी पहचानो मैं आपकी शिष्या बोल रही हूं। आखिर मैंने आपको ढूंढ ही लिया।’  
मैं पहचानने की कोशिश कर रहा था। वह बोले जा रही थी और मैं शब्‍दों को पकड़ने की जुगत में था।बोलने के अंदाज और शब्‍दों के उच्‍चारण के आधार पर दो-तीन नाम लिए। पर सब गलत थे।
वह बोली रहने दीजिए, ‘गुरु भूल ही जाते हैं, पर शिष्‍य तो याद रखते हैं। मैं ही बताए देती हूं -मैं सरिता हूं।’  
‘सरिता, लखनऊ से?’   
‘हां।’
मैंने कहा, ‘तुम्‍हारी आवाज तो बहुत भारी हो गई है, जैसे कोई चालीस बरस की महिला बोल रही हो।’
‘पर मैं तो अब भी वैसी ही हूं।’  
बालसाहित्‍य कार्यशाला में  स्‍वाति और सरिता (दाएं) के साथ : दोनों ही
नालंदा में काम करती थीं।
दुबली-पतली सांवली- सी एक लड़की की छवि आंखों में भर आई। कोई 9 बरस बीत गए उससे मिले। लखनऊ में नालंदा द्वारा आयोजित कार्यशाला में मिली थी वह। सरिता भी नालंदा में ही काम करती थी उस वक्‍त। उसे भी कहानियां लिखने का शौक है। वह अपनी कविताएं और कहानियां मुझे भेजती रहती थी। मैं अपने नजरिए से उन पर उसे सलाह देता रहता था। यह सिलसिला कोई दो-तीन साल चला। बस तभी हमारे बीच गुरु-शिष्‍या का रिश्‍ता बना था। फिर सरिता अचानक जैसे गायब ही हो गई। लखनऊ के साथियों से तरह-तरह की सूचनाएं मिलीं। किसी ने कहा वह अमुक संस्‍था में है, तो किसी ने कहा वह लखनऊ में नहीं है। किसी ने कहा वह अपने गांव चली गई है। हां, लखनऊ के पास के किसी गांव की रहने वाली थी। इस दौरान कई बार लखनऊ जाना हुआ। पर सरिता नहीं मिली। मैं उसे भूला तो नहीं था। उसका एक फोटो मेरे पास था। इसलिए एलबम में वह नजर आ ही जाती। 
वह बता रही थी। मुझसे बात करने के लिए उसने दो-तीन बार एकलव्‍य में फोन किया था। पर हर बार उसे जवाब मिला, वे अब यहां नहीं है। उसकी हिम्‍मत नहीं हुई यह पूछने कि‍ अब कहां हैं। या उनका नंबर कैसे मिलेगा। इस बार उसने हिम्‍मत करके पूछ ही लिया। नंबर मिला कबीर (मेरे बेटे) से। कबीर भी नंबर देते हुए संकोच कर रहा था। सरिता ने कहा, वे मेरे गुरु हैं।
मैंने कहा, ‘मैं तो तुम्‍हें याद करता ही रहता हूं।’
वह बोली, ‘कैसे?’
मैंने भी कहा, ‘सोचो।’
बोली, ‘कोई नदी होगी आपके आसपास।’
मैंने कहा, ‘नहीं।’
बोली, ‘फिर आप सरिता,मुक्‍ता पत्रिका पढ़ते होंगे।’  
मैंने कहा, ‘नहीं जब तुम्‍हारी जैसी सरिताएं पढ़ने के लिए हों तो फिर कागज की सरिता कौन पढ़े।’  
वह हंसकर बोली, ‘आप तो रोमांटिक हो रहे हैं।’  
मैं भी जवाब में हंस ही दिया।
पूछा, ‘और क्‍या हाल है।’ 
बोली, ‘बाड़मेर में थी। आजकल अहमदाबाद में हूं। हाल ही मैं इधर आई हूं। एक संस्‍था में।’  
‘अच्‍छा एक से दो हुईं या नहीं।’  
‘दो तो नहीं पर डेढ़ हो गई हूं। एक बिटिया है मेरी।’
‘बिटिया, अरे वाह।’
‘बस ये मत पूछिए कहां से आई, कैसे आई।’
‘नहीं पूछूंगा।’  
‘साढ़े चार महीने की थी जब मैं उससे पहली बार मिली थी।’ सरिता बोली, ‘अब साढ़े चार साल की है।’  
‘क्‍या नाम रखा है उसका।’  
‘वीरांगना।’  
‘अरे कुछ सरल, सहज नाम रखतीं अपने नाम की तरह।’
‘मैं चाहती हूं कि वह जीवन में कठोर बने,साहसी बने,दृढ़ बने।’
‘चलो यह भी ठीक है। हम जो अपने में नहीं देख पाते, सोचते हैं हमारे बच्‍चे वैसे बन जाएं।’
‘हां दा, अब तो यही मेरी दुनिया है।’   
अचानक ही सरिता ने मुझे दा संबोधन दे दिया था। पहले तो वह मुझे सर कहकर ही बुलाती थी। गुजरे सालों ने उसे शायद बहुत कुछ सिखा दिया था। आमतौर पर मैं महिला मित्रों से ऐसा कोई भी संबोधन नहीं चाहता हूं जो किसी एक रिश्‍ते में बांध दे। लेकिन मैं समझ सकता हूं एक महिला के लिए और खासकर उसके लिए जो एकाकी जीवन जी रही हो, अपने परिचित पुरुष को कोई न कोई संबोधन देना सामाजिक अनिवार्यता बन ही जाती है। अन्‍यथा तमाम तरह के सवाल मुंह बाए खड़े होते हैं।
यह वीरू नहीं सोमू (सौम्‍या) है ,छोटी बहन ममता की बेटी। पर यह भी
बतियाने मे वीरू से कम नहीं । 
सरिता बता रही थी, ‘मैं उसे प्‍यार से वीरू बुलाती हूं।’
‘यह तो ठीक है। माना कि वह तुम्‍हारी बिटिया है। पर तुमको भी उसकी मां बनना पड़ेगा। वो तुम हो या नहीं?’
‘अब यह तो आप उससे मिलेंगे,तब खुद ही पूछ लीजिएगा।’  
तभी फोन में उसकी आवाज आने लगी। वह मां से कुछ कहना चाह रही थी और सरिता थी कि मुझसे बतियाए जा रही थी।
मैंने कहा, ‘पहले वीरू की बात सुन लो।’ फिर अचानक ही मैंने कहा, ‘उससे बात कराओ ना।’  
फोन वीरू को देते हुए सरिता बोल रही थी, ‘ये राजेश उत्‍साही अंकल हैं, बात करो इनसे।’  
‘क्‍या कर रही हो वीरू।’  
‘मैं तो मम्‍मा की गोद में बैठी हूं।’  
‘तुम्‍हें खाने में क्‍या अच्‍छा लगता है।’ मैंने बात बढ़ाने के लिए पूछा।
‘एग।’  
‘और मिठाई में।’  
‘गुलाब जामुन।’ 
‘बाजार से लाती हो ?’
उसका जवाब था, ‘ नहीं मम्‍मा बनाकर खिलाती हैं।’   
‘हमें भी गुलाब जामुन खाना है।’  
‘अभी तो नहीं हैं। जब बनेंगे तो आप आ जाना।’  
‘तुम हमें फोन कर देना हम आ जाएंगे।’  
‘हां ठीक। बस एक दिन रखेंगे हम आपके लिए।’  
‘अच्‍छा स्‍कूल जाती हो क्‍या?’  
‘नहीं तो।’
‘तुम्‍हारे दोस्‍त हैं?’  
‘हां हैं।’  
‘कितने दोस्‍त हैं?’  
‘फाइव।’  
‘उनके नाम क्‍या हैं?’  
‘कोमल,नेहा,........’  उसने सबके नाम बताए। पर मैं याद ही नहीं रख पाया।
‘पहले हम बाड़मेर में थे। अभी मम्‍मा की जॉब लग गई है न अहमदाबाद में, इसलिए यहां आ गए है।’  
‘मम्‍मा क्‍या काम करती हैं।’  
‘अरे बस मीटिंग मीटिंग करती हैं और बेचारी बोर हो जाती हैं।’  
‘तो तुम उन्‍हें कविता,कहानी नहीं सुनाती हो?’  
‘सुनाती हूं न। कभी मम्‍मा भी सुनाती हैं और कभी मैं भी।’
‘हिन्‍दी में या अंग्रेजी में?’
‘दोनों ।’
‘और गुजराती में?’
‘वो तो मुझे नहीं आती। नेहा को आती है।’
फिर वो बताने लगी कि उनकी रसोई में गुजराती में लिखा है कि यह पीने का पानी है।   
‘अच्‍छा बंगलौर कब आओगी।’  
‘दिवाली में।’  
‘दिवाली तुम्‍हें अच्‍छी लगती है।
‘हां दिवाली में पटाखे फोड़ना अच्‍छा लगता है।’  
‘तुम क्‍या चलाती हो चकरी,फुलझड़ी,अनार।’  
‘नहीं ये तो मम्‍मा चलाती हैं हम तो बस बम फोड़ते हैं।’  
‘अच्‍छा।’  
‘अच्‍छा हम आपके लिए गुलाब जामुन लाएंगे और आप हमारे लिए पटाखे खरीदकर रखना।’  
‘ठीक है।’  
ऐसा कहकर उसने फोन अपनी मम्‍मी को दे दिया।
वीरू से बात करते-करते मेरी आंखें भर आई थीं। बहुत कम बच्‍चे फोन पर इतने अच्‍छी तरह से बात करते हैं। साढ़े चार साल की वीरू जिस तरह बात कर रही थी,बिना रुके,बिना अटके,बिना अपनी मां की मदद के, वह मेरी लिए अनोखा अनुभव था।
मैंने सरिता से कहा वीरू की यह जो चंचलता है इसे बचाकर रखना। इसे दबाना मत। मैंने कहा वीरू और तुमसे बात करके मेरा आज का दिन सार्थक हो गया। सरिता ने कहा, ‘दा आपको खोज लिया है, अब लगातार संपर्क में रहूंगी।’
                           0 राजेश उत्‍साही     

10 टिप्‍पणियां:

  1. परिचितों को खोज लेना एक उपलब्धि है और निष्कर्ष अनवरत प्रसन्नता, वीरू से तो बात करने का मन हो रहा है..

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    1. प्रवीण जी। जरूर। संभव हुआ तो मैं आपकी बात भी वीरू से करवाऊंगा।

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  2. बहुत अच्छा लगा ये लेख ... दिल में इच्छा शक्ति ही प्रेरित करती है ...

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  3. बहुत मार्मिक आलेख है। मासूम देहरादून चले गए, उन्हें भी आप की याद बेशक बहुत आती होगी। वह यथा नाम तथा गुण हैं। सरिता और वीरू की कथा ने मन को मोह लिया। आपने सरिता से जो कहा, वही मुझसे बाबा नागार्जुन ने मेरी बेटी (अपेक्षा) का नाम सुनकर कहा था-नाम को सरल होना चाहिए। मैं एक बार फिर सरिता से कहता हूँ, बिटिया का नाम 'वीरू' भी बुरा नहीं है, यही 'लॉक' कर दें।

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  4. पता नहीं इतनी रोचक पोस्ट पढ़ने में इतनी देर कैसे हो गयी....अपडेट्स ही नहीं दिखे...
    सरिता का परिचय बहुत अच्छा लगा...किसी महिला को अपनी शर्तों पर जीवन जीते देख....बहुत ही ख़ुशी होती है.

    वीरू की बातें तो मन मोह लेने वाली हैं ही...ढेरो शुभकामनाएं

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  5. rashmi ravija

    पता नहीं इतनी रोचक पोस्ट पढ़ने में इतनी देर कैसे हो गयी....अपडेट्स ही नहीं दिखे...
    सरिता का परिचय बहुत अच्छा लगा...किसी महिला को अपनी शर्तों पर जीवन जीते देख....बहुत ही ख़ुशी होती है.

    वीरू की बातें तो मन मोह लेने वाली हैं ही...ढेरो शुभकामनाएं

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  6. पिछले कुछ दिनों से बंगलौर में अब शनिवार-रविवार जैसे काटने को दौड़ने लगे हैं। मैं उनसे हर संभव बचने की कोशिश करता हूं। कहने को तो इन दिनों अवकाश होता है, पर वे काटे नहीं कटते। ऐसे में अगर किसी से मिलने-जुलने का कार्यक्रम बन जाए तो लगता है, जैसे वीराने में बहार आ गई....sach aap is samay ka yaadon ko taaja kar badiya sadupyog kar lete hain.....ek ham hai samay nikalla behad mushkil...
    khair bahut achhi yaadon ki aatmik prastuti.....
    blog post mein aapka aatmik sneh dekhte hi banta hai...

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  7. अति रोचक व मर्मकों छूने वाला यह यादों का कारवां ,चलते जाएँ पर हाथ न छूटे इनका ।

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  8. बेहद खूबसूरत पोस्ट..

    अगली बार शायद जल्द ही आना हो बैंगलोर, बिना आपसे मिले नहीं जाऊँगा, वादा रहा ये!!

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