29 अप्रैल,15 की शाम को उदयपुर के
सेवामंदिर चौराहे पर अपना यात्रा बैग लिए खड़ा था। मुझे बताया गया था कि वहां
से स्टेशन जाने वाले आटो आसानी से मिल जाएंगे। दो-तीन खाली आटो तो बिना ध्यान
दिए ही निकल गए। एक जो वहां था, उसने इतनी अधिक विनम्रता से स्टेशन जाने के लिए मना किया कि उसे
गाली देने का मन भी नहीं हुआ।
बहरहाल
मेरी ट्रेन साढ़े आठ बजे थी। अभी केवल सात बजा था। मैं बिलकुल टेंशन में नहीं था, टेशन ही जाना था।
और छूट भी जाएगी तो ट्रेन ही होगी, प्लेन नहीं। ट्रेन का छूटना तो फिर भी मैनेज हो जाता है, पर प्लेन का छूटना
मैनेज करना बहुत मुश्किल काम है। अपन दोनों एक-एक बार मिस कर चुके
हैं, सो अच्छी
तरह जानते हैं।
दस-बारह
मिनट के इंतजार के बाद एक आटो वाले ने आखिरकार हम पर नजर इनायत की। वह अपनी
ड्रायवरी की सीट पर एक और को भी साथ बिठाए हुए था। पर हमें उससे क्या। पूछा, ‘स्टेशन चलोगे।’
बोला, ‘बैठो।’
‘कितने होंगे।’ हमने पूछा।
‘अस्सी।’
हमने कहा, ‘ठीक।’ और लद गए।
हम भोपाल जैसे मेट्रो होते
शहर के रहवासी रहे हैं और बंगलौर में जिस इलाके में रहते हैं, वह भी भोपाल
से बहुत अलग तो नहीं है। सो आटो में बैठने से पहले किराया तय करने की आदत है। मीटर-वीटर
से चलने वाले अपने को कम ही मिले हैं। पहले ही तय कर लो,
ताकि बाद में कोई झंझट न हो। वरना पूरे रास्ते फिर दिमाग इसी में उलझा रहता है कि
कितने पैसे मांगेगा या कि कितने बनेंगे। दो-तीन बार ऐसी झंझट
से पाला पड़ चुका है।
अभी आटो लगभग एक किलोमीटर ही
गया होगा कि आटो वाले ने पूछा, ‘राणा प्रताप नगर स्टेशन
जाना है या उदयपुर सिटी।’
मैंने कहा, ‘मुझे उदयपुर-इंदौर एक्सप्रेस पकड़नी है।’
बोला, ‘मतलब कि उदयपुर सिटी, तो सौ होंगे।’
मैंने कहा, ‘ठीक है।’
यात्रा कहने को तो यात्रा
होती है, पर कितना कुछ दिखाती है, सिखाती है।
स्टेशन समय पर ही पहुंच
गया। सवा आठ के लगभग। एस टू में अपनी 46 नंबर की अपर बर्थ पर कब्जा किया। लोअर
बर्थ पर एक युवा महिला अपनी लगभग डेढ़- दो साल
की बच्ची के साथ थी। उसका पति प्लेटफार्म पर टहल रहा था। महिला,बच्ची को छेड़ने की दृष्टि से बार-बार कह रही थी कि, पापा तो अब नहीं आएंगे। और बच्ची रह रहकर रोने का जैसे अभिनय करने लगती
थी। जब रेल के चलने का समय हुआ तो पापा जी भी आ ही गए।
उन्होंने हमसे पूछा कि कहां
तक जाएंगे और कौन सी बर्थ है। जवाब मिलने पर तुरंत प्रस्ताव रख दिया कि मेरी एक
बर्थ यहां है और दूसरी 23 है साइड लोअर बर्थ है आप एक्सचेंज कर लीजिए। मैं समझ
रहा था, लेकिन यह भी पता था कि इसका मतलब है पूरी रात बैठकर गुजारना। सो मैंने
मना कर दिया। पर एक अजीब से अपराधबोध से भर गया। पर इसे ज्यादा देर नहीं सहना
पड़ा। कोई दो साहबान आए जिनकी दो में से एक बर्थ 24 थी और एक 44 यहां। उन्होंने
सहर्ष उनका प्रस्ताव मान लिया,क्योंकि वे दोनों भी बैठकर
बतियाना चाहते थे, और वह साइड लोअर बर्थ पर ही आराम से हो
सकता था।
पापा जी बच्ची के साथ खेलने
में व्यस्त हो गए। बच्ची अब तक नाराज थी, शायद इस वजह से कि मम्मी इतनी देर
से झूठ क्यों बोल रही थी। पिछले कुछ समय से मेरा ध्यान इस बात पर रहता है कि मम्मी-पापा
अपनी बच्चियों से किस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं। वे उसे एक सामान्य बच्चे
की तरह देख रहे हैं या फिर लड़की होने के कारण उनके व्यवहार में कुछ ऐसा होता है
जो खटकता हो। अमूमन अब तक सफर के दौरान मुझे ऐसे जो भी दम्पति मिले हैं, उनमें ऐसा कुछ नजर नहीं आया। यह एक सकारात्मक बात है। यहां भी कुछ ऐसा
हुआ, जिसने मुझे सुखद आश्चर्य से भर दिया। बच्ची खेलते हुए
अचानक बर्थ से नीचे गिर गई। उसका सिर सामने की बर्थ से टकराया और वह रोने लगी।
उसका रोना देर तक जारी रहा। उसके पापा उसे गोद में लेकर चुप कराने की कोशिश में
लगे रहे। मुझे नींद आ रही थी, सो में जाकर अपनी बर्थ पर सो गया।
लगभग घंटे भर बाद नींद खुली तो देखा, पापा जी अब भी बच्ची
को गोद में लेकर कम्पार्टमेंट के गलियारे में टहल रहे हैं। और सबसे सुखद आश्चर्य
तो सुबह हुआ, जब देखा कि पापा-बेटी एक बर्थ पर सोए हैं। यानी
की रात भर बेटी को संभालने की जिम्मेदारी पापा की रही है। जियो पापा जी।
हर बार की तरह उज्जैन में
उतरकर लगभग घंटे भर बाद जयपुर-भोपाल एक्सप्रेस पकड़नी होती है। यह घंटा भर, प्लेटफार्म
पर ही गुजरता है। हर बार इस घंटे भर में कुछ न कुछ ऐसा घट जाता है जो याद रह जाता
है।
जयपुर-भोपाल से कुछ समय पहले
मुंबई-इंदौर एक्सप्रेस आती है। तो 30 की सुबह भी आई। रेल के डिब्बों पर लिखा ही था-
मुंबई-इंदौर। फिर भी चार लोगों के एक परिवार के पुरुष ने कहा, यह आई है बंबई
से। परिवार की एक दसेक साल की लड़की ने टोका, बंबई नहीं मुंबई
से। उनके लिए यह संवाद यहीं खत्म हो गया था, पर मेरे लिए कुछ
व्याख्या करने का मसाला दे गया था। मैं सोच रहा था कि पुरुष उस जमाने का ही है, जब बंबई बोला जाता था, और वह अब तक दिमाग से उतरा नहीं
है। दूसरे जब लड़की ने टोका, तो उसे भी ज्ञान नहीं बांटा गया
कि हां पहले तो बंबई ही था, मुंबई तो अब हुआ है।
थोड़ी देर बाद ही एक और घटना
घटी। एक मांगने वाला अपनी हथेली पर दो सिक्के रखे हुए मांगता घूम रहा था। मेरे पास
ही बैठे परिवार में एक छोटा बच्चा था। जब वह उस परिवार के सामने आया तो उस बच्चे
ने मांगने वाले की हथेली से सिक्का उठा लिया। जाहिर है उसकी मम्मी ने बच्चे को डांटा
‘गंदी बात’ कहकर। बच्चा संभवत: न तो मांगने की अवधारणा
को समझता था और न ही गंदी बात की। वह फिर अपने खेल में लग गया।
जयपुर-भोपाल एक्सप्रेस आई तो
उसमें भी एस 3 में हमारी अपर बर्थ थी। नीचे की बर्थ पर मां-बेटी थीं। उनके साथ तीनेक
साल का एक बच्चा था। उनकी बातचीत से समझ आया कि एक बच्चे की मां हैं और दूसरी नानी।
दोनों ही इग्नू की बीएड की परीक्षा देने हफ्ते भर के लिए भोपाल जा रही हैं। वे रतलाम
से आ रही थीं। रतलाम में उनका अपना निजी स्कूल चलता है। मां जो हैं वे फोन पर उनकी
अनुपस्थिति में स्कूल चलाने के लिए अपने बेटे का कुछ आवश्यक निर्देश दे रही थीं।
उनकी बातचीत से ही पता चला कि महोदया अपना चश्मा घर पर ही भूल आईं हैं और पासबुक यानी
गाइडबुक नंबर 34 से 38 भी। दोनों के बीच चर्चा के बाद आइडिया आया कि क्यों न पीछे
आने वाली एक अन्य रेल के ड्रायवर के हाथों चश्मा, किताबें और रह गया अचार भी बुलवा
लिया जाए। अपन भोपाल में उससे स्टेशन पर ले लेंगे। बेटी ने अपने पिता को फोन लगाया
और अपना आइडिया बताया। पिता ने शायद थोड़ी नाराजगी के बाद बात मान ली और कहा कि वे
ट्राई करते हैं। थोड़ी देर बाद मां को याद आया कि फोन जो पानी में गिर गया था, वह भी तो वहीं रह गया है। एक बार फिर बेटी ने फोन लगाया। (पता नहीं उनका चश्मा,फोन,गाइड और अचार आया या नहीं।)
इस बीच टीटीई महोदय आ गए। यह
स्लीपर कोच था, पर बिना आरक्षण वाली सवारियां भी थीं। हमारे कूपे में बैठी चार सवारियों से
उन्होंने सौ रुपए वसूले। पर रसीद नहीं दी, न सवारियों ने मांगी।
भोपाल स्टेशन का प्लेटफार्म
नंबर पांच इतना खुला हुआ है कि रेल के रुकते ही आटो वाले कुलियों की तरह सीधे कम्पार्टमेंट
में ही घुस आते हैं।
एक ने पूछा, ‘आटो।’
मैंने कहा हां, ‘साईं बोर्ड चलोगे।’
‘बिलकुल चलेंगे।’
‘कितने।’
‘ढाई सौ दे देना।’
हमने हमेशा की तरह रटा रटाया
डायलाग बोला, ‘पागल तो नहीं हो गया।’
‘अरे साब वहां
से खाली आना पड़ता है।’
‘ढाई सौ दूंगा
तो टैक्सी मैं नहीं जाऊंगा।’
‘अच्छा आप कितने
देंगे।’
‘एक सौ बीस से
एक रुपया ज्यादा नहीं।’
‘चलो साब एक सौ
चालीस देना।’ पहले वाले ने पीछा छोड़ दिया था। यह दूसरा था।
‘नहीं एक सौ बीस।’
‘ठीक है आइए, दो सवारी और बिठाऊंगा।’
‘अरे भाई तीन बिठा।’ हमने कहा।
अंतत: उसे और कोई सवारी नहीं
मिली। वह मुझ अकेले को ही लेकर आया।
एक और सफर पूरा हुआ।
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