शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

मिलना दो बालाओं ऊर्फ बलाओं से




मुलाकात तो छोटी-सी ही थी पर हुई तो ऐसी कि यादगार बन गई। 30 सितंबर की रात को दिल्‍ली से निशु का फोन आया कि,
-    चार-पांच दिन की छुट्टियां हैं, कहीं कोई वर्कशाप वगैरा हो रही हो तो बताइए।
-    अरे अब ये छुट्टियां तो त्‍यौहारों की है, लोग त्‍यौहार मनाएंगे कि वर्कशाप करेंगे!
-    हां ये बात तो है। तो आप क्‍या कर रहे हैं।
-    मैं तो भोपाल जा रहा हूं।
-    अरे वाह! कब !
-    2 को व्‍हाया तुम्‍हारी दिल्‍ली होते हुए। तीन घंटे दिल्‍ली एयरपोर्ट पर रहूंगा, समय मिले और संभव हो तो आ जाओ मिलने।
-    अरे, ये तो बहुत बढि़या है। चलो एक छुट्टी को ठिकाने लगाने का इंतजाम हो गया। आती हूं और ईशा को भी पकड़ लाऊंगी।

बहरहाल तय हुआ कि दिल्‍ली के इंदिरागांधी अंतरराष्‍ट्रीय हवाई अड्डे के यात्री प्रतीक्षालय में मुलाकात होगी।

निशु से परिचय फेसबुक के जरिए ही हुआ था। हां यह अलग बात है कि वह एकलव्‍य और चकमक से बहुत अच्‍छे से परिचित है। जब चकमक से परिचय है तो हमसे होना ही ठहरा। इतना ही नहीं वह जिस निजी स्‍कूल में पढ़ाती है, उसकी एक पाठ्यपुस्‍तक में आलू मिर्ची चाय जी भी शामिल है। तो बीच-बीच में निशु से दो-तीन बार फोन पर लंबी गपशप भी हुई। फेसबुक पर भी उसके स्‍टेटस देखता रहा हूं। और ब्‍लाग भी पढ़ा है। उसकी बातें, तर्क, विचार, दुनिया को देखने का नजरिया सुन-जानकर मेरा मन हुआ कि इन मोहतरमा को केवल सुनना ही नहीं मिलना भी चाहिए। 

ईशा और निशु सहपाठी और सहकर्मी हैं। पर ईशा से बस फेसबुक का परिचय ही था, कभी बात नहीं हुई थी। हां वह कबीर की अच्‍छी मित्र हैं। निशु की तरह वह भी एकलव्‍य और चकमक से परिचित हैं। असल में दोनों मिरांडा हाउस में बीएलएड की छात्राएं रही हैं। पिछले कुछ सालों में बीएलएड की छात्राएं शैक्षिक भ्रमण पर एकलव्‍य आती रही हैं। 

बंगलौर से दिल्‍ली की उड़ान दस मिनट लेट चली थी, पर वह टाइम पर यानी पौने  चार बजे पहुंच गई। वहां उतरकर जब फोन को साइलेंट मोड से बाहर निकाला तो पहला संदेश मिला कि दिल्‍ली से भोपाल की उड़ान साढे छह की बजाय अब आठ बजे जाएगी। उड़ान के लेट होने की सूचना से आमतौर पर खुशी देने वाली नहीं होती। पर आज खुशी ही हुई कि चलो मुलाकात के लिए थोड़ा और वक्‍त मिल जाएगा। निशु को फोन लगाया तो पता चला कि वे लोग अभी एयरपोर्ट एक्‍सप्रेस-  वे यानी मेट्रो में हैं। मैं बाहर निकलकर उनकी प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी ही देर में दोनों हाजिर थीं। मैंने उन्‍हें उड़ान के लेट होने की शुभ सूचना दी तो वे भी खुशी से उछल पड़ीं। तय किया गया कि अब हम यात्री प्रतीक्षालय में ही नहीं बैठे रहेंगे। अगली उड़ान में इतना वक्‍त है कि कहीं बाहर जाकर वापस आया जा सकता है। निशु ने अपनी किसी अन्‍य मित्र से बात की और जानकारी ली। तय हुआ कि द्वारका सबसे नजदीक है, वहां रेस्‍टोरेंट हैं। 

मेट्रो लेकर हम द्वारका पहुंचे। दिल्‍ली से अपरिचित। आटो वाले से,साइकिल रिक्‍शा वाले से जिससे भी बात करनी हो निशु आगे बढ़कर बेधड़क, बेझिझक बात कर रही थी। उसका यह आत्‍मविश्‍वास देखकर अच्‍छा लग रहा था। वह अपनी बातचीत में,विचारों में जैसी है वैसी ही व्‍यवहार में। ऐसा बहुत कम होता है। बनस्बित ईशा कुछ शांत और थोड़ा-सा कम बोलने वाली लगी। (अब यह मेरा भ्रम भी हो सकता है) लेकिन आत्‍मविश्‍वास उसके चेहरे से झलकता है। मैंने उसे किसी मित्र को फोन पर कहते सुना...अरे तू फिकर मतकर अपन निपट लेंगे उससे। मतलब  यह  कि मैं दिल्‍ली की दो बालाओं के साथ था। 

हमें द्वारका के सेक्‍टर 12 में जाना था। पर किसी ऑटो वाले से बात नहीं बनी। अंतत: एक साइकिल रिक्‍शा वाले की सलाह पर उसके ही रिक्‍शे ही सवार होकर हम स्‍टेशन के पास ही दिख रहे एक बाजार की ओर रवाना हुए। बाजार में दोपहर के खत्‍म होते अवकाश जैसा माहौल था और कुछ शायद गांधी जयंती (यानी ड्राय-डे)  का असर। दुकानें उनींदी सी थीं। हम लोगों ने एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक चक्‍कर लगाया। दुकानों में या उनके सामने जो लोग अलसाए से बैठे थे, उन्‍होंने हमें ऐसे देखा, जैसे हम चिडि़याघर से भागकर आए हैं। निशु लगभग हर दुकान में जाकर यह पूछ रही थी कि यहां कोई ऐसी दुकान है, जहां बैठकर जीमा जा सके। आखिरकार  तय हुआ कि खाना पैक करवा लिया जाए और सामने दिख रहे पार्क में उसे जीमा जाए। हमारे इस विचार से दुकान वाला सहमत नहीं दिखा। उसने हमें ऐसा न करने की सलाह दी। अलबत्‍ता उसने वैकल्पिक सुझाव दिया कि उस पार्क के बाजू में दिख रहे एक उजाड़ पार्क में हम अपने भोज का आयोजन कर सकते हैं। 

खाने का आर्डर देकर हम पार्क में चले गए। दुकानदार ने कहा कि वह खाना वहीं दे देगा।
पार्क में शाम की सैर करने वाले लोग आ चुके थे। बहरहाल हम घास पर बैठकर अपनी गपशप में लग गए। घर, परिवार, पढ़ाई आदि की बातें होने लगीं। किस के घर में कौन है...क्‍या कर रहा है आदि आदि। जब ये बातें खत्‍म हो गईं तो फिर शुरू हुआ, किस्‍सों का सिलसिला। जाहिर है वे दोनों मुझसे एकलव्‍य,चकमक और मेरे आजकल के कामधाम के बारे में जानना चाहती थीं। पिछले कुछ सालों में अपन ने यह महसूस किया है कि अपन एक अच्‍छे किस्‍सागो हैं। हां यह अलग बात है कि अपने किस्‍से में इतनी पगडंडियां आती हैं कि मुख्‍य सड़क से बार-बार नीचे उतरना पड़ता है। पर अपन ने अब इसका भी ध्‍यान रखना सीख लिया है। अपन जल्‍द ही मुख्‍य किस्‍से पर लौट आते हैं। किस्‍सों के बीच हमने अपने भोज के लिए उपयुक्‍त जगह ढूंढने का अभियान भी चलाया और इस चक्‍कर में अपनी दुनिया में मशगूल एक जोड़े को डिस्‍टर्ब भी किया। खाने का मीनू तो हमने तय किया था, पर कहना भूल गए थे कि उसमें मिर्च-मसाला और तेल कम रखना। निशु और ईशा तो सी..सी करने लगीं। बहरहाल जैसे-तैसे खाया। दाल तड़का और मिक्‍स वेज आखिरकार बच ही गई। उसे हमने संभाल लिया और तय किया कि किसी जरूरतमंद को दे देंगे।

इस बीच जेट एयरवेज ने एक और शुभ सूचना भेज दी थी कि आठ बजे की फ्लाइट अब साढ़े नौ बजे जाएगी। शाम गहराने लगी थी। हमने स्‍टेशन का रुख किया। रास्‍ते में हमें बचे हुए खाने का एक सुपात्र नजर आया। जब ईशा ने उसे देने का प्रयास किया तो उसने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि आज तो जगह-जगह भंडारे में इतना खाया है कि अब पेट के भंडार में जगह नहीं है। हम वापसी की यात्रा पैदल ही कर रहे थे। अंतत: सड़क के किनारे की एक बस्‍ती में वह खाना हमने एक बच्‍चे को सौंपा। द्वारका स्‍टेशन पहुंचते-पहुंचते सात बज चुके थे।

ईशा के पिताजी का फोन आ रहा था, उन्‍हें शायद दिल्‍ली से बाहर जाना था। मेरी फ्लाइट जाने में अब भी ढाई घंटे बाकी थे। मैंने दोनों से कहा कि अब वे लौट जाएं, मैं भी एयरपोर्ट की तरफ निकलता हूं। पर वे नहीं मानीं और एयरपोर्ट तक छोड़ने साथ आईं। वे चाहती थीं कि जितना अधिक समय मेरे साथ रह सकें..उतना अच्‍छा। चाहते तो हम भी यही थे। पर सब कुछ चाहने से तो नहीं होता। जैसे ईशा ने चाहा था कि अपन एयरपोर्ट पहुंचकर एक-एक कप कॉफी पियेंगे। पर फिर यह चाहत रह ही गई...शायद अगली मुलाकात के लिए।
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अब 28 को बंगलौर वापसी भी दिल्‍ली होकर ही है...तीन घंटे का पड़ाव एयरपोर्ट पर है..वादा तो किया है निशु ने मिलने का।




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